यह योजना राज्य सरकारों को प्राकृतिक संसाधनों के बारे में निर्णय लेने का अधिकार देती है.
दिल्ली, एनसीआर में साल 2005 से लागू एनसीआर रीजनल प्लान-2021 की जगह एनसीआर रीजनल प्लान-2041 लागू करने का प्रस्ताव लाया गया है. इस मसौदे को नेशनल कैपिटल रीजन प्लानिग बोर्ड (एनसीआरपीबी) द्वारा तैयार किया गया है.
चार राज्यों के 25 जिलों में फैले वन क्षेत्र और जंगली जीवों के आवास, वायु गुणवत्ता, और ग्राउंड-वाटर रिचार्ज पर पड़ने वाले वाले नकारत्मक असर और खतरे के मद्देनजर इस मसौदे की आलोचना की जा रही है.
इस मसौदे की योजना को राज्य सरकारों से मिले सुझावों के बाद संशोधित किया गया है. इसके तहत प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्र को प्राकृतिक क्षेत्र कहे जाने का प्रस्ताव रखा गया है. नामकरण में अन्य बदलावों के कारण एनसीआर के कुछ संवेदनशील इलाकों में खतरे की आशंका हैं.
यह योजना राज्य सरकारों को प्राकृतिक संसाधनों के बारे में निर्णय लेने का अधिकार देती है.
साल 2005 से लागू एनसीआर क्षेत्रीय योजना- 2021 को आगे बढ़ाने के लिए एनसीआर मसौदे की क्षेत्रीय योजना- 2041 को प्रस्ताव लाया गया है. इस ड्राफ्ट प्लान को एनसीआर में शामिल राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के अलावा हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान राज्यों के कुछ जिलों के विकास के लिए एक दीर्घकालिक योजना के रूप में तैयार किया गया है. इन क्षेत्रों को नागरिक केंद्रित बुनियादी ढांचे के साथ वैश्विक सतत विकास लक्ष्यों के अनुरूप विकसित करने का लक्ष्य रखा गया है.
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र योजना बोर्ड (एनसीआरपीबी) द्वारा तैयार किए गए इस ड्राफ्ट को 2021 के अंत में जारी किया गया था. इस साल की शुरुआत तक इस मसौदे पर आम लोगों की राय और सुझाव मांगे गए थे. चार राज्यों के 25 जिलों में फैले वन क्षेत्र और जंगली जीवों के आवास, वायु गुणवत्ता, और ग्राउंड-वाटर रिचार्ज पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर और खतरे को देखते हुए पर्यावरण से जुड़े लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं.
हालांकि यह योजना पारिस्थितिकी को संतुलित करते हुए इस क्षेत्र के विकास करने का वादा करती है, लेकिन इसे दशकों से अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही अरावली पर्वत श्रृंखला के संरक्षण के लिए खतरा माना जा रहा है.
योजना के 2041 संस्करण में, ‘प्राकृतिक क्षेत्र’ शब्द अब भौगोलिक विशेषताओं जैसे पहाड़ों, पहाड़ियों, नदियों, जल निकायों और जंगलों के लिए प्रयोग किया जाएगा. ‘प्राकृतिक क्षेत्र’ को केंद्रीय या राज्य कानूनों के तहत संरक्षित किया जाएगा, और उन्हें भूमि अभिलेख के तौर पर मान्यता दी जाएगी. इस योजना के तहत उन्हीं प्राकृतिक क्षेत्रों का संरक्षण किया जाएगा जो राज्य या केंद्रीय अधिनियमों में और राजस्व रिकॉर्ड में अधिसूचित (दर्ज) हैं. इसके अलावा, मसौदा योजना के अनुसार, “प्राकृतिक क्षेत्र’ में यदि केवल प्राकृतिक रूप से निर्मित जल निकाय हो, तो उस पर विचार किया जा सकता है. ऐसे में दिल्ली एनसीआर में आने वाले अधिकतर जल निकायों के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी, क्योंकि इस क्षेत्र के अधिकांश जल निकायों के विकास में कहीं न कहीं मानवीय योगदान भी है. योजना के पहले संस्करण में ‘प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्र’ शब्द का इस्तेमाल किया गया था जिसे अब ‘प्राकृतिक क्षेत्र’ शब्द से बदल दिया गया है. पर्यावरणविदों का कहना है कि ‘प्राकृतिक क्षेत्र’ के रूप में बताए गए क्षेत्र को प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्र की तरह अनिवार्य संरक्षण की आवश्यकता नहीं रह जाएगी. यह गौरतलब है कि अरावली के संवेदनशील पारिस्थितिकी-तंत्र फिलहाल प्राकृतिक संरक्षित क्षेत्र में आते हैं.
इसके अलावा पर्यावरणविदों ने ध्यान दिलाया कि भूमि या राजस्व रिकॉर्ड के माध्यम से प्राकृतिक क्षेत्र का निर्धारण करने के कारण, 80% से अधिक जंगल, अरावली - इतना ही नहीं नदियां, बाढ़ के मैदान और जल निकाय तक भी इस क्षेत्र से बाहर हो जाएंगे। उनमें से कुछ ही क्षेत्र ऐसे हैं, जो अधिसूचना और राजस्व रिकॉर्ड में होने के दोनों के प्रस्तावित मानदंडों को पूरा करते हैं. उदाहरण के लिए, हरियाणा के अधिकांश अरावली पहाड़ी क्षेत्रों को जंगल के रूप में दर्ज नहीं किया गया है, यहां तक कि राजस्व रिकॉर्ड में भी उनका उल्लेख ‘गैर मुमकिन पहाड़’ (बिना खेती लायक जमीन) और ‘भूद’ (रेतीली मिट्टी क्षेत्र) के रूप में किया गया है. हरियाणा में लगभग 50,000 एकड़ अरावली को अभी तक किसी भी योजना के तहत वन क्षेत्र नहीं माना गया है. ऐसे में यह क्षेत्र संरक्षित क्षेत्र से बाहर हो जाएगा.
इसके अलावा, एनसीआर योजना 2021 में रिपोर्ट हुआ वन्य क्षेत्र, 4.02 प्रतिशत से घट कर योजना 2041 के तहत 3.27 प्रतिशत हो गया है. यहां तक कि नई योजना 2041 में ‘एनसीआर क्षेत्रीय योजना 2021’ के तहत आने वाले कुल क्षेत्र का 10 प्रतिशत वन्य क्षेत्र रखने के प्रस्ताव को भी समाप्त कर दिया गया है.
योजना कमजोर पड़ने का खतरा
यह योजना राज्य सरकारों को प्राकृतिक संसाधनों पर निर्णय लेने का अधिकार देती है.
नई योजना का विरोध करते हुए पर्यावरणविदों का कहना है कि क्षेत्रीय योजना, उप-क्षेत्रीय योजनाओं के लिए एक मार्गदर्शक दस्तावेज होती है. उप-क्षेत्रीय योजनाओं को राज्य सरकारें विकसित करती हैं. उन्हें डर है कि यदि मार्गदर्शक दस्तावेज को ही कमजोर कर दिया गया है, तो राज्य इसे और भी कमजोर कर सकते हैं. जिससे उत्तर भारतीय राज्यों दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में अरावली और अन्य महत्वपूर्ण प्राकृतिक पारिस्थितिकी प्रणालियों को खतरा हो सकता है.
देश भर के 3220 से अधिक नागरिकों, पारिस्थितिकीविदों, संरक्षणवादियों और पर्यावरण संगठनों ने आपत्ति दर्ज कराते हुए एनसीआरपीबी (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र योजना बोर्ड) समेत सभी संबंधित इकाइयों को ईमेल भेजी थी, जिसमें कहा गया, “नई योजना एनसीआर को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगी और अरावली के लिए घातक साबित होगी.” अरावली बचाओ नागरिक आंदोलन की संस्थापक सदस्य नीलम अहलूवालिया ने कहा, “हम जंगलों, स्वच्छ हवा और पानी की सुरक्षा के अपने अधिकार की मांग करते हैं.”
पर्यावरण कार्यकर्ता लेफ्टिनेंट कर्नल (सेवानिवृत्त) सर्वदमन सिंह ओबेरॉय ने कहा, “अरावली पानी और हवा को रिचार्ज करने का हमारा एकमात्र क्षेत्र है. इसे बर्बाद करके फिर से इसे इको-टूरिज्म हब बनाने से कोई फायदा नहीं होगा. यदि इस योजना को लागू किया जाता है तो हम एक पारिस्थितिक तबाही की ओर बढ़ेंगे, इसे वापस लेने की आवश्यकता है. इसमें कई कानूनी प्रावधानों की अवहेलना की गई है. उन्होंने आगे कहा कि भले ही प्रधानमंत्री के भाषणों में इसको प्राथमिकता दी गई है, लेकिन एनसीआरपीबी जैसी एजेंसियां पर्यावरण को प्राथमिकता नहीं दे रही हैं.”
एनसीआर बोर्ड की पिछली बैठक, जो योजना के कार्यान्वयन पर मुहर लगाने के लिए हुई थी, योजना को लेकर हंगामे के साथ रद्द कर दी गई. इसके अलावा, प्रधानमंत्री कार्यालय ने कड़ी आपत्ति जताते हुए एनसीआरपीबी और शहरी मामलों के मंत्रालय से क्षेत्रीय योजना 2041 दस्तावेज के मसौदे पर प्रतिक्रिया मांगी है. इसे पर्यावरण मंत्रालय की आलोचना और बड़ी संख्या में नागरिकों की आपत्तियों के बावजूद अंतिम रूप दिया गया था.
अरावली सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला है. यह दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान में लगभग 692 किलोमीटर में फैला एक विविध पारिस्थितिकी तंत्र है. केंद्र सरकार के रिकॉर्ड के अनुसार, 31 पहाड़ियां यानि अरावली का 25 प्रतिशत हिस्सा पहले ही अवैध खनन, वनों की कटाई और अतिक्रमण के कारण समाप्त हो चुका है. इसके संरक्षण को लेकर गंभीर न होने के लिए हरियाणा और राजस्थान की राज्य सरकारों की हमेशा आलोचना होती रही है.
(साभार- MONGABAY हिंदी)