दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और खबरिया चैनलों के रंगमंच पर संक्षिप्त टिप्पणी.
इस हफ्ते टिप्पणी में धृतराष्ट्र-संजय संवाद की वापसी हुई, इसके साथ ही देश में 70 साल बाद चीतों का आगमन हुआ और लगे हाथ समझदारी का प्रस्थान हुआ. खासकर खबरिया चैनलों की बची-खुची समझदारी का. राष्ट्र एक निरंतर चलने वाली इकाई है, उसी तरह से किसी राष्ट्र की सरकार भी निरंतर चलने वाली एक प्रक्रिया है. लेकिन फिलहाल हम उस युग में जी रहे हैं जहां भारत को आज़ादी 2014 में मिली थी. भारत की सारी उपलब्धियां, इसके हासिलात, इसकी तरक्की, इसका सफर 2014 के बाद शुरू हुआ.
शुकर मनाइए कि प्रधानमंत्रीजी ने चीता छोड़ने की बात कही, कहने को वो यह भी कह सकते थे कि एक समय में कबूतर उड़ाते थे, आज चीता उड़ा रहे हैं. और यकीन मानिए हुड़कचुल्लू उनकी इस बात पर भी वैज्ञानिक तथ्यों के साथ जिरह करते कि प्राचीन काल में हमारे देश में चीते उड़ा करते थे, अब मोदीजी के नेतृत्व में उन्हें दोबारा से उड़ाया जा रहा है. भारत में चीता की पुनर्बहाली का प्रोजेक्ट बतौर पर्यावण मंत्री जयराम रमेश ने यूपीए सरकार के काल में शुरू किया था. खैर यह महत्वपूर्ण नहीं है.
महत्वपूर्ण यह है कि जिस कूनो राष्ट्रीय वन्यजीव अभ्यारण्य में चीतों को छोड़ा गया, वह मूल रूप से गिर के एशियाई शेरों के लिए तैयार हुआ था. कूनो को पिछले 25 सालों से शेरों का इंतजार था, लेकिन उसे राजनीतिक दांवपेंच और खोखली अस्मिता का मुद्दा बनाकर आज तक लटकाया जाता रहा. इस टिप्पणी में इस पर विस्तार से बात.
लखीमपुर खीरी से दो दलित लड़कियों की हत्या का दिल दहलाने वाला समाचार सामने आया, लेकिन इस घटना की कवरेज से खबरिया चैनलों का अमानुष चेहरा भी सामने आ गया. उत्तर प्रदेश की पुलिस ने बड़ी तत्परता से आरोपियों को पकड़ कर पूरे मामले को सुलझा लिया था, लेकिन मीडिया के जमूरों ने इसे विपक्ष, मुसलमान, सांप्रदायिकता की पेंच में उलझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.