इस विषय पर कई अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं ने बात रखी है. इसे विस्तार से देखते हैं.
योग्यता आधारित मुफ्त सुविधाओं के कारण
1991 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था जिस प्रकार विकसित हुई, उसने बड़े पैमाने पर आबादी के शीर्ष के 10 प्रतिशत लोगों को लाभान्वित किया - जो कुशल थे. अर्थशास्त्री रथिन रॉय ने हाल ही में एक कॉलम में कहा, "भारत के शीर्ष 10 प्रतिशत ने 1991 के बाद से परिवर्तनकारी आर्थिक समृद्धि का आनंद लिया है."
बड़े पैमाने पर आबादी के लिए काम की कमी है. इसे उच्च-योग्य व्यक्तियों के द्वारा अत्यंत निम्न-स्तरीय सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन की संख्या से देखा जा सकता है. इसे मनरेगा के तहत काम की मांग से भी देखा जा सकता है. अप्रैल से जुलाई 2022 के बीच, इस योजना के तहत मांगे गए काम में, कोविड महामारी से पहले 2019 में इसी अवधि के मुकाबले लगभग 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई.
लेकिन पिछले साल की तुलना में हालात थोड़ा सुधरे हैं. इस साल अप्रैल से जुलाई के बीच काम की मांग 2021 की इसी अवधि की तुलना में करीब 13 फीसदी कम रही.
नौकरियों की कमी को वर्षों से गिरती श्रम भागीदारी दर से भी देखा जा सकता है. नीचे दिया चार्ट गिरती श्रम भागीदारी दर को दर्शाता है.
श्रम भागीदारी दर, 15 वर्ष से अधिक आयु की जनसंख्या में उपलब्ध श्रम शक्ति का अनुपात है. श्रम शक्ति क्या है? सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, श्रम बल में 15 वर्ष या उससे अधिक आयु के वो सभी व्यक्ति शामिल हैं, जो कार्यरत हैं, या बेरोजगार हैं और सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश में हैं.
गिरती श्रम भागीदारी दर का मतलब है कि बहुत से ऐसे व्यक्ति जिन्हें नौकरी नहीं मिल रही है, वो नौकरी तलाशना बंद कर देते हैं और उन्हें श्रम बल के हिस्से के रूप में नहीं गिना जाता है. इसलिए, उपलब्ध नौकरियों में उस गति से वृद्धि नहीं हुई जो इस श्रम बल में प्रवेश करने वाले नए पुरुषों और महिलाओं को जगह दे सके. महिलाओं के मामले में श्रम भागीदारी दर में भारी गिरावट आई है.
ऐसे में राजनेताओं पर कुछ करने का दबाव होता है. प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि इसी का एक परिणाम है और इसी तरह आय में सहायता की अन्य योजनाएं और खाद्य सब्सिडी कार्यक्रम भी इसी से जुड़े हैं. दूसरी तरफ, देखी जाने वाली मुफ्त सुविधाएं एक राजनेता के लिए अपने प्रचार का हिस्सा भी बन जाता है, जो उसे उसके प्रतिद्वंदियों से अलग करता है.
मुफ्त चीज़ों की कीमत
अर्थशास्त्र में कुछ भी मुफ्त नहीं होता. हर फ्रीबी - योग्यता या गैर-योग्यता आधारित, देखी या अनदेखी - सबके लिए भुगतान करना पड़ता है. इसके लिए धन सरकारों द्वारा एकत्र किए गए करों के साथ-साथ उनके उधार से आता है. हमने पहले देखा कि कॉरपोरेट टैक्स की कम दर ने केंद्र सरकार को पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाने के लिए मजबूर किया, जिसका भुगतान अंत में हम सब करते हैं.
इसके अलावा, कॉरपोरेट ऋणों के डिफॉल्ट होने और फिर खारिज किये जाने को लेते हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के एक प्रमुख मालिक के रूप में, केंद्र सरकार को इन बैंकों को चालू रखने के लिए बार-बार पूंजीकरण करना पड़ा, और इसमें पैसा खर्च होता है.
अक्टूबर 2017 से पहले सरकार इन बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए वार्षिक बजट में पैसा अलग रख देती थी. इसमें कोई शक नहीं कि इन बैंकों को जाने वाला पैसा, आसानी से किसी और चीज में लगाया जा सकता था. यह फ्रीबी की लागत थी, या डिफॉल्ट हुए कॉरपोरेट ऋणों को वसूल करने में सिस्टम की अक्षमता थी.
लेकिन अक्टूबर 2017 के बाद से परिस्थितियां बदल गई हैं. सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए पुनर्पूंजीकरण बांड जारी किए. मतलब सरकार ने बांड जारी किए, जो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा खरीदे गए. सरकार ने इस पैसे का इस्तेमाल इन बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए किया. यानी, सरकार ने इस तरीके से बैंकों में जमा राशि को उधार लिया, और उसी को वापस बैंकों में निवेश कर दिया. इससे सरकार को अपने राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने में मदद मिली.
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के इस तरीके को अर्थशास्त्री बजट न्यूट्रल कहते हैं. इस सीमा तक सरकार इन बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए, करों से अर्जित धन या उधार का उपयोग नहीं कर रही थी. यह केवल समस्या को टालने का तरीका था.
केंद्रीय बजट के अनुसार मार्च 2022 तक सरकार ने कुल 2.79 लाख करोड़ रुपये के पुनर्पूंजीकरण बांड जारी किए हैं. इन बॉन्ड्स पर सालाना 6-8 फीसदी का ब्याज मिलता है. सरकार जो ब्याज देती है उसका भुगतान वार्षिक बजट से किया जाता है. बहरहाल, इनमें से पहले बांड 2028 में परिपक्व होंगे यानी अपनी अवधि पूरी करेंगे, और ये बांड 2036 तक परिपक्व होते रहेंगे.
जब बांड परिपक्व हो जाएंगे तो उन्हें चुकाना होगा, और इसके लिए केंद्र सरकार को उन वर्षों के बजट में वार्षिक आवंटन करना होगा. इसलिए पुनर्पूंजीकरण बांड का उपाय एक तरह से खराब ऋणों की समस्या को आगे के लिए टाल देना है. हर साल बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए धन आवंटित करने और इस प्रक्रिया में अपने राजकोषीय घाटे को बढ़ाने के बजाय सरकार ने बांड बेचने का फैसला किया, जिसे सरकार को आने वाले सालों में चुकाना होगा.
हर फ्रीबी और उसके साथ जुड़ी लागत के लिए एक स्पष्ट उदाहरण है, भले ही उस लागत का भुगतान अभी किया जाये या भविष्य में, जैसा इस उदाहरण में है.
मुफ्त योजनाओं की फंडिंग
पिछले उदाहरण में बताई गई ऋणों को राइट-ऑफ की फ्रीबी के लिए फंडिंग बहुत पारदर्शी नहीं है, क्योंकि इसकी लागत को पीछे धकेल दिया गया है. यह समझना चाहिये कि जब तक किसी मुफ्त योजना की फंडिंग पारदर्शी है, तब तक कोई समस्या नहीं होनी चाहिए.
15वें वित्त आयोग की सिफारिश है कि एक राज्य सरकार के राजकोषीय घाटे की सीमा 2021-22 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का चार प्रतिशत, 2022-23 में 3.5 प्रतिशत और 2023-26 के दौरान तीन प्रतिशत होनी चाहिए. इसे केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया. राजकोषीय घाटा एक सरकार की आय और खर्च के बीच का अंतर है. इसे मुख्य रूप से उधार के माध्यम से संभाला जाता है.
आरबीआई ने अपनी नई वार्षिक रिपोर्ट में बताया कि 2021-22 में राज्य सरकार के आर्थिक हालात बजट के हिसाब से बेहतरी की ओर थे, जिसमें राजकोषीय घाटा 2020-21 में जीडीपी के 4.7 प्रतिशत से घटकर 3.5 प्रतिशत हो गया था. रिपोर्ट में कहा गया, "अप्रैल-फरवरी 2021-22 के लिए उपलब्ध 26 राज्यों के प्रोविजनल खातों (पीए) के आंकड़ों से संकेत मिलता है कि उनका समेकित सकल राजकोषीय घाटा, एक साल पहले की तुलना में 31.5 प्रतिशत कम था."
राज्य सरकारों से राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा कराया जा सकता है, क्योंकि उनके द्वारा किसी भी उधार को लेने के लिए केंद्र सरकार से पूर्व अनुमति की आवश्यकता होती है.
यानी आरबीआई के अनुसार, राज्य की वित्तीय स्थिति वैसी ही प्रतीत होती है जैसी होनी चाहिए. फिर समस्या क्या है? ऐसा लगता है कि कुछ राज्य बजट से बाहर उधार लेकर अपने खर्च का वित्तपोषण कर रहे हैं , और इसका हिसाब नहीं दे रहे हैं. प्रिंट की रिपोर्ट के अनुसार जुलाई के मध्य में, वित्त सचिव टीवी सोमनाथन ने राज्य सरकारों के मुख्य सचिवों के सामने एक प्रेजेंटेशन दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि राज्य ऋण लेने के लिए नगरपालिका पार्कों, अस्पतालों और अन्य सार्वजनिक कार्यालयों को गिरवी रख रहे हैं.
ये ऑफ-बजट उधार - जहां मूलधन के साथ-साथ ब्याज भी राज्य सरकारों के बजट से चुकाना होगा - केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित राज्य की कुल उधार सीमा में घोषित नहीं किया जाता. इस परिस्थिति में एक राज्य सरकार की कुल बकाया उधारी सही ढंग से नहीं दर्शायी गई है. यह ध्यान रखते हुए कि ऑफ-बजट उधार के माध्यम से हुआ खर्च सामान्य तौर पर बजट में दिखाई देता, इस तरह का उधार राजकोषीय घाटे को कम घोषित होने का कारण भी है.
सच्चाई ये है कि केंद्र सरकार ने कई वर्षों तक भारतीय खाद्य निगम को खाद्य सब्सिडी के लिए उधार दिलवाने के जरिये ऑफ-बजट उधार की इस प्रक्रिया का पालन किया. इससे केंद्र सरकार के घोषित समग्र उधार के साथ-साथ घोषित राजकोषीय घाटे में कम दिखाई दी. लेकिन केंद्र सरकार ने इस मोर्चे पर अपनी व्यवस्था में सुधार कर लिया है.
द प्रिंट की एक अन्य समाचार-रिपोर्ट बताती है कि इस माध्यम से, "पांच राज्यों - आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश - ने मार्च 2022 को समाप्त होने वाले दो वर्षों में 47,316 करोड़ रुपये तक की राशि जुटाई."
जाहिर है, फ्रीबी या मुफ्त सुविधाओं के पूरे मुद्दे की जड़ में यही मुख्य समस्या है. कुछ राज्य, विशेष रूप से आंध्र प्रदेश और पंजाब इस समस्या के केंद्र में हैं. जैसा कि फ्रीबी पर आरबीआई की हालिया रिपोर्ट में बताया गया, "आंध्र प्रदेश और पंजाब जैसे कुछ अत्यधिक ऋणग्रस्त राज्यों में ‘फ्रीबी या मुफ्त सुविधाएं’, सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के दो प्रतिशत से अधिक हो गई हैं."
और इसे व्यवस्थित करने की जरूरत है. इन राज्यों से कहा जाना चाहिए कि वे अपने खर्च के साथ-साथ अपनी समग्र उधारी को सही-सही घोषित करें.
जब मुफ्त चीजों की बात आती है, तो कई अर्थशास्त्री और पत्रकार आरबीआई की रिपोर्ट के हवाले से सभी राज्य सरकारों को एक ही तरह से पेश करते हैं. लेकिन उनमें से लगभग किसी ने भी इस बात का उल्लेख नहीं किया कि रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि "मुफ्त सुविधाओं से वित्तीय जोखिम (पांच सबसे अधिक ऋणग्रस्त राज्यों के सामने) इन राज्यों के लिए थोड़ा ही प्रतीत होता है, लेकिन पंजाब को छोड़कर जो मुफ्त उपयोगी चीजों के प्रावधान पर एक बड़ी राशि खर्च करता है."
निष्कर्ष
एक फ्रीबी क्या है, इसे परिभाषित करने की मांग की जा रही है. जैसा कि हमने देखा, असल परेशानी ये है कि क्या फ्रीबी है और क्या नहीं, यह परिभाषित करना मुश्किल है. जैसा कि हमने देखा, एक समय पर राज्य सरकार के स्तर पर शुरू हुई एक योजना जिसे एक फ्रीबी या “रेवड़ी” माना जाता था, वो समय के साथ केंद्र सरकार की नीति में बदल गयी है.
साथ ही, एक मुफ्त सुविधा, किसी राज्य की सरकार और इसे चुनने वाली जनता के बीच एक राजनीतिक चयन है. सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है कि "अभियानों के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त उपहारों को कैसे नियंत्रित किया जाए, इस पर सुझावों के लिए" एक विशेषज्ञ निकाय की स्थापना की जाए. एक ‘मुफ्त सुविधा या फ्रीबी’ को परिभाषित करने की इस कोशिश के तर्क में ये परेशानी है कि इसमें मतदाताओं को जाहिल माना जा रहा है. और यह गलत है.
इस मुद्दे की जड़ में मूल बात ये है कि कुछ राज्य सरकारें अपने आंकड़ों को ठीक तरीके से घोषित नहीं कर रही हैं और इसे सुधारने की आवश्यकता है.
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(विवेक कॉल बैड मनी के लेखक हैं.)