मानसून ही क्यों है हमारा असली वित्त मंत्री

देश में 44 फीसदी खाद्य का उत्पादन 56 फीसदी वर्षा क्षेत्र पर आधारित है.

WrittenBy:विवेक मिश्रा
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मानसून की विफलता का मतलब

मानसूनी वर्षा की मात्रा में कमी के कारण अक्सर सूखा पड़ जाता है, जो ग्रामीण आबादी की आजीविका को गंभीर रूप से प्रभावित करता है. इसका असर विशेष रूप से कम आय वाले और गरीब परिवारों पर होता है. ये परिवार फसल से संबंधित अन्य आर्थिक गतिविधियों, पानी की कमी और सूखे से जुड़े आवश्यक खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि से उत्पन्न किसी भी झटके के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं. अतः देश के कृषि उत्पादन, खाद्य सुरक्षा और खेतिहर परिवारों की आजीविका के लिए मानसूनी वर्षा महत्वपूर्ण है.

मीणा बताते हैं कि 2002-03 में लगभग तीन करोड़ लोगों की आजीविका और 1.5 करोड़ मवेशी सूखे से प्रभावित हुए थे. वह बताते हैं कि भारत को अक्सर मानसून की विफलता का सामना करना पड़ता है और हमारे यहां औसतन हर तीन साल में कहीं न कहीं सूखा पड़ता है. 2020 में प्रकाशित पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, देश के शुष्क क्षेत्रों में सूखे की आवृत्ति ( 1960 से 2018 तक प्रति दशक दो से अधिक सूखे औसतन) में वृद्धि हुई है.

इसके आलावा वर्षा की बारंबारता, तीव्रता और भारी बारिश वाले इलाकों में और वृद्धि हो सकती है. 1960 के बाद से, हर दशक में कम से कम 2-3 ऐसे साल हुए हैं जिनमें सूखे या बाढ़ का सामना करना पड़ा हो. पिछले दशक में, हमने 2015 और 2018 में सूखे और 2019 में अत्यधिक वर्षा का अनुभव किया है.

दक्षिण भारत (तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश, अक्टूबर और दिसंबर के बीच, उत्तर-पूर्वी मानसून से अपनी वार्षिक वर्षा का बड़ा हिस्सा प्राप्त करते हैं) पूर्वोत्तर मानसून के दौरान वर्षा की कमी के कारण 2016 से 2018 तक गंभीर सूखे की चपेट में रहा. 1874-76 के दूसरे सबसे भीषण सूखे के कारण फसल का काफी नुकसान हुआ जिसके परिणामस्वरूप मद्रास में भीषण अकाल (1876 से 1878) आया. हालांकि, देश के स्तर पर खरीफ फसल उत्पादन का प्रतिशत विचलन सकारात्मक था क्योंकि उत्तर-पूर्वी मानसून कुल वर्षा में केवल 27 फीसदी योगदान देता है.

सच्चिदानंद बताते हैं कि फसल उत्पादन को नुकसान पहुंचाने के अलावा, वर्षा की मात्रा और समय में थोड़े से बदलाव के भी अन्य गंभीर सामाजिक परिणाम भी हो सकते हैं. 1999 और 2000 में लगातार सूखे की स्थिति के कारण उत्तर-पश्चिम भारत के भूजल स्तर में भारी गिरावट आई थी. इस बीच, 2000-2002 के दौरान फसल बर्बाद होने के कारण ओडिशा में 1.1 करोड़ लोगों को भयानक अकाल का सामना करना पड़ा. इसके अलावा, 2005 में आई मुंबई की बाढ़ जलवायु परिवर्तन एवं बारिश के दुष्परिणामों का एक स्पष्ट उदहारण थी. इसलिए, हफ्तों से लेकर वर्षों तक के टाइम स्केल पर मानसून परिवर्तनशीलता का पूर्वानुमान लगाना बहुत आवश्यक बात है. इतना ही नहीं मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) द्वारा सकारात्मक मानसून पूर्वानुमान ने कई मौकों पर शेयर बाजारों को मदद पहुंचाई है. अच्छे या बुरे मानसून का प्रभाव न केवल शेयर बाजारों में बल्कि ट्रैक्टर, एफएमसीजी उत्पादों, दोपहिया वाहनों, ग्रामीण आवास जैसे कृषि उत्पादों की मांग में भी दिखाई देता है. इस तरह मानसून वास्तिवकता में हमारी पूरी अर्थव्यवस्था का संचालक बन जाता है. लेकिन जब मानसून ज्यादा ही अनिश्चित हो गया है तो इसकी विफलताओं से निपटने के लिए कारगर कदम भी उठाए जाने की जरूरत है.

यह होनी चाहिए रणनीति

मीणा बताते हैं कि सबसे प्रभावी रणनीति यह हो सकती है कि देश में सिंचित क्षेत्र को बढ़ाया जाए ताकि सूखे के दौरान भारी फसल उत्पादन के नुकसान से बचा जा सकता है. हालांकि, सिंचाई की अतिरिक्त लागत के कारण किसानों का शुद्ध लाभ कम हो जाता है. अधिकांश सिंचाई स्रोतों का भरण-पोषण अंततः मानसून की बारिश पर निर्भर करता है, लेकिन मानसून की विफलता के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने के लिए यह एक लंबी अवधि की रणनीति है. इसके अलावा सिंचाई दक्षता में सुधार के लिए माइक्रो-इरिगेशन को अपनाना और वाटरशेड, तालाबों और पारंपरिक जल संचयन संरचनाओं का विकास और कायाकल्प करके वर्षा जल का संरक्षण और संचयन भी किया जाना चाहिए.

इसके अलावा वह बताते हैं कि सूखा-रोधी और कम अवधि वाली किस्मों और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को अपनाने से भी मानसून की विफलता का सामना किया जा सकता है. आमतौर पर किसान अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए सामान्य मौसम के लिए विकसित उच्च उपज देने वाली किस्मों (एचवाईवी) की खेती करते हैं.

शायद ही कोई किसान अन्य फसलें या किस्में उगाता है क्योंकि ये सामान्य वर्षा की स्थिति में अन्य फसलों या किस्मों की तुलना में अपेक्षाकृत कम रिटर्न देने वाली होती हैं. इस प्रकार नई किस्मों या फसलों को अपनाना मानसून की उपलब्धता, सामयिक एवं विश्वसनीय जानकारी और बीज और अन्य इनपुट्स में नए निवेश करने की किसानों की क्षमता पर निर्भर करता है. दक्षता में सुधार के लिए माइक्रो इरीगेशन को अपनाना और वाटरशेड, तालाबों और पारंपरिक जल संचयन संरचनाओं का विकास और कायाकल्प करके वर्षा जल का संरक्षण और संचयन करना कुछ अन्य कदम हो सकते हैं. इस तरह एक खराब मानसून हमारी तरक्की को काफी पीछे ढकेल सकता है. साथ ही एक अच्छा और समान वर्षा वितरण वाला मानसून हमारी तरक्की में चक्रवृद्धि बढ़ोत्तरी कर सकता है.

(डाउन टू अर्थ से साभार)

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