लिलिपुटियन नेताओं के बीच गुलीवर जैसे नेहरू

अनुपम खेर ने हाथ में थमा दी गई पटकथा के हिसाब से पढ़ तो दिया कि नरेंद्र मोदी के भाषणों में आंकड़ों व तथ्यों की भरमार होती है. लेकिन वे प्रधानमंत्री के लाल किले के भाषणों से अपने इस दावे को प्रमाणित नहीं कर सके.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
Date:
Article image

67 सालों की कड़ी मेहनत से खड़ी की गई लोकतंत्र व विकास की इमारत में अपनी जगह हथिया लेने जैसी आज की बात उस समय नहीं थी. जवाहरलाल की आधी कहानी गुलामी से लड़ने और आधी कहानी आजाद हिंदु्तान के जन्म की पीड़ा से जुड़ी है. वह एक-एक ईंट जोड़ने, बुनियाद खोदने व नक्शा गढ़ने जैसी चुनौती की कहानी है. हम उस अभागे देश के लोग हैं जो रक्त की नदी तैर कर आजादी के दरवाजे पहुंचे थे. गृहयुद्ध की कगार पर खड़ा वह पगलाया देश जवाहरलाल के हाथ सौंपा गया था जिसका विभाजन हो चुका था.

गरीबी-सांप्रदायिकता-जातीयता-अंधविश्वास आदि से जिसकी आंतरिक ताकत चूक रही थी. उद्योग-धंधों का कोई मुकम्मल ढांचा नहीं था. फौज-पुलिस सब बिखरे हाल में थे. सैकड़ों सालों की गुलामी ने जिसका मन-मस्तिष्क गुलाम बना डाला था. ऐसे देश को बिखरने से बचाने-चलाने के लिए, कल तक जो नौकरशाही गुलामी को मजबूत करने में लगी थी, वही एकमात्र आधार था उनके पास. तन व मन दोनों से क्षत-विक्षत देश जिसे देख कर आशा व विश्वास पाता था, वह महानायक अभी-अभी गोलियों से बींध कर मार डाला गया था. इस पूरे काल में विफलताएं भी हुईं, गलतियां भी हुईं, बेईमानियां भी हुईं लेकिन इसी काल में देश को शनै:-शनै: खड़ा भी किया गया.

लालकिले से हुए जवाहरलाल के 17 भाषणों में आप वह सारा श्रम, वह सारी पीड़ा, वह सारी आस्था पहचान सकते हैं. इस कठिन ऐतिहासिक दौर को अनुपम दो भाषणों के, दो असंबद्ध वाक्यों में निबटा कर अपना एजेंडा तो पूरा कर लेते हैं लेकिन इस कोशिश में जवाहरलाल को नहीं, खुद को इतिहास का जोकर बना डालते हैं.

जवाहरलाल के पास लफ्फाजी और जुमलेबाजी का न अवकाश था, न गांधी उन्हें इसकी इजाजत देते थे. लोकतंत्र के मूल्यों व मिजाजों की उनकी जितनी समझ थी, विकास का जो पैमाना दुनिया भर में मान्य व प्रतिष्ठित था और जो उन्हें भी लुभाता था, उन सबको भारतीय जमीन पर बोने में उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा झोंक दी. हम उनसे सहमत-असहमत हो सकते हैं लेकिन उनकी सोच, योजना, प्रयत्न और नीयत से आंखें नहीं मूंद सकते. इन सारी चुनौतियों का, उनको पाने की कोशिशों का जिक्र वे लालकिले के अपने भाषणों में भी करते रहे. लेकिन अनुपम खेर की खैर नहीं रह जाती यदि वे उनका जिक्र भी कर देते. यह अनुपम अज्ञान अनुपम खेर के लिए वरदान साबित हुआ.

लालकिले की प्राचीर से यह संबोधन और वहां से उठती ‘जय हिंद’ की तीन पुकार जवाहरलाल की ही शुरू की हुई है जिससे उनका इतिहास-बोध समझा जा सकता है. इसे नागरिकों का समारोह बनाने तथा बच्चों की विशेष उपस्थिति की परंपरा भी उनकी ही शुरू की हुई है जो आज सिकुड़ते-सिकुड़ते आत्म-मुग्धता का प्रतीक मात्र रह गई है. आज यह याद दिलाना जरूरी-सा हो जाता है कि जिस जवाहरलाल पर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने नेताजी सुभाष बोस को श्रेयहीन किया, ‘जय हिंद’ का यह नारा जवाहरलाल ने उनसे ही लिया था. अगर उन्होंने इसे लालकिले की प्राचीर से भारत की पुकार में बदल न दिया होता तो नेताजी का यह नारा इतिहास की गर्द में कहीं खो ही जाता.

प्रधानमंत्री बनते ही जवाहरलाल ने लस्त-पस्त देश को झकझोर कर उसे नया बनाने की दिशा में क्या-क्या किया, इसकी सूची कोई बनाए तो उसे आजाद भारत की कुंडली लिखने का अहसास होगा. राष्ट्रीय जीवन का कोई पहलू ऐसा नहीं था कि जिसे स्वतंत्रता का स्पर्श देने का प्रयत्न उन्होंने नहीं किया. आजादी की पौ फटते ही जवाहरलाल को कश्मीर हड़पने के साम्राज्यवादी षड्यंत्र का सामना करना पड़ा. वे जरा भी डगमगाते तो कश्मीर हाथ से गया ही था.

लेकिन जिन्ना को सामने कर जो ब्रिटिश-अमरीकी-रूसी दुरभिसंधि भारत के सामने खड़ी की गई थी, उसे धता बताते हुए, राजा हरि सिंह के साथ कश्मीर के भारत में विलय की जो संधि हुई, वह जवाहरलाल व उनकी सरकार की सबसे नायाब कूटनीतिक जीत की गाथा है. वह कश्मीर नासूर क्यों बन गया, इसे समझने के लिए जो प्रधानमंत्री व अनुपम खेर समान लोग ‘कश्मीर फाइल्स’ देखते हैं वे दया के पात्र हैं. लेकिन अनुपम करें भी तो क्या, उन्होंने न इतिहास पढ़ा है, न उसकी बारीकियों को समझा है. वे जिस प्रचार के लिए मैदान में उतारे गए हैं उसमें इतिहास की मूढ़ता बड़ा गुण मानी जाती है.

कश्मीर के षड्यंत्र की काट खोजने वाले जवाहरलाल ने तभी-के-तभी आजाद भारतीय समाज में विष समान देवदासी प्रथा की समाप्ति का एक्ट बनवाया. गांधी की हत्या का निजी व सामाजिक दर्द झेला. इतना ही नहीं, सांप्रदायिक ताकतें जिस तरह की अराजकता फैला कर सत्ता हथियाना चाहती थीं, उसे काबू में रखा और देश में किसी प्रकार की व्यापक अशांति भड़कने नहीं दी. यह उनकी प्रशासनिक क्षमता व निजी प्रतिबद्धता की मिसाल है. हम याद रखें कि यह तब की कहानी है जब चारणों की भीड़ पैदा नहीं हुई थी, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पैदा नहीं हुए थे, गुप्तचर एजेंसियों का आज जैसा जाल नहीं बिछा था.

देश के योजनाबद्ध विकास का नक्शा बनता रहे, इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं की तस्वीर बनाने वाले योजना आयोग का गठन किया. विकास की मुहिम के प्रतीक स्वरूप दामोदर घाटी विकास परियोजना की शुरूआत की तथा 15 साल की आदिवासी किशोरी बुधनी मेझान के हाथों उसका प्रारंभ करवाया. संप्रभु गणतंत्र के रूप में भारत ने उसी काल में अपना संविधान अंगीकार किया और दुनिया ने जैसा वृहद चुनाव देखा नहीं था, वैसा प्रथम आम चुनाव करवाया. इसके लिए स्वायत्त चुनाव आयोग का गठन करवाया.

आधुनिक विज्ञान का केंद्र खड़ा करने के क्रम में खड्गपुर में भारत का पहला आईआईटी बनवाया. प्रेस की स्वतंत्रता और उसके अधिकारों की संवैधानिक व्यवस्था की. फिल्म्स डिविजन की स्थापना की. सिनेमा व रंगमंच को खुला आसमान व स्वतंत्र अस्तित्व दिया. सत्यजित राय, बिमल राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, राज कपूर आदि इसी दौर में खिले. सांस्कृतिक चेतना को आकार देने के लिए संगीत नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी तथा साहित्य अकादमी की स्थापना हुई. भाषावार प्रांतों को देश की भौगोलिक संरचना का आधार बनाया गया. आजादी मिलने के चौथे साल में ही भारत में पहले एशियाई खेलों का आयोजन करवाया. मिडडे मील की जिस योजना की आज इतनी चर्चा होती है उसका प्रारंभ तमिलनाडु के कांग्रेसी मुख्यमंत्री के कामराज ने 1956 में किया था जिसे जवाहरलाल का पूरा समर्थन मिला.

इसी दौर में आकाशवाणी और दूरदर्शन की स्थापना हुई. महात्मा गांधी की 90वीं जयंती पर राजस्थान से पंचायती राज की शुरुआत हुई. एक तरफ फिल्म इंस्टीट्यूट की स्थापना हुई तो दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्गुट राष्ट्रों का संगठन शीतयुद्ध से दुनिया को बाहर निकालने का विकल्प बना. इसी दौर में अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र की नींव रखी गई, परमाणु ऊर्जा का पहला केंद्र स्थापित किया गया. यह सब जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व के पहले दौर में ही साकार हो गया. लालकिला इन सबका साक्षी रहा. हां, इतना जरूर था कि तब लालकिला अपना ढोल पीटने का अड्डा नहीं था, देश को भरोसा देने व विश्वास में लेने का पवित्र स्थल था.

मोदी-दौर में पहुंचते ही अनुपम जिस तरह उपमाओं की बारिश करते हैं, क्या वैसी ही उदारता जवाहरलाल के लिए भी नहीं दिखा सकते थे? नहीं दिखा सकते थे क्योंकि यह उनके एजेंडा की हवा निकाल देता. इसलिए मोदीजी का बखान करते हुए अनुपम बड़ी चालाकी से लालकिला से बाहर निकल गए और मोदीजी की उन बातों-घोषणाओं की कसीदाकारी में लग गए जिनका लालकिले के भाषणों से कोई रिश्ता नहीं है.

अनुपम खेर ने हाथ में थमा दी गई पटकथा को पढ़ तो दिया कि नरेंद्र मोदी के भाषणों में आंकड़ों व तथ्यों की भरमार होती है, कि वे हर वर्ष अपनी पिछली घोषणाओं की प्रगति की जानकारी भी देते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री के लाल किले के भाषणों से अंश दिखा कर वे अपने इस दावे को प्रमाणित नहीं कर सके. वे ऐसा करते तो उनके लिए यह छिपाना कठिन हो जाता कि लालकिले के भाषणों को गलत आंकड़ों, आधारहीन घोषणाओं और अपनी वाहवाही का मंच बनाने का जैसा करतब मोदीजी ने दिखलाया है, वैसा जवाहरलाल की तो जाने ही दें, कोई दूसरा प्रधानमंत्री भी नहीं कर सका. यह शिफत सिर्फ एक ही प्रधानमंत्री के पास है.

अनुपम खेर ने लालकिले से गूंज तो उठाई लेकिन वे समझ नहीं सके कि वह गूंज कहीं और ही पहुंच गई.

Also see
article imageबिलकीस बानो केस: दोषियों की रिहाई पर सवाल और लाल किले से पीएम मोदी का बयान
article imageअमृत महोत्सव में डूबा प्रोपेगेंडा और राष्ट्रवादी रंगना के साथ ‘तू-तड़ाक’

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like