हम ऐसे समय में हैं जहां अपराध और न्याय, बेगुनाही और गुनाह का अपना स्वतंत्र अर्थ नहीं रह गया है, यह सब एक सांप्रदायिक परियोजना का हिस्सा बन चुका है.
इसे लेकर कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि गुजरात सरकार के एक पैनल द्वारा बिलकीस बानो से बलात्कार करने, उसकी तीन साल की बच्ची और 13 अन्य लोगों की हत्या करने वाले जिन 11 दोषियों को क्षमादान दिया गया है वह सिर्फ न्याय का मखौल नहीं है. इसके बहुत खतरनाक राजनैतिक संकेत भी है. सरकार अपने फैसले पर अभी भी पुनर्विचार कर सकती है. अगर संपर्क किया जाय तो सुप्रीम कोर्ट भी इस निर्णय को उलट सकता है, हालांकि उसी ने माफी के आवेदन पर विचार की अनुमति दी थी. लेकिन जो नुकसान होना था, वो हो चुका है.
"क्या यही न्याय की तार्किक परिणति है?" बिलकीस बानो का यह सवाल सावधानीपूर्वक गढ़े गए भारतीय गणराज्य के बाहरी आवरण को बेधता है. इस झकझोरने वाले सवाल का कोई जवाब नहीं है. तथ्य यह भी है कि इस सवाल की नृशंसता को व्यापक रूप से महसूस भी नहीं किया जा रहा है. यह इस गणराज्य के नैतिक रूप से कुंद और बेलाग सांप्रदायिक हो जाने का प्रमाण है.
इस क्षमादान से जो चीजें दांव पर लगी हैं उसे समझने के लिए सबसे जरूरी है कि हम इसे कानूनी बहस-मुबाहिसों में न उलझाएं. दुर्भाग्य से, भारतीय न्याय प्रणाली में जमानत, सज़ा और क्षमादान का विचार अलग-अलग मामलों में अलग-अलग तरह से इस्तेमाल होता है.
कुछ मामलों, जैसे निर्भया के दोषियों को मृत्युदंड दिया गया. लेकिन बहुतेरे मामलों में, जिनमें बिलकीस का मामला भी शामिल है, ऐसा नहीं किया गया. हम इस पर बहस कर सकते हैं कि क्या 1992 की नीति के तहत माफी दी जा सकती है, जिसे इसके बाद निरस्त कर दिया गया था. क्या केंद्र के वो दिशानिर्देश जिसके मुताबिक जघन्य अपराधों के मामले में माफी नहीं मिलनी चाहिए, इस मामले पर लागू नहीं होता है?
हम इस बारे में लंबी बहस कर सकते हैं कि इस तरह के अपराध में न्यायसंगत सज़ा क्या होनी चाहिए. दंड और सजा के बारे में भी एक व्यापक बहस हो सकती है. लेकिन इस मामले में दिया गया निर्णय इस दायरे में नहीं आता. संभव है कि यह सजा माफी इन कानूनी व्यावहारिकताओं पर वाजिब लगती हो. लेकिन इस मामले में ऐसा लगता है कि राज्य सरकार ने अपने विवेकाधीन अधिकारों का इस्तेमाल न्याय को तोड़ने-मरोड़ने और एक राजनैतिक संकेत देने के लिए किया है.
बिलकीस बानो के साथ हुई घटना इतनी भयावह थी कि उसके बारे में सुनने भर से आपका दिलोदिमाग सुन्न हो जाता है. यह आपकी भावना को झकझोर देता है. यह अपराध बेहद संगीन था और इसके तथ्यों की पुष्टि कई बार हो चुकी है. लेकिन हम अभी भी उस क्रूरता को याद करके सिहर उठते हैं, जब एक गर्भवती महिला का बलात्कार होता है, एक बच्ची को पटककर मार डाला जाता है, एक पूरे परिवार का नरसंहार कर दिया जाता है, और यह सब पीड़िता के पड़ोसियों द्वारा किया जाता है.
इन तथ्यों की रोशनी में बिलकीस बानो ने जो हासिल किया वह किसी चमत्कार से कम नहीं है. उसने अपने अधिकारों का इस्तेमाल किया, अदम्य साहस का परिचय दिया, वह भी तब, जब हालात उनके बिल्कुल प्रतिकूल थे. उन्होंने शत्रुतापूर्ण राजनैतिक माहौल, धमकाने वाले समाज, जर्जर न्याय व्यवस्था और आर्थिक अभाव से लड़ते हुए जीत हासिल की. उन्होंने अपनी पहचान न्याय से बनाई न कि अपने साथ हुए अपराध से.
बिलकीस ने सर्वोच्च देशभक्ति दिखाते हुए इस देश के संविधान और इसकी संस्थाओं में इसके संरक्षकों से भी कहीं ज्यादा विश्वास व्यक्त किया. यह मामला उम्मीद के उस तिनके की तरह था जिसके सहारे हम ये सांत्वना पाते थे कि अभी भी न्याय मिलना संभव है. और इस न्याय का अंत कहां हुआ? बिलकीस बानो को यह बताने की जहमत भी नहीं उठाई गई कि उसके गुनहगारों को उसी मोहल्ले में आज़ाद छोड़ा जा रहा है. सरकार ने धृष्टता से संदेश दिया कि वह अपने अवसाद और भय को फिर से जिये.
लेकिन इसके दो राजनैतिक पहलू हैं जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए. पहले के तमाम दंगों की तरह ही 2002 के दंगों को अंजाम देने वाले ज्यादातर आरोपियों को सजा नहीं दी गई. लेकिन गुजरात में यह बड़े पैमाने पर फैलाया जा रहा है कि जो कुछ लोग दोषी ठहराए गए वह कुछ गैर सरकारी संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, कांग्रेस की सरकार और मीडिया के एक हिस्से द्वारा रची गई साझा सियासी साजिश के शिकार हुए.
इस राजनैतिक युद्ध में कभी-कभी न्याय की मांग करने वालों के दबाव में कुछ ऐसे 'संदिग्धों' को बलि का बकरा बनाया गया जो संभवतः निर्दोष थे. यहां यह प्रासंगिक नहीं है कि यह बात कितनी सच है. मुद्दा यह है कि भाजपा चाहती है कि हम इस नैरेटिव पर विश्वास करें- 'हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकते, हिंदू केवल पीड़ित हैं'.
यही वह कथानक (नैरेटिव) है जिसकी आड़ में सरकार हर उस व्यक्ति के पीछे पड़ जाती है जो 2002 के दंगों के पीड़ितों को न्याय दिलाने की कोशिश करता है. और उसे सजा भी देता है, क्योंकि वे न्याय मांग रहे हैं. लेकिन इस नैरेटिव का जो छुपा हुआ संदेश है उसका मकसद यह सिद्ध करना है कि न्याय की मांग ही दरअसल एक साजिश थी. यह केवल बदले की कार्रवाई नहीं है. यह 'निर्दोष हिंदू' के मिथक को भी बढ़ावा देता है.
गैर-भाजपा सरकारों के काल में यह मिथक और मजबूत होगा. इस क्षमादान के जरिए बड़ी आसानी से यह संकेत दिया जा रहा है कि भाजपा इस न्याय व्यवस्था में हिंदू हितों की रक्षा करेगी. ऐसी व्यवस्था में जहां पुलिस और न्यायपालिका पर विश्वसनीयता कम होती जा रही है, इस तरह के कथानक पर विश्वास करना आसान है. यह एक चाल भी जिसमें दोषी सामने ही नहीं आते.
इस सियासी चालबाजी से यह भावना और प्रबल हो जाती है कि पहचान के आधार पर किया गया अपराध दरअसल अपराध है ही नहीं. यह एक ऐसी सोच है जो समुदाय का सवाल आते ही बलात्कार जैसी हिंसा को भी नजरअंदाज कर देती है. सांप्रदायिक हिंसा के मामले में लंबे समय से यौन हिंसा को राजनैतिक हिंसा के ही एक औजार के तौर पर देखा जाता रहा है. जातीय हिंसा के मामले में भी यह बात सच है.
दंगों, नरसंहार या जातीय वर्चस्व की लड़ाई में पीड़ित मात्र अपनी पहचान के कारण हिंसा का शिकार होते हैं. पहचान के आधार पर की गई हिंसा के दोषी किसी अपराधबोध से ग्रसित नहीं होते, और उनके समर्थक भी उन्हें नायक के रूप में देखते हैं, न कि अपराधी के रूप में. युद्ध के नाम पर होने वाला बड़बोलापन, जिस पर हिंदुत्व और अन्य कट्टरपंथी विचारधाराएं पोषित होती हैं, इस टकराव और आसान बना देती हैं. यही कारण है कि हम हत्यारों को माला पहनाते, बलात्कारियों का अभिनंदन करते और उनके समर्थन में रैलियां निकालते देखते हैं.
इसीलिए, यह बिलकुल भी हैरानी की बात नहीं है कि सज़ा माफी के इस निर्णय का बड़े पैमाने पर कोई विरोध नहीं हो रहा है. अपराधियों की पहचान के आधार पर हम निरंतर दोहरे मानकों का प्रयोग करते हैं. हम न केवल बेहद सांप्रदायिक समय में रह रहे हैं, बल्कि सांप्रदायिक पहचान की समग्रता को ओर बढ़ रहे हैं, जहां संगीत और भाषा जैसे सूक्ष्म संस्कृतिक चिन्ह भी पहचान के बोझ से दबे हैं. इस तरह के ध्रुवीकृत वातावरण में अपराध और न्याय, बेगुनाही और गुनाह का अपना कोई स्वतंत्र अर्थ नहीं रह जाता. वह सिर्फ एक सांप्रदायिकता परियोजना का हिस्सा बन कर रह जाती है.
"क्या यही न्याय की तार्किक परिणति है?", बिलकीस बानो के इस सवाल का जवाब परेशान करने वाला हो सकता है. उनकी दृढ़ता ने उन्हें न्याय दिलाया, और हमें यह भ्रामक भरोसा दिया कि न्याय मिलना अभी भी संभव है. लेकिन जैसा कि दिख रहा है, जैसे-जैसे सांप्रदायिकता की हवा तेज़ होगी, दंड का भय खत्म होगा, न्याय का वह तिनका फिर से इस झोंके में उड़ जाएगा. यह न्याय की तार्किक परिणति नहीं है, क्योंकि वास्तविक न्याय शायद कभी शुरू ही नहीं हुआ था.