‘कीर्तिगान’, चन्दन पाण्डेय का सद्य प्रकाशित उपन्यास है. यह उनके पिछले चर्चित हुए उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’ से सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन उसकी विभीषिका का अगला अध्याय है. अगर इन दोनों उपन्यासों के प्रकाशनों की अवधि और उनके दरमियान को ठीक से देखें तो इस बीच एक मुस्लिम व्यक्ति की हत्या के लिए जहां पुलिस को वैधानिक गल्प का सहारा लेना पड़ा था और इसका नायक पूरे होशोहवास में उस गल्प के लिखे जाने का साक्षी बना हुआ था, इस दरमियान में ऐसी हत्याओं की पूरी फेहरिस्त जमा करके अपने पाठकों के समक्ष रख रहा है.
अब ऐसी हत्याएं इतनी सामान्य हो चली हैं कि उसकी लंबी फेहरिस्त भी जैसे हमें डराती नहीं. साथ ही अब इन हत्याओं के लिए पुलिस को किसी अतिरिक्त सतर्कता की जरूरत नहीं रह गई है. बिना किसी छल-प्रपंच के एक खास समुदाय के लोगों को बेरहमी से मारा जा सकता है. यह इस दरमियान का हासिल है जो सहज ही इन दो रचनाओं में प्रकट होता है. कह सकते हैं कि दोनों ही उपन्यास रियल टाइम को कैप्चर करते हैं और पूरी बारीकी और शिद्दत से कैप्चर करते हैं.
इसकी बड़ी और शायद एकमात्र वजह लेखक का अपने समय और समाज को लेकर न केवल सजग, अद्यतन और बारीकी से अवलोकन करने की कला और सरोकार में माहिर होना है, बल्कि सूचनाओं के ऐसे स्रोतों से गंभीर किस्म का जुड़ाव भी बनाए रखना है जिन्हें इस देश की मीडिया में हाशिया भी मयस्सर नहीं है. इसकी पुख्तगी खुद लेखक पूरी विनम्रता व ईमानदारी से उपन्यास लिखे जाने के लिए इस्तेमाल हुई संदर्भ सूची से करता है.
यह बात इसलिए भी उल्लेखनीय है कि ऐसे दौर में, जब सूचना के हर ईमानदार स्रोत पर बेतहाशा हमला हो रहा है और प्रायः लोग यह रिस्क तक लेने से बचते नजर आते हैं कि उनका इस तरह के मीडिया से कोई राब्ता भी है जो शिद्दत से सही को सही और गलत को गलत कहने का माद्दा रखता है और अपनी नागरिक जिम्मेदारी समझता है.
वहां चन्दन न केवल इन स्रोतों को विश्वसनीय ही मानते हैं बल्कि उन्हें उनका दाय भी देते हैं. प्रायः उपन्यासों और विशेष रूप से हिन्दी के उपन्यासों में इस तरह का चलन नहीं है जहां लेखक खुद यह मानने को सहज तैयार हो कि उसका लिखा महज उसकी नितांत निजी कल्पना ही नहीं है बल्कि उसकी कल्पना के पीछे एक ठोस जमीन भी है जो किसी और ने लिखकर तैयार की है. यह लेखक की विनम्र अल्पज्ञता को जाहिर करने का बड़ा सबब हो सकती है जिसका जोखिम कम से कम हिन्दी के लेखक कम उठाते हैं.
इस लिहाज से चंदन हिन्दी को एक भाषा के रूप में आज के समय के सामने वाकई एक बड़ी ताकत के रूप में खड़ा करते हैं और अपने पाठकों को यह सिखाते भी हैं कि समय अब महज कल्पनाओं या बनावटीपन का नहीं है बल्कि इस अंधेरे समय में अंधेरे के और गाढ़े रंगों को दस्तावेज करने का भी है. अगर ये कई रंग कहीं किसी और भाषा में मौजूद हैं तो उन्हें भी हिन्दी की जुबान में पढ़ा जाना चाहिए और उनके जरिए अपने आज के इस दौर को पढ़ा जाना चाहिए.
यह यथार्थ एक अलग तरह का यथार्थ है जिसमें महज बोध नहीं बल्कि प्रामाणिकता है और इस प्रामाणिकता का आधार ऐसे तमाम स्रोत हैं जो जोखिम लेकर आवाम को सच से आगाह करना चाहते हैं. ये और बात है कि इनकी पहुंच 24 घंटे की मीडिया की तुलना में नक्कारखाने में तूती की तरह है या पावस ऋतु में दादुरों की तुलना में कोयल की तरह है. सूचनाओं के लिहाज से यह समय पावस काल है और पूरा देश किसी नक्कारखाने में तब्दील हुआ जाता है.
चन्दन अपने समय के इन दोनों साम्यों को समझते हैं, बूझते हैं और सबसे बड़ी बात अपने कहन और शिल्प में उसे पूरी ईमानदारी से पकड़ते हैं. वह एक भी ब्यौरे को छोड़ते नहीं हैं. जैसे एक छटपटाहट है कि कहीं कोई ब्यौरा या सूत्र किसी घटना का छूट गया तो इंसाफ तक पहुंचने वाले रास्ते के कुछ मील और बढ़ जाएंगे. इंसाफ यहां रचना और इसके मजबूर पात्रों और उनके परिवारों दोनों के लिए बराबर हैं.
यही इस उपन्यास की विशिष्टता भी है कि इसका शिल्प इसके पात्रों के साथ इस कदर घुल-मिल गया है कि अगर एक साथ ना-इंसाफी होगी तो दूसरे के साथ भी होगी. एक को इंसाफ अगर देश के न्यायिक व्यवस्था में चाहिए तो दूसरे को इंसाफ इस देश के आवाम के बीच से चाहिए. कुछ सालों में व्यवस्था और आवाम के बीच एक अलग ही तरह विरक्त रिश्ता हो चला है जो इस कृति में पूरे बोध के साथ मौजूद है.
पिछले उपन्यास में चन्दन एक ‘इंवेस्टिगेटिंग रिपोर्टर’ या खोजी पत्रकार की तरह हमारे सामने उपन्यास के मुख्य पात्र को लाते हैं यहां वह पात्र वाकई एक रिपोर्टर है और ऐसी हत्याओं का इंवेस्टिगेशन कर रहा है, लेकिन यह इंवेस्टिगेशन किसी गल्प के आवरण में नहीं है बल्कि एक रोजनामचे की तरह है जिसमें घटनाओं के समस्त झूठे -सच्चे ब्यौरे दर्ज हैं. सनोज के रूप में जो इंवेस्टिगेटिंग रिपोर्टर इस उपन्यास में हमारे सामने है वो इन दोनों उपन्यासों के बीच की कड़ी है. यह कड़ी अब ज्यादा भौतिक और प्रत्यक्ष हो चली है.
सनोज अपनी सहयोगी सुनंदा के साथ यहां एक रोजनामचा लेकर हाजिर हैं. जिसमें हर दर्ज घटनाएं लगभग एक जैसी हैं, उनके ब्यौरे एक जैसे हैं, उन्हें लेकर पुलिस का रवैया एक जैसा है और अदालतें भी किसी घटना में कुछ अलग व्यवहार करती हुई नहीं दिखतीं. ऐसे लगता है जैसे ये घटनाएं किसी एक भवन या कार्यालय से ही नियोजित और नियंत्रित हैं. इनका पैटर्न एक जैसा है.
बीते कुछ समय ने जैसे दहशत के रूप बदले हैं. आधुनिक प्रौद्योगिकी की ताकत को अगर किसी ने सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है तो वह हिंदुस्तान का सनातनी दक्षिणपंथ है. अब बड़े-बड़े दंगे प्रायोजित करने की जरूरत नहीं रही. मोहल्ले के कुछ शोहदे इकट्ठा कीजिए उन्हें नफरत या धर्म की अफीम चटाइए और राजनीतिक कैरियर की चासनी चाटने का प्रलोभन दीजिए, जान-माल के संरक्षण का भरोसा दीजिए और बाद में उनके (खुदा न खासता जेल ही जाना पड़ गया तो) प्रशस्ति और परिवार की देखभाल की गारंटी दीजिए, बस वो मानव बम बनकर हाजिर हैं.
अब एक दृश्य भर रचना है. दृश्य जिसमें धर्म आ जाए, विधर्मी आ जाए, गाय आ जाए और ज़्यादा नहीं 10-20 शोहदों की भीड़ आ जाए, पार्श्व में राम, हनुमान, इत्यादि के नारे आ जाएं, इसी दृश्य में कहीं भारत माता आदि का भी जिक्र हो तो और प्रभावोत्पादक बनाया जा सकता है. कोई दाढ़ी वाला हो तो अच्छा वरना वीडियो बनाते वक्त आधार कार्ड जूम करके दिखाया जा सकता है. बस शूटिंग शुरू.
इस दृश्य को लाइव कीजिए या घटना उपरांत वायरल कीजिए जिसकी जिम्मेदारी एक ‘सुव्यवस्थित सेल’ निभाएगा. बस हो गया एक शानदार मारधाड़, दहशत और सांप्रदायिक उन्माद से भरपूर न्यू इंडिया का नया शाहकार. करोड़ों लोग इसे लाइव देखते हुए स्वत: इस दहशत में शामिल. दंगे प्रायोजित करने की तुलना में इसका खर्च भी हजार गुना कम है.
मोबाइल क्रांति ने दंगों की पूरी लागत को न्यूनतम कर दिया है. प्रभाव कई कई गुना बढ़ा दिया है. अब दंगों के लिए सालों रेकी और तैयारियां करने की जरूरत नहीं है. पूरे देश में बकौल एक विपक्षी नेता ‘कैरोसीन डाला जा चुका है, जरूरत बस एक चिंगारी है’ तो जहां तहां ऐसी चिंगारियां छोड़ते रहिए. ये चिंगारियां जहां-जहां छोड़ी गईं हैं और जिन्हें इनका निशाना बनाया गया है, उनकी दास्तानें इस उपन्यास का मूल हिस्सा हैं.
हालांकि यहां लिंचिंग का शिकार खुद सनोज भी है. लिंचिंग केवल एक ऐसी घटना नहीं है जिसे भीड़ की शक्ल में किसी की हत्या किए जाने तक सीमित किया जा सके. यह एक घटना हो सकती है और भीड़ जिसे कहा जाता है अंतत: वह चीन्हे हुए लोगों का समूह ही है. चूंकि हम उन्हें नहीं चीन्हते जिन्होंने उत्तर प्रदेश या झारखंड में किसी निहत्थे को किसी भी वजह से मार दिया इसलिए वो हमारे लिए भीड़ है वरना जो मारा है उसके परिवार के लोग उन्हें खूब चीन्हते हैं, स्थानीय पुलिस भी उन्हें चीन्हती है और स्थानीय पत्रकार भी उनके बारे में सब जानते हैं. ऐसे में यह भीड़ केवल उनके लिए ही है जो घेर कर दी गयी हत्याओं में अपनी ठोस पहचानों के साथ मुब्तिला थे लेकिन उनके नाम सामने नहीं आए. हमें मरने वाले के नाम तो याद रह जाते हैं लेकिन जिन्होंने मारा उनके नाम हम तक पहुंचते-पहुंचते गुमनाम से हो जाते हैं.
सनोज अपने दफ्तर में हर रोज इसी लिंचिंग का शिकार है. उसे घेर कर मारने की कोशिश प्राय: रोज का घटनाक्रम है. सनोज टूटा हुआ है. बिखरा हुआ है. अपमानित है. खुदगर्ज नहीं है लेकिन एक अच्छा साथ, किसी के साथ सोना और किसी से प्यार पाना उसकी खुदगर्जी है जरूर, लेकिन ऐसी खुदगर्जी किस में नहीं है? इस लिहाज से सनोज हम सब हैं. यही वजह है कि चन्दन ने सनोज की इस खुदगर्जी को कुछ ज्यादा हाईलाइट किया है ताकि हमारे समाज के उन विरोधाभासों को सामने लाया जा सके.
शुरू में सनोज का रवैया और उसकी सोच हमें पसंद नहीं आती लेकिन उसकी संवेदनशीलता और उससे उपजे भय और भय से उपजी चिंताएं हमें उसके प्रति नरम बनाती हैं. ऐसा नायक बहुत समय बाद हिन्दी जगत में मिला है जिसमें मानवीयता इतना गहरे बसी है कि उसकी चालाकियां, खुदगर्ज़ियां हमें उसके विराट व्यक्तित्व के समक्ष तुच्छ नजर आने लगती हैं.
परिवार को लेकर जिस तेजी से धारणाओं का बाजार गरम है और इसे लगभग निर्णयात्मक ढंग से एक वर्गीय चेतना ने व्यक्ति की जिंदगी में एक ‘आवश्यक बुराई’ की तरह बता दिया है, ऐसे में चन्दन के इस उपन्यास ने परिवार जैसी जटिल बना दी गई संस्था को पुन: समाज की ‘अनिवार्य इकाई’ और व्यक्ति की पहली और अंतिम शरणस्थली के तौर पर देखने का नजरिया दिया है. सनोज एक विखंडित परिवार की स्मृति लिए जी रहा है. तो मारे गए लोगों के परिवार इंसाफ के लिए खड़े हैं बल्कि केवल परिवार ही इंसाफ के लिए खड़ा है.
यह संभव है कि इसे एक वर्गीय परिघटना की तरह देखा जा सकता है. एक वर्ग है जिसे यह सहूलियत है कि वो अपने परिवार का एक दूरी के साथ ‘अवलोकन’ कर सकता है. हिंदुस्तान और दुनिया में परिवार नामक संस्था हमेशा समाजशास्त्रीय अध्ययन का केंद्र रहा है. पितृसत्ता और सामंतवाद की एक जरूरी और लगभग प्राथमिक इकाई के तौर पर देखा जाता रहा है. खुद सनोज इसी व्यवस्था के तहत परिवार के विखंडन का शिकार है और अक्सरहां अपने बच्चों को याद करता है.
खासकर तब जब इन बाहरी घटनाओं से उद्वेलित होता है, खुद को असुरक्षित पाता है और अंदर से डर रहा होता है. अपने मूल परिवार से उसका कोई रिश्ता नहीं है और उसे अपने मूल परिवार व इमिडीएट परिवार से जिस प्रेम के लिए तरसा है उसके लिए ही वह लगातार अपनी महिला सहयोगी, सुनंदा के प्रति आकर्षित हुआ जाता है.