बिहार में बदलाव: तीन सबसे प्रिय सहयोगियों का जाना मोदी के लिए चुनौती बन सकता है

2024 का लोकसभा चुनाव काफी दिलचस्प होने की उम्मीद है. पहले शिवसेना, उसके बाद अकाली दल और अब दूसरी बार जनता दल (यू) का बीजेपी को छोड़ना पीएम मोदी के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी कर सकता है.

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अगला सवाल यह हो सकता है कि अगर सचमुच सामाजिक न्याय की पार्टियां एक साथ आईं हैं तो बीजेपी का भविष्य क्या होगा? बिहार में अगर बीजेपी का भविष्य समझना हो तो हमें 2014 के लोकसभा के चुनाव परिणाम को नहीं बल्कि 2015 के बिहार विधानसभा के परिणाम को देखकर आकलन करना होगा. उस चुनाव में बीजेपी 243 में से 157 सीटों पर चुनाव लड़कर 53 सीटें जीत पाई थी और उसका वोट शेयर 24.4 फीसदी था जबकि राजद और जेडीयू क्रमशः 101-101 सीट लड़कर 80 और 71 सीटों पर विजयी हुई थी और दोनों दलों का वोट शेयर क्रमशः 18.6 व 16.8 फीसदी था.

उस चुनाव में रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोजपा, उपेन्द्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के नेतृत्व वाली हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा (हम) बीजेपी गठबंधन के साथ थी. वर्तमान में उपेन्द्र कुशवाहा तो जदयू के संसदीय दल के अध्यक्ष ही हैं और जीतनराम मांझी भी नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा हैं.

इस राजनीतिक गुणा भाग का एक मात्र मकसद यह है कि बिहार के जातीय समीकरण का ठीक से आकलन किया जाए और भविष्य में पड़ने वाले वोट के विभाजन को ठीक से समझा जाए. बिहार में सवर्ण मोटे तौर पर 1990 में मंडल लागू होने और उसके बाद की लालू यादव की आक्रमता की वजह से पूरी तरह जनता दल और बाद में लालू यादव के नेतृत्व में बनी राजद के खिलाफ हो गए थे.

सुविधानुसार वे नीतीश कुमार को वोट इसलिए करते थे क्योंकि लालू यादव का विकल्प बनने की क्षमता उन्हीं में थी और दूसरी बात बीजेपी नीतीश का समर्थन कर रही थी. लेकिन बीजेपी द्वारा 2013 में मोदी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद नीतीश कुमार जब एनडीए से बाहर निकल गए तो बिहार के सवर्ण पूरी तरह बीजेपी के साथ चले गए.

यही वह वर्ष था जब नीतीश और लालू एक साथ आकर 2015 का चुनाव बीजेपी गठबंधन के खिलाफ लड़े. 2014 में मोदी प्रधानमंत्री बन चुके थे, वह अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे. उन्होंने बिहार विधानसभा चुनावों में दर्जनों सभा को संबोधित किया, लेकिन उनकी पार्टी सत्ता से बहुत दूर रह गई. इतना ही नहीं, अगर उस समय उनके साथ जीतनराम मांझी का सहयोग नहीं होता, जिनकी पकड़ मगध क्षेत्र में है और जिन्हें 2.3 फीसदी वोट मिला था, तो मतगणना विशेषज्ञों की मानें तो बीजेपी की हैसियत 30 सीट से अधिक की नहीं होती. कुल मिलाकर, बीजेपी की हैसियत आज के दिन 30 विधानसभा सीटों पर सिमट जा सकती है.

अगर इसी समीकरण को ध्यान में रखकर आकलन किया जाए तो 2024 का लोकसभा चुनाव काफी दिलचस्प होने की उम्मीद है. 2019 में बिहार की 40 सीटों में से 39 सीटें एनडीए गठबंधन को मिली थीं, इसकी पूरी संभावना है कि अगले चुनाव में यह समीकरण बिल्कुल उलट जाए. इस नए गठबंधन का असर बिहार के पड़ोसी राज्य झारखंड पर भी पड़ेगा जहां की 14 सीटों में से 11 सीटों पर बीजेपी काबिज है. अर्थात लोकसभा की 54 सीटों पर बीजेपी को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी.

लब्बोलुआब यह कि अगला लोकसभा चुनाव लगभग पौने दो साल बाद है और जिस रूप में बीजेपी की तीन सबसे प्रिय सहयोगी पार्टियां सबसे पहले शिवसेना, उसके बाद अकाली दल और बाद में दूसरी बार जनता दल यू उसे छोड़कर निकली है, उससे फिलहाल अपराजेय से दिख रहे मोदी के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है.

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