मुफ्त की रेवड़ियों पर मुफ्त की सलाह

प्रधानमंत्री के बयान के दो निहितार्थ हो सकते हैं. पहला, वह मान चुके हैं कि रेवड़ियां चुनाव जीतने का पक्का हथकंडा हैं और दूसरा, वह चिंतित हैं कि उनके अलावा दूसरे राजनीतिक दल भी इस हथकंडे को आजमा रहे हैं.

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मोदी के हालिया भाषण के बाद मीडिया ने रिपोर्ट किया कि जीएसटी काउंसिल की बैठक में वित्त मंत्रालय के अधिकारियों ने मुफ्तखोरी (फ्रीबीज) पर चिंता जताई है. उनकी दलील थी कि इससे राज्यों की अर्थव्यवस्था गिर रही है, खासकर उन राज्यों में जो गैर बीजेपी शासित हैं. मीडिया में ऐसे बयानों के बाद कुछ राज्यों में विरोध प्रदर्शन भी हुए.

सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों प्रधानमंत्री ने मुफ्तखोरी से सावधान किया है, खासकर तब जब ये मूलभूत जरूरतों से जुड़ी हैं और इन्हें पूरा करने का दायित्व सरकार का होना चाहिए. दरअसल लोकलुभावनवाद (पॉपुलिजम) का चुनावी लोकतंत्र से चोली-दामन का साथ रहा है.

मोदी के बयान के दो निहितार्थ हो सकते हैं. पहला, वह मान चुके हैं कि मुफ्तखोरी चुनाव जीतने की पक्का हथकंडा है. दूसरा, वह चिंतित हैं कि अधिकांश राजनीतिक दल इस हथकंड़े को आजमा रहे हैं.

ऐसे में उनकी सरकार में कोई नयापन नहीं रहेगा. हो सकता है कि उन्होंने महसूस किया हो कि बीजेपी का बेहद ध्रुवीकृत चुनावी अभियान भी अन्य दलों के मुफ्तखोरी के वादों के आगे उतना असरदार न रहे.

मोदी मुफ्तखोरी को मतदाताओं के सबसे बड़े समूह यानी युवाओं को दी जाने वाली रिश्वत कह रहे हैं जबकि अपने वादों को बदलाव की राजनीति का हिस्सा मान रहे हैं जो अगली पीढ़ी को गौरवान्वित भारतीय बनाएगी.

बहरहाल, मुफ्तखोरी पर आधारित योजनाओं के अभियानों के बीच इस पर उनका बोलना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में मूलभूत जरूरतों के महत्व को दर्शाता है.

(डाउन टू अर्थ से साभार)

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