मीडिया एक व्यवसाय है, और इसका मॉडल पिछले एक दशक में बदल गया है.
2) यह पहली बार नहीं है जब टाइम्स ग्रुप ने दूसरी कंपनियों में निवेश किया है. समूह की सामरिक निवेश शाखा को ब्रांड कैपिटल कहा जाता है. ब्रांड कैपिटल की वेबसाइट के अनुसार, “ब्रांड कैपिटल विशिष्ट और अग्रणी निवेश मॉडलों और कार्यक्रमों के माध्यम से ब्रांड के जरिए विकास और मूल्य(पूंजी) सृजन को बढ़ावा देती है.”
यह कंपनी इससे पहले कई अन्य कंपनियों में निवेश कर चुकी है. इस पर्याय है कि टाइम्स समूह केवल एक मीडिया हाउस नहीं है बल्कि एक प्रकार का पूंजी निवेशक प्रतिष्ठान भी है, जो आकर्षक लगने वाले व्यवसायों में निवेश करने की चेष्टा रखता है. यह बात काफी समय से विदित है.
बेशक ऐसे दूसरे मीडिया घराने भी हैं, जो अन्य व्यवसायों को पूर्ण स्वामित्व के साथ चलाते हैं. जबकि टाइम्स समूह कई कंपनियों में छोटे दांव लगाना पसंद करता है. भारत में मीडिया घराने शॉपिंग मॉल से लेकर रियल एस्टेट प्रोजेक्ट्स तक के मालिक हैं. जहां तक टाइम्स समूह की नीति का सवाल है, यह निवेश की सबसे पुरानी कहावत पर आधारित है, “अपने सभी अंडों को एक ही टोकरी में नहीं रखना चाहिए.”
3) यह दिलचस्प बात है कि कालानिक ने उबर के अपने सहयोगियों को टाइम्स समूह के साथ मजबूत संबंध बनाए रखने के लिए लिखा. अधिकांश आधुनिक ब्रांड इसी तरह काम करती हैं. जैसा कि मार्केटिंग गुरु अल रीस और लौरा रीस अपनी किताब 'द फॉल ऑफ एडवरटाइजिंग एंड द राइज ऑफ पीआर' में लिखते हैं, “अधिकांश प्रमुख ब्रांड्स के इतिहास को नजदीक से देखने पर पता चलता है कि यह एक सच्चाई है. इतना ही नहीं, बड़ी संख्या में प्रसिद्ध ब्रांड्स लगभग बिना किसी विज्ञापन के सफल हुए हैं.”
इस रणनीति के तहत मीडिया से घनिष्ठ संबंध आवश्यक हैं, और जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है, उबर ने ऐसा न केवल भारत में बल्कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में किया है.
वास्तव में, कई आधुनिक यूनिकॉर्न नियामक प्रणालियों की खामियों या मौजूदा नियमों को ताक पर रखकर विकसित हुए हैं. यूनिकॉर्न उन स्टार्टअप्स को कहा जाता है, जिनका मूल्यांकन एक अरब डॉलर से अधिक हो. इस रणनीति की मांग है कि मीडिया के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए जाएं.
उबर के बिजनेस मॉडल की टक्कर दुनिया भर के टैक्सी चालकों से थी और जमे हुए खिलाड़ियों को हटाने के लिए कंपनी को अच्छे जनसंपर्क प्रबंधन की आवश्यकता थी, और उसने बिलकुल ऐसा ही किया.
इसके अलावा कई अन्य यूनिकॉर्न्स की तरह ही उबर ने भी अपने प्लेटफॉर्म पर ड्राइवरों और ग्राहकों दोनों को आकर्षित करने के लिए ‘कैश-बर्न’ मॉडल का प्रयोग किया. इसका अर्थ है कि ड्राइवरों को मौजूदा बाजार दरों से अधिक पैसे देना और साथ ही ग्राहकों को भी भारी छूट देना, भले ही इससे घाटा हो. और अगर कोई कंपनी में हिस्सेदारी के लिए उस घाटे की भरपाई करने को तैयार था, तो उबर के लिए उसके साथ जुड़ना बड़ी स्वाभाविक बात थी.
अंत में यह कहना सही होगा कि उबर-टाइम्स समूह मामले में जो कुछ हुआ, वह दिखाता है कि पिछले दशक में बिजनेस मॉडल किस प्रकार बदल गए हैं. बेशक, जब-जब पूंजीवाद का विकास होता है, चाहे वह अच्छे के लिए हो या बुरे के लिए, उससे कई तरह के असहज प्रश्न उठते हैं. ऐसा ही कुछ यहां भी हो रहा है.
(विवेक कौल बैड मनी के लेखक हैं.)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)