न्यूज़लॉन्ड्री किसी संपादकीय मत से बंधा हुआ क्यों नहीं है?

वैचारिक विमर्श के मुद्दों पर कोई भी न्यूज़ संस्थान अपने सभी कर्मचारियों की ओर से आधिकारिक रूप से बोलने का दावा नहीं कर सकता. यह पत्रकारिता के लिए स्वस्थ पंरपरा नहीं है.

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न्यूज़लॉन्ड्री किसी संपादकीय मत से बंधा हुआ क्यों नहीं है?
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नजरिए की इस एकरूपता की कीमत कई तरह की सच्चाइयों को चुकानी पड़ती है. "संपादकीय दृष्टिकोण" तय करने की परंपरा एक रिपोर्टर की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को नुकसान पहुंचाती है, उसकी पत्रकारीय निष्ठा का क्षरण करती है और एक संपूर्ण समाचार तंत्र के विकास को रोक देती है. इसीलिए विवादित और विचारणीय मुद्दों पर न्यूज़लॉन्ड्री का कोई नियत संपादकीय दृष्टिकोण नहीं है.

क्या इसका अर्थ यह है कि हमारा किसी भी विषय पर कोई संस्थागत दृष्टिकोण नहीं होगा?

ऐसा नहीं है. आमतौर पर ऐसी चीजों को कहने की आवश्यकता नहीं, और कुछ समय पहले तक वे सर्वमान्य थीं. लेकिन डिजिटल युग का एक लाभ और इससे पैदा हुई सामाजिक व राजनीतिक परिपाटियों का परिणाम यह भी है कि दशकों पहले निश्चित हो चुके विषयों को भी फिर से कुरेदा जा रहा है. उन्हें मानवीय मूल्य कहा जाता था और हम न्यूज़लॉन्ड्री में इसका सम्मान आज भी करते हैं. क्या लिंग, रंग, वर्ण, संप्रदाय, जाति आदि के आधार पर भेदभाव करना सही है? नहीं! इस विवाद पर निर्णय बहुत पहले हो चुका है, यह किसी नीति से जुड़ा सवाल नहीं बल्कि एक मानवीय मूल्य हैं.

आजकल सोशल मीडिया से लेकर सत्ता के गलियारों में बैठे हुए ट्रोल, अक्सर जाति व्यवस्था की गुणों की महानता बताते या समलैंगिक रिश्तों की बुराई करते देखे जा सकते हैं. हमारे लिए यह नीति से जुड़े प्रश्न नहीं, बल्कि मानवीय मूल्य हैं. इसलिए हां, यह हमारा विश्वास है कि महिला भ्रूण की हत्या नहीं होनी चाहिए, सिर्फ उन्हें लड़की होने की वजह से पर्याप्त पोषण से वंचित नहीं किया जाना चाहिए, भले ही कुछ लोग ऐसा करते हों. ऐसे लोग न्यूजलॉन्ड्री में काम नहीं कर सकते. हम मानते हैं कि सिर्फ इस आधार पर लोगों की हत्या मानवीय मूल्यों के खिलाफ है कि उसने आपकी आस्था का अपमान किया था. ऐसे लोग हो सकते हैं जिन्हें यह सब ठीक लगता हो लेकिन उनके लिए न्यूज़लॉन्ड्री में कोई जगह नहीं है.

हम विमर्श से परे, वैश्विक मानवीय मूल्यों‌ में पूरी तरह से विश्वास रखते हैं, मूल्य जो हमें सभ्य और शालीन बनाते हैं. लेकिन ऐसी कोई भी बात जिस पर अभी तक सहमति नहीं बनी है, उस पर संस्थागत दृष्टिकोण रखना हमारा तरीका नहीं. हम मानते हैं कि यह पत्रकारिता के लिए ठीक नहीं.

हमें भरोसा है कि विरासत में मिले इन मूल्यों के आधार पर पत्रकारिता करने का तरीका बेहतर है. और यह भी केवल एक सुधार ही है, यह कोई पत्थर की लकीर नहीं है. हम बिल्कुल उम्मीद करते हैं कि जिज्ञासू-बेचैन लोगों का एक नया समूह- जिसके भीतर सत्य और खबरों के लिए आग होगी- इसे और बेहतर बना कर हमें पीछे छोड़ देगा. हम उसकी उम्मीद भी करते हैं क्योंकि‌ कोई सिस्टम परफेक्ट नहीं होता, उसको परफेक्ट बनाना पड़ता है.

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