सरकार आदिवासियों और जंगल में रहने वालों की मर्जी के बिना वनों को काटने की स्वीकृति देने जा रही है

नए वन संरक्षण नियम राज्यों को आदिवासी समुदायों से, केंद्र सरकार के वनों को हटाने की स्वीकृति के पैसे लेने के बाद रजामंदी लेने के लिए विवश कर देंगे.

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नए नियमों की क्रोनोलॉजी

यह नए नियम, एक दशक तक जनजातीय मामलों के मंत्रालय, वन मंत्रालय, कई इंफ्रास्ट्रक्चर मंत्रालयों, प्रधानमंत्री कार्यालय और उद्योग जगत के बीच की आपसी खींचतान के बाद आए हैं.

सत्ता के गलियारों में यह खुसफुसाहट 2009 में तत्कालीन वन मंत्री जयराम रमेश के द्वारा, मंजूरी लेने की प्रक्रिया में एफआरए के नियमों के अनुपालन को सुनिश्चित करने के साथ ही शुरू हो गई थी. जब जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने वन अधिकार अधिनियम को लागू करने की कोशिश की तो उसे वन विभाग की नौकरशाही से दो-दो हाथ करने पड़े. इससे पहले तक नौकरशाही वन्य भूमि से जुड़ी मंजूरी देने में एकाधिकार रखती थी.

वन मंत्रालय के कारिंदों ने पहले 2012 में, अनुपालन की प्रक्रिया को पहली कागजी मंजूरी के समय देखे जाने के बजाए दूसरे चरण की मंजूरी पर स्थानांतरित करने की कोशिश की, जिसके परिणाम स्वरूप जनजातीय मामलों के मंत्री वी किशोर चंद्र देओ ने वन व जलवायु मंत्री जयंथी नटराजन को कठोर शब्दों में एक पत्र लिखा.

जयंती नटराजन को वी किशोर चंद्र देव के नवंबर 2012 के पत्र का एक हिस्सा.

जयंती नटराजन को वी किशोर चंद्र देव के नवंबर 2012 के पत्र का एक हिस्सा.

इस पत्र के बाद वन मंत्रालय ने नियमों में इस बदलाव को किनारे तो कर दिया, लेकिन ऐसा होना जारी रहा. महीनों बाद, वन व पर्यावरण मंत्रालय ने एक परिपत्र जारी किया जिसमें कहा गया की सड़कों, पाइपलाइनों और ट्रेन की पटरियों जैसे "लिनीयर" प्रोजेक्ट को ग्राम सभा की मंजूरी की आवश्यकता नहीं है और वे वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत नहीं आते, इसका अपवाद केवल वे प्रभावित आदिवासी समूह होंगे जिनके अधिकारों को पहले से ही मान्यता मिल चुकी है.

लेकिन ओडिशा माइनिंग कारपोरेशन लिमिटेड के मामले में उच्चतम न्यायालय के 2013 के निर्णय ने जनजातीय मंत्रालय को सशक्त किया. 2014 में मंत्रालय ने दोबारा से कहा कि कानून के अंदर इस तरह के अपवाद का प्रावधान नहीं हैं.

मई 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद, वन अधिकार अधिनियम को हल्का किए जाने के प्रयास फिर से शुरू हो गए. 28 अक्टूबर 2014 को नई सरकार ने एक पत्र जारी कर "लीनियर" परियोजनाओं के लिए नियमों में दी गई ढील को दोबारा से लागू कर दिया.

जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने इस पत्र पर अपनी आपत्ति जाहिर की और इसे वापस लेने के लिए कहा.

जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने वन मंत्रालय को कड़े शब्दों में पत्र लिखते हुए कहा, "28 अक्टूबर 2014 को लिखा गया पत्र एक शॉर्टकट लेता है जो योजनाओं को पूरी तरह से संकट में डाल सकता है. एफआरए देश का कानून है. उपरोक्त पत्र कानून का उल्लंघन करता है. शॉर्टकट लेने वाली किसी भी परियोजना को कोई भी ऐसा गांव रोक सकता है जिसकी भूमि को "वन" की श्रेणी में रखा गया है."

मंत्रालय ने इसके बाद एक ज्ञापन दिया, जिसमें स्पष्ट किया गया की ऐसे किसी भी "लीनियर" प्रोजेक्ट के लिए एफआरए के अंतर्गत अपवाद का कोई प्रावधान नहीं है.

2015 में वन मंत्रालय ने वनों के परिसीमन को बदलने के लिए वनवासियों से मंजूरी लेने की आवश्यकता को खत्म करने के लिए नए कानून तैयार किए. उन्होंने ऐसा प्रधानमंत्री कार्यालय की सहमति से किया.

लेकिन जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने दोबारा से प्रतिरोध किया और यह कदम फिर से टल गया.

6 मार्च 2017 को वन मंत्रालय ने सहमति लेने के नियमों में संशोधन किया, लेकिन वन अधिकार अधिनियम के अनुपालन की प्रक्रिया को जैसा का तैसा रहने दिया. लेकिन सरकार के अंदर सुलह और कई इंफ्रास्ट्रक्चर मंत्रालयों की ओर से आने वाला दबाव बरकरार रहा. 2019 में वन मंत्रालय ने फिर से अपनी जिम्मेदारी में ढील देने की कोशिश की. जब उसने राज्यों को लिखा की कागजी स्तर पर पहली मंजूरी के लिए वन अधिकार अधिनियम का अनुपालन जरूरी नहीं. जनजातीय मंत्रालय ने वन मंत्रालय को चेतावनी दी और बताया की यह गैरकानूनी है.

और अब केंद्र सरकार ने नए नियमों को पारित कर दिया है, जिसके द्वारा सरकार ने वन अधिकार अधिनियम के पालन को सुनिश्चित करने की अपनी जिम्मेदारी को तिलांजलि दे दी है.

जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने वन मंत्रालय को वन अधिकार अधिनियम को नजरअंदाज करने के परिणामों की पहले से चेतावनी दी थी: इससे जंगलों को लेकर दी गई स्वीकृतियां न्यायालय की समीक्षा के अंतर्गत आ जाएंगी, साथ ही इससे अन्याय, उत्पीड़न और टकराव भी पैदा हो सकते हैं. यह स्पष्ट नहीं है कि तब से अब तक, अपनी इस कानूनी राय पर जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने भी अपनी आंखें मूंद ली हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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