पैगंबर मोहम्मद पर विवादित टिप्पणी करने वाली भाजपा से निष्कासित नेता नुपुर शर्मा के खिलाफ कई राज्यों में विरोध प्रदर्शन.
दूसरी बात यह कि नुपुर शर्मा अकेली नहीं हैं- वे एक व्यवस्था और विचारधारा की पैदाइश हैं. उन्होंने जो कुछ कहा वह इसलिए नहीं कहा कि वह आवेश में उनके मुंह से निकल गया, उनको उम्मीद थी कि उनके कहे पर उनकी पीठ थपथपाई जाएगी, अपनी पार्टी के भीतर उनको बेहतर जगह मिलेगी. यानी नुपुर शर्मा तो एक कठपुतली भर हैं जिनके धागे असहिष्णुता और गाली-गलौज को प्रोत्साहन देने वाले एक वैचारिक परिवार के हाथ में हैं और जिसके साथ इन दिनों सत्ता और पूंजी का बल भी है.
हमारी असली चुनौती दरअसल इस ताकत से मुकाबला करने की है. यह मुकाबला सड़क पर उतर कर नहीं होगा. क्योंकि इससे सत्ता को भी सड़क पर उतरने का मौका मिलता है. फिर उसके पास लाठी-डंडा और गोली चलाने के तर्क चले आते हैं. कई प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी बीती रात से मुंडी हिलाते कह रहे हैं कि पुलिस को उन लोगों को ‘तोड़ना’ चाहिए जो सड़क पर तोड़फोड़ कर रहे हैं. हमारी न्यायप्रिय पुलिस कैसे यह काम करेगी, यह हम अपने अनुभव से जानते हैं. यूपी के प्रशासन में बुलडोजर विमर्श फिर लौट आया है. आप चाहें तो फिल्म ‘मुगले आजम’ में संगतराश द्वारा कही गई यह बात याद कर सकते हैं कि बादशाहों के ज़ुल्म और इंसाफ में ज्यादा फर्क नहीं होता.
दरअसल यह समझने की जरूरत है कि हमारे सामने एक बड़ी लड़ाई है. जिसे चालू भाषा में ‘नफरती बयान की राजनीति’ कहा जाता है, उसके हमारे संदर्भ में बहुत मार्मिक अर्थ हैं. यह हजार साल से चली आ रही एक परंपरा पर चोट है, उस हिंदुस्तान को बदलने की कोशिश है जो इन बरसों में बना और जिसे 1947 के बाद हमने बनाए रखने का अपने-आप से वादा किया. आज की तारीख में हिंदुस्तान जैसे किसी उन्माद में डूबा हुआ है. सियासत से अदालत तक जैसे इतिहास के उत्खनन में लगी हुई है, गालियों का हिसाब लगाने में उलझी हुई है, पूजास्थलों की प्रामाणिकता जांच रही है. मीडिया 24 घंटे बजबजाती घृणा के तालाब में डूबा हुआ है तो सोशल मीडिया एक खौलता समंदर बना हुआ है. एक तरह की बर्बरता जैसे हमारे सार्वजनिक व्यवहार का हिस्सा हुई जा रही है. हम सब एक-दूसरे पर टूट पड़ने पर आमादा हैं.
शुक्रवार को देश की सड़कों पर जो कुछ हुआ, उससे इस प्रक्रिया को और शह और शक्ति मिलती है, तर्क और समर्थन मिलता है. हम रणनीतिक तौर पर भी परास्त दिखते हैं, इसमें हमारे वैचारिक कवच के कमजोर हिस्से भी दिखते हैं. इन घटनाओं से लगभग उसी तरह निबटा जाना चाहिए जिस तरह दूसरी ऐसी अराजकताओं से निबटा जाता है. लेकिन क्या सरकारें वाकई इस बराबरी के साथ इंसाफ करने को तैयार हैं? बेशक नहीं, लेकिन इसी वजह से एक नागरिक समाज के रूप में, इंसाफ और बराबरी पसंद करने वाली जमात के तौर पर हमारी जिम्मेदारी कुछ और बड़ी हो जाती है.