इस कार्यक्रम की शुरुआत 2019 में हवा में पीएम के स्तर को कम करने के लिए की गई थी. डाटा इशारा करता है कि इसके निर्धारित लक्ष्य बस ख्याली पुलाव भर हैं.
ध्यान देने वाली बात है कि मंत्रालय के द्वारा, बजट के आवंटन को बाद के चरणों में शहरों के प्रदर्शन से जोड़ दिया गया, जबकि शुरुआत में ऐसे किसी भी प्रकार के प्रबंध का जिक्र नहीं किया गया था.
लेकिन न्यूज़लॉन्ड्री ने, पर्यावरण मंत्रालय की अप्रैल की एक रिपोर्ट को जांचा और पाया कि एनसीएपी के अंतर्गत फंड पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं हो रहे हैं. पंजाब, जो सर्दियों में उत्तर भारत की हवा को प्रदूषित करने के लिए बदनाम है, ने एनसीएपी के अंतर्गत अपनी निधि के पांच प्रतिशत 27.5 करोड़ रुपए ही अभी तक खर्च किए हैं. इसके बाद 12.36 करोड़ खर्च कर 11 प्रतिशत निधि उपयोग के साथ असम का नंबर है, तथा उसके बाद 24 करोड़ रुपए खर्च कर निधि के 25 प्रतिशत इस्तेमाल के साथ हरियाणा आता है. नागालैंड, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, गुजरात और आंध्र प्रदेश ही ऐसे पांच राज्य हैं जिन्होंने 2019-21 में शत-प्रतिशत उपयोग किया है. छत्तीसगढ़ के 92 प्रतिशत और बिहार के 90 प्रतिशत उपयोग के अलावा बाकी राज्य 50 से 75 प्रतिशत के बीच झूल रहे हैं.
अपनी हालिया संचालन समिति की रिपोर्ट में पर्यावरण मंत्रालय ने 90 एनसीएपी शहरों के लिए लक्ष्यों को संपादित किया है. शुरुआती प्लान में 20 से 30 प्रतिशत से बदलकर रेंज 20 से 45 प्रतिशत कर दी गई है, और समय सीमा को 2024 से 2025-2026 कर दिया गया है.
लेकिन इस लेख में पहले जिक्र किए गए मंत्रालय के अधिकारी के अनुसार मूल एनसीएपी लक्ष्य बदले नहीं हैं. जब हमने उनसे नई रिपोर्ट में संपादित लक्ष्यों के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, "वह (टेबल) शायद कब्जा ली गई हो."
क्या एनसीएपी के मूल लक्ष्य बदल दिए गए हैं, इसको लेकर हमने अपने सवाल मंत्रालय सचिव लीना नंदन और सीपीसीबी के सदस्य सचिव प्रशांत गार्गव को भेजे, लेकिन उनकी ओर से कोई उत्तर नहीं मिला. उनकी तरफ से कोई भी जवाब आने पर इस रिपोर्ट में जोड़ दिया जाएगा.
इन शहरों में प्रदूषण की जांच
एक ऐसा देश जिसके शहर बुरी तरह प्रदूषित हैं, कहां रहने की आर्थिक और मानवीय कीमत ज्यादा होती है.
सोनपुरी ने एनसीएपी ट्रैकर के जरिए 2017 से 2020 के बीच इन 132 शहरों में से 130 की हवा में पीएम के स्तरों की जांच की. हमने पाया कि 22 शहरों में हवा में प्रदूषण के करों में वृद्धि हुई थी और 27 शहरों में 10 प्रतिशत तक की कमी भी आई थी.
हालांकि यहां यह याद रखना जरूरी है कि 2020 में कोविड की वजह से लगाए गए लॉकडाउन के कारण प्रदूषण में भारी कमी आई थी. अर्बन एमिशंस नाम के एक शोध ग्रुप के अनुसार लॉकडाउन के दौरान वायु प्रदूषण का स्तर 20 से 60 प्रतिशत तक गिर गया था.
क्लाइमेट ट्रेंड्स नाम की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के संवाद पर काम करने वाली एक संस्था की निदेशक आर्थिक हौसला कहती हैं, "प्रदूषण में कमी न्यूनतम है. आखिरी नतीजे पर हम अभी तक नहीं पहुंचे हैं. ऐसा लगे कि गिलास आधा भरा है लेकिन हम स्वच्छ वायु के लक्ष्य से अभी बहुत दूर हैं. जोकि एनसीएपी का 2024 तक हासिल करने का निर्धारित लक्ष्य है, जिसमें दो ही वर्ष बचे हैं. अगर परिस्थिति ऐसी ही बनी रहेगी तो प्रदूषण के स्तर पांच से 10 प्रतिशत तक बढ़ सकते हैं."
त्रिपाठी का कहना है कि इतनी अड़चनों के बावजूद भी एनसीएपी में जमीनी काम किया है, "वैश्विक स्तर पर लोग प्रदूषण से 20-30 सालों में निपटे हैं. एनसीएपी ने एक अच्छे ढांचे को तैयार किया है. अगर राज्य इसका पालन करते हैं तो नतीजे अच्छे आएंगे."
हालांकि दिल्ली के एक थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में हेलो भार्गव कृष्णा का कहना है कि जब तक अध्ययन पूरे होते हैं शहर भवन निर्माण से उड़ने वाली धूल और कचरे को जलाने जैसे आम प्रदूषण के स्रोतों पर ध्यान दे सकते हैं.