आरोप है कि सरकार उन्हें तेंदूपत्ता की कम कीमत देती है, जबकि खुले बाजार में इसकी अधिक कीमत मिलती है.
सरकारी तर्क
ऐसा नहीं है कि तेंदूपत्ता को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग पहली बार उठी है. समय-समय पर तेंदूपत्ता संग्राहकों ने तेंदूपत्ता की कम कीमत का हवाला देते हुए इसकी कीमत को लेकर पहले भी सवाल उठाए हैं. छत्तीसगढ़ के बस्तर जैसे इलाके में तो माओवादियों ने सबसे पहले तेंदूपत्ता की कीमत बढ़ाने की मांग के साथ खड़े हो कर ही अपनी जगह बनाई. 1996 में पंचायत अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार अधिनियम पारित होने के बाद एक बार फिर से तेंदूपत्ता को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग उठने लगी. वन अधिकार कानून लागू होने के बाद भी इस मुद्दे पर छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सरकारी एकाधिकार को लेकर सवाल उठे. हालांकि इन मांगों का कोई खास असर नहीं हुआ. लेकिन अब कांकेर और राजनांदगांव जिले में खुद तेंदूपत्ता बेचने के गांवों के फैसले ने सरकार की चिंता बढ़ा दी है.
छत्तीसगढ़ राज्य लघु वनोपज सहकारी संघ के प्रबंध निदेशक संजय शुक्ला का कहना है कि सरकार के लिए तेंदूपत्ता संग्रहित करने की बजाए सीधे व्यापारियों को बेचने के फैसले के पीछे कुछ व्यापारी ही शामिल हैं, जो औने-पौने भाव में तेंदूपत्ता की खरीदी करना चाहते हैं. इसलिए वे ग्रामीणों को बरगला रहे हैं. संजय शुक्ला का कहना है कि तेंदूपत्ता एकत्र करने वालों को चार हजार रुपए प्रति मानक बोरा तो मिलता ही है, बिक्री से प्राप्त लाभांश भी उन्हें बांटा जाता है. इसके अलावा उनके लिए बीमा योजना और दूसरी सुविधाएं भी वन विभाग सुनिश्चित करता है. अगर ग्रामीण सीधे तेंदूपत्ता बेचें तो इन सुविधाओं का लाभ उन्हें नहीं मिल पाएगा.
संजय शुक्ला ने कहा, “राज्य में पंचायत अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार अधिनियम का कानून अभी बना नहीं है. वन अधिकार कानून ग्रामीणों को सहकारी समिति बना कर इसकी बिक्री की बात कहता है. जबकि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सहकारी समिति के माध्यम से ही खरीदी होती है. ऐसे में सरकार की सहमति के बिना न तो ग्रामीण इसकी बिक्री कर सकते हैं और न ही व्यापारी इसका परिवहन कर सकते हैं. ऐसा करने पर हमें मजबूरन कानूनी कार्रवाई करनी पड़ेगी.”
लेकिन छत्तीसगढ़ वनाधिकार मंच के विजेंद्र अजनबी इन तर्कों से सहमत नहीं हैं. वे बताते हैं कि पड़ोसी प्रदेश महाराष्ट्र ने पिछले सात वर्षों से वनाधिकार प्राप्त ग्रामसभाओं को तेंदूपत्ता तोड़ने और स्वयं व्यापार करने की इजाजत दे रखी है. इसमें यदि कोई अड़चन होती है तो आदिवासी विकास विभाग उन्हें मदद भी करता है. महाराष्ट्र में तहसील व जिला स्तर की ग्रामसभाओं का फेडरेशन तेंदू पत्ते व्यापार को अंजाम दे रहा है.
विजेंद्र का आरोप है कि लघु वनोपज के व्यापार पर अपना एकाधिकार बनाए रख कर वन-विभाग अपना रसूख बनाए रखना चाहता है, ताकि विभाग की धमक लोगों पर बनी रहे. जबकि, स्वयं केन्द्रीय मंत्रालय में आदिवासी कार्य देख रहे, प्रदेश में वन विभाग के प्रधान सचिव ने राज्यों को लिखे अपने पत्र में वनोपज पर एकाधिकार खत्म करने की बात कही थी.
विजेंद्र कहते हैं, “प्रदेश के वन विभाग द्वारा ग्रामीणों को स्वयं तेंदूपत्ता विक्रय करने के निर्णय के विरुद्ध धमकी दिया जाना खेदजनक एवं वनाधिकार कानून का उल्लंघन है. इसके अलावा, यह हरकत अनुसूचित जनजाति एवं अनुसूचित जाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत दंडनीय भी हो सकता है. इस अधिनियम की संशोधित (2016) धारा 3(1) छ ( 3(1) G) के तहत वनाधिकार का लाभ लेने से रोकने को अत्याचार माना गया है. यह माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्देश का भी उल्लंघन है.”
क्या है सुप्रीम कोर्ट का निर्देश
2013 में सुप्रीम कोर्ट के बहुचर्चित नियामगिरी फ़ैसले में इस मुद्दे पर विस्तार से निर्देश दिए गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने लघु वनोपज को लेकर जारी दिशा निर्देश में साफ कहा कि राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वन अधिकार अधिनियम की धारा 3 (1) ग के अंतर्गत लघु वनोपज से जुड़े वन अधिकारों को धारा 2 (झ) में परिभाषित सभी लघु वनोपज के संबंध में सभी वनक्षेत्रों में मान्य कर दिया गया है और राज्य की नीतियों को कानून के प्रावधान के अनुसार संशोधित कर दिया गया है. अधिनियम की धारा 2 (झ) में लघु वनोजप के अंतर्गत पादप मूल के सभी गैर-ईमारती वनोपज हैं, जिनमें बांध, झाड़, झंखाड़, ठूंठ, बेंत, टसर, कोया, शहद, मोम, लाख, तेंदू या केंदू पत्ता, औषधीय पौधे और जड़ी-बूटियों, मूल, कंद और इसी प्रकार के उत्पाद शामिल हैं.
अदालत ने अपने फैसले में साफ कहा कि कई राज्यों में लघु वनोपज, विशेष कर तेंदूपत्ता जैसे ऊंचे दर के वनोपज व्यापार में वन निगमों का एकाधिकार, इस कानून की भावना के विरुद्ध है, अतः उसे अब समाप्त किया जाना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वनाधिकार धारक या उनकी सहकारी समिति/फेडरेशन को ऐसे लघु वनोपज किसी को भी बेचने के लिए पूरी छूट दी जानी चाहिए. आजीविका के लिए, स्थानीय यातायात के समुचित साधन का उपयोग करते हुए जंगल के अंदर और बाहर, व्यक्तिगत या सामूहिक प्रसंस्करण, मूल्य आवर्धन और विपणन करने देना चाहिए. राज्य सरकारों को सभी लघु वनोपज की आवाजाही को राज्य सरकार के परिवहन नियमों के दायरे से बाहर करना चाहिए और इस उद्देश्य के लिए, परिवहन नियमों में उचित संशोधन किया जाना चाहिए. यहां तक कि ग्राम सभा से भी परिवहम अनुज्ञा की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए. व्यक्तिगत रुप से या अधिकार धारकों की सहकारी समीतियों/संघों द्वारा सामूहिक रूप से एकत्र किए गए लघु वनोपज के प्रसंस्करण, मूल्य आवर्धन पर किसी भी तरह का शुल्क/भार/रॉयल्टी इस अधिनियम की शक्तियों से परे होगा.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि राज्य सरकारों को जंगल के भीतर निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक रहवासियों को न केवल लघु वनोपज के निर्बाध संपूर्ण अधिकारों को हस्तांतरित करने में, बल्कि उनके द्वारा एकत्र और संसाधित लघु वनोपज के लिए लाभकारी मूल्य दिलाने की सुविधा भी उपलब्ध करानी चाहिए.
सरकार के प्रवक्ता और राज्य के वन मंत्री मोहम्मद अकबर का कहना है कि सरकार कानूनी निर्देशों का पालन करने के लिए प्रतिबद्ध है. मोहम्मद अकबर ने कहा, “मेरी जानकारी में नहीं है कि गांवों में लोग खुद से तेंदूपत्ता बेचना चाहते हैं. अगर ऐसा कुछ है तो सरकार आदिवासियों के हित का ध्यान रख कर ही कोई फैसला लेगी.”
लेकिन डोटोमेटा के सरपंच जलकू नेताम इसे भुलावे की बात कहते हैं. जलकू नेताम कहते हैं, “सरकार हमसे चार हजार रुपए प्रति बोरा के हिसाब से तेंदूपत्ता का भुगतान करती है, जबकि हमने व्यापारी से बात की है और वे तेंदूपत्ता के लिए 11 हजार रुपए प्रति बोरा का भुगतान करेंगे. अब कोई हमे समझाए कि हमारा हित किसमें है!”
तेंदूपत्ता संग्राहक और सरकार के बीच उपजा विवाद कहां तक पहुंचेगा, यह कह पाना तो अभी मुश्किल है लेकिन अभी दोनों पक्ष इस तेंदू पत्ता के नियम-कानून के पेंच के मामले में ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ वाली मुद्रा में हैं. ऐसे में लगता नहीं है कि इसका कोई हल जल्दी निकल पाएगा.
(साभार- MONGABAY हिंदी)