30 मई को छपे हिंदी के अखबारों के संपादकीय पन्नों को देखिए और सोचिए कि हिंदी पत्रकारिता समाप्त हो गई है या उसकी सेहत खराब हो गई है.
हमारे अखबार अपने इस पत्रकारीय ‘नैतिक क्षरण’ की भरपाई भाषाई गौरव (या कहें औपनिवेशिक कुंठा) से करते हैं. बुकर पुरस्कार को आए तीन दिन हो चुके थे लेकिन 30 और 31 मई को हिंदी अखबारों के संपादकीय पन्नों पर सरकार के आठ साल के समानांतर हिंदी का जश्न भी मनाया जा रहा था. एक साथ दो-दो जश्न! हिंदुस्तान की हिंदू सरकार के साथ हिंदी का जश्न! जो लोग बुकर पुरस्कार पर नादान और निर्दोष भाव में खुश हैं, उन्हें समझना चाहिए कि ‘हिंदी का यह गौरव’ समूचे पैकेज के साथ आया है जहां हिंदी पत्रकारों को ठेंगे पर रखने वाली सरकार का भी उसी शिद्दत के साथ उत्सव मनाया जाता है. दोनों उत्सवों में कोई विरोध नहीं है. हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान- भाषा की राजनीति यहीं शुरू होती है.
आइए, इस राजनीति की एक प्रच्छन्न लेकिन अभिजात्य झलक देखें अनुराग वत्स के लिखे लेख में, जिसे दैनिक भास्कर ने 31 मई को छापा है. यह लेख प्रथम दृष्टया बहुत तार्किक और प्रगतिशील जान पड़ता है. हिंदी को बुकर का इंतजार इतना लंबा क्यों करना पड़ा, उस पर अनुराग की तकरीर के दो हिस्से हैं: पहला, कि हिंदी को अच्छे अनुवादक नहीं मिलते. यह बात सच है. दूसरे कारण में समस्या है. वे लिखते हैं कि ‘यह साधु मान्यता हिंदी पट्टी की घुट्टी में है कि आप बस लिखिए, बाकी का काम आपका नहीं है’. इसके ठीक उलट एक दिन पहले किंशुक (हिंदुस्तान में)- यह पुरानी उक्ति याद दिलाते हुए कि पत्रकारिता ‘जल्दी में लिखा गया साहित्य’ है- लिखते हैं, ‘पत्रकारिता अपने प्रारंभिक दौर से ही “मिशन” थी और आज भी “मिशन” है.’ पत्रकारिता या साहित्य अगर मिशन है तो लेखक का काम मिशनरी लेखन करना है.
अनुराग इस बात से सहमत नहीं हैं. वे इसे ‘साधु मान्यता’ करार देंगे. साधु मान्यता से विचलन स्वाभाविक रूप से उन मूल्यों से विचलन हो जाएगा जो साधु के गुण होते हैं. फिर हिंदी को हर साल बुकर मिल जाए, पुलित्जर मिल जाए, लेकिन वह उपलब्धि निजी ही होगी, सामूहिक नहीं क्योंकि भुन्नासी ताले को खोलने वाली ‘सत्य’, ‘साहस’ और ‘नैतिकता’ की कुंजी आप अटलांटिक सागर में फेंक आए होंगे. अनुराग जो कह रहे हैं, दरअसल हुआ वही है. जश्न उसी का मन रहा है.
गीतांजलिश्री को देखिए, महुआ माजी को देखिए- यहां आपको एक लेखक के ‘सिर्फ लेखक न रह जाने’ का जश्न दिखेगा! नीचे उपेंद्र राय को देखिए- यहां एक पत्रकार के ‘सिर्फ पत्रकार न रह जाने’ का जश्न दिखाई देगा.
इस जश्न के केंद्र में साहित्य या पत्रकारिता नहीं, भाषा है. उसके अलावा ‘कास्ट’ और ‘क्लास’ भी है, जो तय करता है कि कौन सा जश्न क्षैतिज रूप से कितना व्यापक होगा. मसलन, उपेंद्र राय के जश्न की खबर आपको केवल उनके अखबार राष्ट्रीय सहारा और गाजीपुर के कुछ लोगों के पास मिलेगी लेकिन गीतांजलि श्री की खबर वैश्विक है. महुआ माजी के जश्न की खबर प्रांतीय है.
इन सभी उत्सवों में व्यक्ति का मूल ‘काम’ केंद्र में नहीं है, उनके काम की भाषा केंद्र में है. इसीलिए जो लोग गौरव मना रहे हैं और जो आलोचना कर रहे हैं- दोनों ही भाषा की टेक लगाए हुए हैं, ‘कंटेंट’ की नहीं. इस भाषाई गौरव (पढ़ें कुंठा) ने कंटेंट पर परदा डालने का काम किया है. मसलन, एक लेखिका सह राज्यसभा सांसद से कोई नहीं पूछेगा कि ‘मरंग घोड़ा नीलकंठ हुआ’ का कुछ साल पहले उठा ‘चोरी’ विवाद क्या और क्यों था तथा लेखिका की प्रतिक्रिया कितनी नैतिक थी. अब कम से कम सहारा समूह में किसी को याद करने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि उपेंद्र राय नाम का पत्रकार जहां से शुरू कर के आज जहां पहुंचा है उस सफरनामे में प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, जेल, बेल और हवाला जैसे शब्द कहां और क्यों गुम हो गए.
कुछ बातों पर ध्यान दीजिएगा: उपेंद्र राय ने ‘हिंदी के प्रति गंभीरता और प्रेम’ के संदर्भ में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का नाम लिया, गीतांजलि श्री ने हिंदी के पहले उपन्यास को बुकर मिलने के पीछे ‘नक्षत्रों का ऐसा संयोग बताया जिसकी आभा से वे चमक उठी हैं’, महुआ माजी को राज्यसभा टिकट से पहले इंटरनेशनल कथा यूके सम्मान और विश्व हिंदी सेवा सम्मान मिल चुका है और उन्होंने जोर देकर कहा है कि ‘मैं 1932 से खतियानधारी हूं’. (पाठकों को जानना चाहिए कि 1932 के खतियान को लेकर झारखंड में पिछले कुछ महीनों से एक विभाजनकारी भाषाई आंदोलन चल रहा है.)
एक और महत्वपूर्ण घटना: पत्रकारिता दिवस के अगले दिन हिंदी के यशस्वी पत्रकार रहे शेषनारायण सिंह की पहली बरसी पर एक व्याख्यान श्रृंखला का आरंभ हुआ. पहला व्याख्यान प्रभात खबर के संपादक रहे और फिलहाल राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह ने दिया. शेष नारायण सिंह की दुनिया बहुत बड़ी थी. उनका भौगोलिक वितान अवध से जेएनयू तक और बौद्धिक वितान इतिहास से पत्रकारिता तक फैला था. इस व्यापक दायरे में पहला आचमन करने वाले बहुत से वक्ता दिल्ली में ही उपलब्ध हो सकते थे. इस जगह हरिवंश का होना क्या ‘नक्षत्रों का संयोग’ मान लिया जाए?
ये सारी बातें अलग-अलग नहीं हैं. गौर से देखिए, सब आपस में जुड़ी हैं. पहचान की राजनीति सबसे पहले और सबसे सरल तरीके से भाषा से शुरू होती है और इसका अंत धरती के दक्खिन तक उसको बांटने में होता है. हमारे अखबार जब भाषाई गौरव और सरकारी गौरव को एक साथ मना रहे होते हैं, संपादकीय पन्ने जब केंद्रीय मंत्रियों के लिखे से पटे होते हैं, हमारे पत्रकार जब भाषाई वर्चस्व का रोना रो रहे होते हैं, और पत्रकारिता पर ज्ञान जब राज्यसभा का सभापति दे रहा होता है, इसी बीच एक और लेखक राज्यसभा जाने की तैयारी कर रहा होता है- तो यह ‘नक्षत्रों का संयोग’ नहीं होता बल्कि ‘हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान’ का संयोग होता है, जिसका अंतिम सिरा नागपुर में पाया जाता है.
इसी बात को जब राहुल गांधी कैम्ब्रिज में थोड़ा ढीले ढंग से बोल आते हैं तो विभाजनकारी राजनीति को उघड़ने से बचाने के लिए चारों ओर से राष्ट्रीय एकता की पताकाएं फहराई जाने लगती हैं- जैसे बीते कोरोनाकाल में आंधी आने पर इलाहाबाद की रेत में दबी लाशों को उघड़ जाने से रोकने के लिए उन पर आनन-फानन में चुनरी तानी जा रही थी!
हिंदी पत्रकारिता दिवस फिर आएगा. फिर यही बातें होंगी. अपने-अपने गौरव होंगे, अपने-अपने दुख हैं. राष्ट्रीय सहारा ने अपना निजी गौरव मनाया, तो नवभारत टाइम्स ने अपना निजी दुख. टाइम्स समूह के सांध्य दैनिक ‘साध्य टाइम्स’ के मशहूर संपादक रहे बुजुर्ग सत सोनी जी बीते हफ्ते गुजर गए. दिल्ली में जिसने भी पत्रकारिता की है, वह सोनीजी को जानता है. इस दुख में कायदे से सबको शामिल होना था क्योंकि यहां ‘नैतिकता, सत्य और साहस’ तीनों अक्षुण्ण था. यह दुख एनबीटी में राजेश मित्तल का निजी बनकर रह गया. 28 मई के हिंदी अखबारों में कहीं और मुझे सोनी जी के निधन की खबर नहीं दिखी. किसी को दिखे तो सूचित करेगा. कौन थे सोनी जी, जानने के लिए राजेश मित्तल की यह छोटी सी श्रद्धांजलि पढ़ें (एनबीटी, 28 मई 2022).