तिलाड़ी विद्रोह की 92वीं बरसी: जंगलों को बचाने के लिए आज भी जारी हैं वैसे ही आंदोलन

उत्तराखंड में बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ ‘टिहरी या केदार घाटी बचाओ’ आंदोलन हों या छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में चल रहा प्रतिरोध, ये तिलाड़ी और उसके बाद हुए आंदोलनों की ही याद दिलाते हैं.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
Date:
Article image

वर्तमान का प्रतिबिम्ब

तिलाड़ी के बाद आंदोलनों का एक सिलसिला उत्तराखंड में शुरू हो गया. विशेष रूप से 1942 में सल्ट में हुई क्रांति जिसे ‘कुमाऊं की बारदोली’ भी कहा जाता है. शेखर पाठक कहते हैं कि तिलाड़ी विद्रोह के समय भले ही पर्यावरण संरक्षण की वर्तमान शब्दावली इस्तेमाल न हुई हो लेकिन लोगों को इस बात का पूरा भान था कि जंगल के बने रहने का रिश्ता उनके पानी और कृषि के साथ है क्योंकि यमुना और टोंस घाटी खेती के लिए काफी उपजाऊ थी और आज भी वहां बहुत समृद्ध उपज होती है.

पाठक बताते हैं, “कृषि और पानी के अलावा जंगल का रिश्ता सीधे तौर पर लोगों के पशुचारण से रहा और आज भी है. फिर चाहे वह उनके भेड़-बकरियां हो या गाय-भैंस. इसके अलावा लोगों को कुटीर उद्योग का सामान और खेती के लिए प्राकृतिक खाद भी जंगल से ही मिलती रही. असल बात यही है कि लोगों के जीवन यापन के लिए जहां से साधन मिलते हैं वही वास्तविक इकोलॉजी है.”

छत्तीसगढ़ के सरगुजा ज़िले के साल्ही गांव से लगे हसदेव अरण्य के जंगल में आदिवासी पेड़ कटने का विरोध कर रहे हैं। पिछले कई दिनों से यहां प्रदर्शन हो रहे हैं.

आज देश में हर ओर विकास के नाम पर समावेशी जीवन शैली पर हमले हो रहे हैं और आदिवासियों और स्थानीय लोगों को अपनी जमीन और जंगलों से बेदखल किया जा रहा है. जानकार कहते हैं कि उत्तराखंड में बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ ‘टिहरी या केदार घाटी बचाओ’ आंदोलन हों या छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में चल रहा प्रतिरोध, ये तिलाड़ी और उसके बाद हुए आंदोलनों की ही याद दिलाते हैं.

पाठक कहते हैं, “जिस तरह हसदेव जैसे जनजातीय क्षेत्रों में लोगों के लिए जंगल पवित्र हैं, वही हाल तब यहां उत्तराखंड में भी था. उत्तरकाशी में (फ्रेडरिक) विल्सन जब जंगलों को काट रहा था तो भी लोगों का उससे विरोध रहा लेकिन तब राजशाही के दमन में उनकी बात सुनने वाला कोई नहीं था. 1920 के दशक में लोग जंगलों के अधिकारों से वंचित किए जाने पर भले ही विरोध स्वरूप चीड़ के जंगलों में आग लगाते थे लेकिन वही लोग बांज के चौड़ी पत्ती वाले जंगलों को आग से बचाते भी थे. यह लोगों का जंगलों के साथ अटूट रिश्ता बताता है.”

सामुदायिक भागेदारी से हल

देश में हर जगह जंगलों को बचाने के लिए उनके साथ लोगों की सहजीविता सुनिश्चित करना जरूरी है. साल 2006 में बना वन अधिकार कानून इसी दिशा में एक कदम था लेकिन अब भी कई जगह आदिवासियों को उनके अधिकार नहीं मिले हैं बल्कि उन्हें जंगलों से हटाया जा रहा है.

उत्तराखंड के पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक (पीसीसीएफ) और रिटायर्ड आईएफएस अधिकारी आरबीएस रावत कहते हैं हिमालय के जंगल अपनी जैव विविधता के कारण अनमोल हैं. यहां ऊपरी इलाकों में तेंदुए और बाघ हैं तो तराई के क्षेत्र में हाथियों का बसेरा है. यहां कस्तूरी मृग भी हैं और ऑर्किड जैसे दुर्लभ पादप प्रजातियां भी हैं.

रावत के मुताबिक, “तिलाड़ी विद्रोह सामुदायिक भागेदारी की मांग का ही प्रतिबिम्ब है. आज भी सामुदायिक भागेदारी के बिना दुर्लभ हिमालयी वनों को बचाना मुमकिन नहीं है. वन संरक्षण के लिए हम संयुक्त वन प्रबंधन समितियों और वन पंचायतों का सहारा ले सकते हैं. अपने कार्यकाल के दौरान मैंने उत्तराखंड में कई जगह जंगलों को बचाने के लिए जन-भागेदारी की रणनीति अपनाई और सफल रही. देश में बाकी जगह जहां सफल वन संरक्षण हो रहा है वहां सामुदायिक पहल अहम है.”

(साभार- MONGABAY हिंदी)

Also see
article imageहसदेव अरण्य में काटे जा सकते हैं साढ़े चार लाख पेड़, बचाने के लिए आदिवासियों ने जंगल में डाला डेरा
article imageगायब हो गए 2.60 करोड़ क्षेत्र में बसे जंगल, रिपोर्ट में खुलासा
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like