केवल पत्रकारिता करके गुजारा नहीं चलता. ग्रामीण इलाकों में पत्रकारों के पास संस्थागत समर्थन न के बराबर है. उनका जीवन यापन अखबारों के लिए 'विज्ञापन खोजने' से लेकर कमीशन पर निर्भर है.
कृष्णा ने न्यूज़लॉन्ड्री बताया, "ऑपरेशन वाराणसी के एक निजी अस्पताल में हुआ. उन्होंने उनका पूरा जबड़ा काट कर निकाल दिया लेकिन प्लास्टिक सर्जरी का घाव ठीक नहीं हुआ. इसलिए एक और ऑपरेशन किया गया. कभी उन्होंने उनके पैर से त्वचा लेकर ग्राफ्ट किया कभी छाती से. लेकिन उनकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ."
इस दौरान पवन को लगातार खांसी भी आ रही थी. "एक सीटी स्कैन के बाद उन्हें पता चला कि कैंसर उनके फेफड़ों में भी था. इसके बाद उन्होंने पूरी तरह से आशा खो दी," कृष्णा कहते हैं.
कृष्णा आगे बताते हैं, "आखिरी कुछ दिनों में मैं उनकी एक झलक भर देख पाता था, जब मैं दवा देने जाता था, क्योंकि वह वेंटिलेटर पर थे और हमें अंदर जाने की अनुमति नहीं थी. हमने आखिरी के तीन दिन में ही लगभग दो लाख रुपए खर्च किए... और हम उन्हें बचा भी नहीं पाए."
एक एफआईआर, दबाव और मोहभंग
उनके दोस्तों, परिवार के सदस्यों और पूर्व सहयोगियों ने पवन की आकांक्षाओं की जो तस्वीर बनाई, वह किसी भी बड़े शहर के पत्रकार से मेल खाती है. वह लोगों की समस्याओं के बारे में, भ्रष्टाचार से ग्रस्त समाज के बारे में लिखना चाहते थे. पवन का नेटवर्क बहुत मजबूत था और उनके पास खबरों को पहचानने की नजर थी. वह कहानियों की खोज करते थे और अंत तक उन्हें फॉलो-अप करते थे.
विजय विनीत ने बताया, "पवन गांव के रिपोर्टर थे, लेकिन उन्हें इसका इतना जुनून था कि वह किसी भी हद तक जा सकते थे."
2019 में जब पवन जनसंदेश टाइम्स के लिए काम कर रहे थे, तब विजय उनके संपादक थे. विजय के मातहत ही पवन ने रिपोर्ट की थी कि कैसे मिर्जापुर के एक सरकारी स्कूल में छात्रों को मिड-डे मिल के रूप में रोटी-नमक दिया जा रहा था.
स्थानीय प्रशासन ने तब पवन के खिलाफ 'साजिश' का आरोप लगाते हुए एक एफआईआर दर्ज की थी. तब तक जिला अदालत ने पवन की खबर में किए गए दावों की जांच-पड़ताल करके उन्हें सही पाया और दो लोगों को निलंबित कर दिया. स्थानीय और राष्ट्रीय दोनों तरह की पत्रकारिता बिरादरी ने भी बयानों और विरोधों के माध्यम से पवन को समर्थन दिया और यूपी पुलिस ने आखिरकार तीन महीने बाद उनको सभी आरोपों से मुक्त कर दिया.
"वह निडर थे, वह मेरे स्टार रिपोर्टर थे," विजय ने कहा.
लेकिन उस खबर और उसपर हुई एफआईआर ने पवन पर बड़ा असर डाला. चार महीने बाद आरोपों से मुक्त होने के बावजूद पवन राजनीतिक दबाव और तनाव में संघर्ष करते रहे. उन्होंने अपनी मोबाइल एक्सेसरीज की दुकान भी बंद कर दी.
मिर्जापुर में एनडीटीवी के रिपोर्टर इंद्रेश पांडे बताते हैं कि इस घटना के बाद पवन का जीवन बदल गया और वह सावधान रहने लगे.
उन्होंने कहा, "प्रशासन की नजर उन पर थी. लोग उनसे कहने लगे, 'इस खबर को कवर करने मत आना क्योंकि जब आप होते हैं तो शीर्ष प्रशासन नजर रखता है.’ उन्हें पता होता था कि कौन सी खबर छोटी होगी, कौन सी बड़ी होगी. छोटे शहरों में ऐसे पत्रकार मिलना मुश्किल है.”
लेकिन पवन की प्रशंसा में कही गयी यह बात बिल्कुल सच नहीं है. छोटे शहरों का भारत पवन जैसे पत्रकारों से भरा हुआ है, जो अक्सर हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं. वहीं शहर के पत्रकार, अपने संसाधनों का उपयोग कर सुर्खियां बटोरते हैं.
वाराणसी के स्वतंत्र पत्रकार शिव दास कहते हैं, "लोग अभी भी ग्रामीण पत्रकारों को पत्रकार नहीं मानते हैं. हमें ऐसा महसूस कराया जाता है कि हम इसे एक शौक के रूप में कर रहे हैं. ऐसा तब है जब हम समाचार के प्राथमिक स्रोत हैं. दिल्ली जैसे शहरों से लोग उन कहानियों को कवर करने आते हैं जो पहले ग्रामीण पत्रकारों द्वारा रिपोर्ट की जाती हैं. लेकिन उनके लिए इन पत्रकारों का कोई मूल्य नहीं है. कई बार उन्हें बाइलाइन भी नहीं दी जाती. जब बड़े पत्रकार दिल्ली में होते हैं तो ग्रामीण पत्रकारों को एक कहानी के लिए 500 रुपए देते हैं. लेकिन जब वह खुद आते हैं उसी कहानी पर 20,000 रुपए खर्च करते हैं."
स्वास्थ्य बीमा कराना तो दूर की बात है पवन की कमाई बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए भी पर्याप्त नहीं थी. उनके पास कोई बचत नहीं थी क्योंकि सारा पैसा रोजमर्रा के खर्चों में चला जाता था. पवन के कैंसर का पता लगने के बाद शिव और अन्य ने उन्हें अस्पताल खोजने और पैसे जुटाने में मदद करने की कोशिश की.
शिव बताते हैं, "उनके पास इतने पैसे या संपर्क नहीं थे कि दिल्ली के किसी अच्छे अस्पताल में भर्ती हों, जहां उन्हें बेहतर इलाज मिल सके."
हालांकि पवन ने कोशिश की थी. शिव ने बताया कि एक बार जब किसी ने मदद की पेशकश की थी तो पवन दिल्ली गए थे. शिव नहीं जानते कि ये पेशकश किसने की थी, लेकिन इतना जानते हैं उस यात्रा से पवन को कुछ नहीं मिला, उल्टे उन्हीं के 30,000 रुपए खर्च हो गए.
शिव बताते हैं कि उस यात्रा के बाद पवन इतने मायूस हो गए कि जब उन्हें वहां के एक अस्पताल में भर्ती होने में मदद करने के लिए कनेक्शन मिले, तो भी उन्होंने मना कर दिया. "अगर समय पर अच्छे अस्पताल में उनका इलाज होता तो उन्हें बचाया जा सकता था."
पत्रकारिता के विपरीत एक विज्ञापन मॉडल
मिर्जापुर शहर में जिलाधिकारी के परिसर के बिलकुल बीच में एक ऊंचा पेड़ है.
बिजेंद्र दुबे हंसते हुए उसकी ओर इशारा करते हैं, "यह हमारा प्रेस क्लब है"।
इसी पेड़ के नीचे बृजेंद्र और अन्य पत्रकार, रिपोर्टर और स्ट्रिंगर्स हर सुबह इकट्ठा होते हैं और उस दिन की खबरों पर चर्चा करते हैं. उस दिन सुबह सबका ध्यान शहर के एक अस्पताल में बलात्कार के मामले पर था. पुलिस के बयानों और मामले में असंगतियों पर चर्चा से लेकर ताजा जानकारी के साथ संपादकों को फोन करने तक की बातचीत हुई थी.
पवन भी कभी-कभी इस दैनिक सभा में शामिल होते थे. 'प्रेस क्लब' के पत्रकारों के लिए उनकी मृत्यु एक व्यक्तिगत पराजय भी है. उनमें से कई ने पैसे जुटाने में पवन की मदद की थी और उनकी स्थिति के बारे में दूसरों को भी बताया था.
बृजेंद्र कहते हैं, "उन्होंने मुझे मैसेज किया था कि वह बहुत परेशान हैं, क्योंकि उनके पास दवा खरीदने के लिए पैसे नहीं थे. अगर वह पहले हमारे पास आते तो हम और पैसे की व्यवस्था कर सकते थे. तब शायद वह अब भी हमारे बीच होते.
बृजेंद्र ने कहा कि पवन को 'अच्छी कहानियां कवर करने का बहुत शौक था', लेकिन एक स्थिर आय की कमी एक बड़ी बाधा थी.
उन्होंने कहा, "जब भी हम बात करते, वह मुझसे कहते कि वह एक बड़े मंच के लिए काम करना चाहते हैं क्योंकि वह इतने पैसों में गुज़ारा नहीं कर सकते. जब वह बीमार थे और बिस्तर पर पड़े हुए थे, तो उन्होंने कहा कि उनका यह सपना टूट गया है."
वे कहते हैं, "यह सिर्फ पवन का ही नहीं बल्कि यहां के सभी पत्रकारों का हाल है."
हर गैर-महानगरी पत्रकार की तरह, मिर्जापुर में भी पत्रकारों पर खबर के साथ-साथ प्रकाशनों के लिए विज्ञापन लाने का दोहरा दबाव रहता है.
न्यूज़लॉन्ड्री ने पहले भी रिपोर्ट किया है कि कैसे विज्ञापन राजस्व लाने के लिए स्ट्रिंगरों को नियमित रूप से लक्ष्य दिया जाता है, जिसके लिए उन्हें कमीशन मिलता है. यह उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा होता है क्योंकि, उदाहरण के लिए, मिर्जापुर में फ्रीलांसरों को एक रिपोर्ट के लिए राष्ट्रीय संस्थान केवल 300 से 1,000 रुपए तक देते हैं. इतना ही नहीं, अक्सर यह पैसा उनके पास महीनों बाद पहुंचता है. वहीं स्थानीय समाचार संगठन प्रति रिपोर्ट केवल 200-500 रुपये ही देते हैं.
इसलिए वास्तविक आय विज्ञापन राजस्व में निहित है और विज्ञापनों के प्रबंधन का यह मॉडल, अक्सर इन पत्रकारों को उन कहानियों या मुद्दों पर रिपोर्ट नहीं करने के लिए प्रेरित करता है जो विज्ञापनों के प्रवाह को प्रभावित कर सकते हैं.
रिपोर्टर मुकेश पांडे कहते हैं, "यहां पत्रकारों को विज्ञापन लाने के लिए कमीशन मिलता है - कुछ जगहों पर 20 प्रतिशत, अन्य में 30 प्रतिशत. यदि आप वास्तविक पत्रकारिता करते हैं तो आपको सरकारों या निजी संस्थाओं से विज्ञापन नहीं मिलेंगे, जो सोचेंगे कि आप केवल नकारात्मक समाचार चलाते हैं. रिपोर्टर अब समझ गए हैं कि अगर आप रिपोर्ट करते हैं और जमीनी हकीकत दिखाते हैं, तो आपको विज्ञापन नहीं मिलेंगे."
उन्होंने कहा, "बहुत सारे लोग इस पेशे को छोड़ रहे हैं, क्योंकि बिना पैसे के आप कितने दिन गुज़ारा कर सकते हैं?”
समाचार प्लस के पत्रकार स्वप्नेश पटेल भी इससे सहमत दिखे.
उन्होंने कहा, "जब आप इस क्षेत्र में काम करना शुरू करते हैं, तो आपको लगता है कि आप निष्पक्ष पत्रकारिता करना चाहते हैं, समाज सेवा करना चाहते हैं, और लोगों की समस्याओं को सबसे आगे लाना चाहते हैं. लेकिन जब आप धरातल पर जाते हैं तो यह उम्मीद टूट जाती है. यदि आप किसी के खिलाफ लिखते हैं तो वह आपसे दूरी बना लेते हैं और आपको विज्ञापन नहीं देते."
स्वप्नेश कहते हैं कि विज्ञापनों के लिए प्रतिस्पर्धा भी तेज हो रही है. एक विज्ञापन जो कभी 10,000 रुपए का होता था, अब 2,000 रुपए में मिलता है - इससे पत्रकार का कमीशन और काम हो जाता है. वे पूछते हैं, "इस महंगाई के दौर में एक पत्रकार का परिवार इतनी कमाई पर कैसे चलेगा?"
सबसे बड़ी बात यह है कि संकट के समय इनमें से कई पत्रकरों को कोई संगठनात्मक सहायता और समर्थन नहीं मिलता. इनमें से कई के पास प्रेस कार्ड नहीं हैं और वह साबित नहीं कर सकते कि वह किस संस्थान के लिए काम करते हैं. यह रिपोर्टिंग और अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने, दोनों में ही एक बड़ी बाधा है.
पवन पर एफआईआर दर्ज होने के बाद उनके संपादक ने उनका समर्थन किया था - लेकिन यह एक अपवाद है.
भारत में ग्रामीण पत्रकारों की स्थिति को संक्षेप में बताते हुए शिव बेहद खिन्न दिखे.
उन्होंने कहा, "जो लोग रामनाथ गोयनका जैसे पुरस्कार जीतकर बैठे हैं, उन्हें इस बारे में बात करनी चाहिए कि उनकी ख़बरों का स्रोत कौन है."
"स्रोत आप नहीं, वह ग्रामीण रिपोर्टर हैं जिन्हें आप क्रेडिट भी नहीं देते हैं. व्यवस्था के अलावा पत्रकारिता समुदाय भी इसके लिए जिम्मेदार है, जिसकी वजह से पवन जैसे कई पत्रकारों की मौत हो रही है."