भारत का मीडिया खतरों से घिरा हुआ है, लेकिन जनता को इसकी परवाह कब होगी?

एक स्वतंत्र प्रेस की महत्ता होने के बावजूद भी, इसके मूल्य या अभाव से जनता को फर्क नहीं पड़ता.

WrittenBy:कल्पना शर्मा
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इमरजेंसी खत्म होने और चुनाव के बीच के इस थोड़े से समय का उपयोग, मीडिया ने सरकार के द्वारा गरीबों के अधिकारों के हनन को उजागर करने के लिए किया, खास तौर पर शहरी गरीबों की बस्तियां उजाड़ने और जबरदस्ती सामूहिक नसबंदी की बात जनता तक पहुंचा कर. इंदिरा गांधी की गरीबों की परवाह करने वाली छवि को इससे बहुत बड़ा धक्का पहुंचा था. "गरीबी हटाओ" का नारा "गरीब हटाओ" में बदल गया था. और वे गरीब ही थे जिन्होंने शिद्दत से उनके और उनकी कांग्रेस पार्टी के खिलाफ वोट डालकर, राजनीतिक परिवर्तन को साकार किया.

आज के भारतीय मीडिया की हालत देखते हुए यह मुश्किल ही है, कि "बुलडोजर से हो रहे अन्याय" जैसी खबरों पर उसकी रिपोर्टिंग से कोई राजनीतिक परिवर्तन आए. यह खबर भी इसलिए कवर हो रही है, क्योंकि यह सब राष्ट्रीय राजधानी में हो रहा है जहां पर सारे मीडिया हाउस स्थित हैं. अगर ऐसा ही किसी छोटी जगह पर हो रहा होता तो इसी घटना कि शायद ही कोई खबर चली होती. हर दिन, देशभर में ऐसे ही और इससे कहीं ज्यादा बड़े अन्याय होते रहते हैं जिन पर कोई खबर नहीं चलती.

एक रोचक बात यह भी है कि आरएसएफ की रिपोर्ट 3 मई को जारी हुई थी, जिसे विश्व प्रेस आजादी दिवस के रूप में रखा गया है - तब भी शायद ही किसी बड़े मीडिया संस्थान या अखबार ने, रिपोर्ट में दिए डाटा को दिखाने के अलावा इस पर कोई बात नहीं की. ऐसा लगता है कि मीडिया में मौजूद हम लोग भी अपनी आजादी को लेकर बेपरवाह हैं.

आउटलुक के पूर्व संपादक कृष्णा प्रसाद ने अपने मीडिया आलोचना के ट्विटर खाते @churmuri के जरिए लिखा की सर्वे किए गए 16 अंग्रेजी अखबारों और 22 राज्यों में देखे गए 15 भाषाई अखबारों में से एक ने भी, वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग पर कोई टिप्पणी नहीं की. केवल स्क्रोल या वायर जैसे स्वतंत्र डिजिटल न्यूज़ संस्थानों ने ही इस रिपोर्ट की महत्ता को गंभीरता से लिया, जैसा कि द वायर के इस संपादकीय में स्पष्ट रूप से जाहिर होता है.

यह संपादकीय इन शब्दों में खत्म होता है, "शब्दों मैं मिठास घोलने का समय बीत चुका है: भारत का जनतंत्र दिनदहाड़े मर रहा है. तब भी, यह मृत्यु अवश्यंभावी नहीं. प्रेस खतरों से घिरी हुई है, लेकिन उसे अपने पांव जमाए रखने के तरीके ढूंढने होंगे, जो हो रहा है उसे दर्ज करते रहना होगा और निशाना बन रहे हर पत्रकार और मीडिया संस्थान के सहयोग में दृढ़ता से आवाज उठानी होगी."

यह सत्य है कि आज भारत में मीडिया खतरों से घिरा हुआ है और कई पत्रिका तो अक्षरशः निशाने पर हैं. लेकिन उन्हें केवल मारपीट या गोलियों से नहीं, बल्कि अलग-अलग तरीकों से मारा या बेबस किया जा रहा है.

मैं इस लेख का अंत, उत्तर प्रदेश के एक ग्रामीण पत्रकार पवन जायसवाल के उल्लेख से करना चाहती हूं.

2019 में, उत्तर प्रदेश सरकार ने पवन पर सरकार को बदनाम करने की साजिश का इल्जाम लगाया था, क्योंकि उन्होंने मिर्जापुर गांव में मिड डे मील के दौरान बच्चों को रोटी के साथ नमक खाते हुए दिखाया था. मिड डे मील योजना की शुरुआत इस परिकल्पना से हुई थी, कि गरीब से गरीब तबके से आने वाले बच्चे भी इस बहाने स्कूल आकर दिन में कम से कम एक समय पौष्टिक भोजन ग्रहण कर सकें.

पवन वही कर रहे थे जो एक पत्रकार को करना चाहिए, आमतौर पर कुरूप और विचलित करने वाली सच्चाई को दर्ज करके रिपोर्ट करना. जैसा रोज ही देश के अनेक भागों में होता रहता है. उत्तर प्रदेश सरकार की नजर में, यह ऐसा अपराध था जिसके लिए उन्हें सजा दी जानी चाहिए थी.

दुर्भाग्य से, पिछले हफ्ते पवन जायसवाल की कैंसर से मृत्यु हो गई. एक ऐसी बीमारी जिसके इलाज के लायक पैसे वह एक ग्रामीण पत्रकार के तौर पर नहीं कमा पाए.

पवन को किसी ने नहीं मारा. परंतु एक ऐसा तंत्र, जो पत्रकारों को अपना काम करने के लिए अपराधी बना देता है, और उन्हें इतनी ही आय देता है कि वे बस जिंदा रहने भर लायक ही कमा पाते हैं - उनकी मृत्यु का उत्तरदाई है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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