छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के साल्ही गांव से लगे हसदेव अरण्य के जंगल में आदिवासी पेड़ काटने का विरोध कर रहे हैं. पिछले काफी दिनों से यहां प्रदर्शन हो रहा है.
विरोध के स्वर
पिछले महीने परसा कोयला खदान की मंजूरी के बाद अडानी समूह के लोगों ने वन विभाग के सहयोग से पेड़ों की कटाई की शुरुआत कर दी. लेकिन ग्रामीण इन पेड़ों से चिपक गए. ग्रामीणों के व्यापक विरोध के बाद पेड़ कटाई की प्रक्रिया को रोकना पड़ा. इस मामले में कुछ ग्रामीणों के खिलाफ गंभीर धाराओं में मुकदमे भी दर्ज किए गए हैं लेकिन इन मुकदमों की परवाह किए बिना सैकड़ों स्त्री, पुरुष और बच्चे, अभी भी जंगल के इलाके में पेड़ों की कटाई के खिलाफ डंटे हुए हैं.

इस बीच इलाके के स्थानीय आदिवासियों ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करते हुए पेड़ों की कटाई रोकने और कोयला खदान के आवंटन को रद्द करने की मांग की. अदालत ने भी इतनी हड़बड़ी में पेड़ों की कटाई को लेकर सवाल किए कि अगर भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया रद्द हो जाएगी तो क्या काटे गए पेड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है? हाईकोर्ट ने इस संबंध में राज्य सरकार को नोटिस जारी करते हुए जवाब तलब किया है.
दूसरी ओर स्थानीय आदिवासियों की एक चिट्ठी के आधार पर राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने राष्ट्रीय वन्यजीव परिषद और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण से अनिवार्य सहमति लिए बिना खनन और पेड़ों की कटाई को लेकर राज्य सरकार से तत्काल कार्यवाही करने और तथ्यात्मक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए कहा है.
अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ इलाके की कांग्रेस पार्टी की सांसद ज्योत्सना महंत ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री अश्वनी चौबे को एक पत्र सौंप कर परसा कोयला खदान की अनुमति रद्द करने की मांग की है. देश के कई पर्यावरणविदों ने भी हसदेव में नए कोयला खदान को लेकर चिंता जाहिर की है. लेकिन हसदेव में कोयला खनन और पेड़ों की कटाई के खिलाफ कबीरपंथ के गुरु प्रकाशमुनी नाम साहब के सामने आने से राज्य सरकार की चिंता बढ़ गई है. छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ के अनुयाइयों की संख्या लाखों में हैं.
कई विधायक, मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष तक इसी समाज के हैं. प्रकाशमुनी नाम साहब ने अपने एक संदेश में कहा, “मैं समस्त कबीरपंथ समाज की ओर से हसदेव के जंगलों की कटाई का सख्ती पूर्वक विरोध करता हूं. साथ ही समस्त कबीरपंथ समाज से इस अनैतिक कार्य को रोके जाने हेतु आवाज उठाने के लिए निवेदन करता हूं, क्योंकि जंगलों में एक वृक्ष का काटा जाना 100 प्राणियों की हत्या के बराबर पाप है.”
परसा कोयला खदान की जद में आने वाले हरीहरपुर, घाटबर्रा, साल्ही जैसे गांवों के आदिवासी भी किसी भी हालत में अपनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. साल्ही में धरना दे कर पिछले दो महीनों से भी अधिक समय से बैठीं एक प्रौढ़ महिला कहती हैं, “जंगल से ही हम हैं. हमारी पूरी आजीविका इसी पर निर्भर है. यह जंगल उजड़ गया तो सदियों से इस इलाके में रहते आए आदिवासी भी अपनी जड़ों से उखड़ जाएंगे. ऐसे में भले हमारी जान चली जाए, हम तो यहां कोयला खनन तो नहीं होने देंगे.”
हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक और पतुरियाडांड गांव के सरपंच उमेश्वर सिंह आर्मो कहते हैं कि हसदेव अरण्य बेहद समृद्ध जंगल है और बड़ी संख्या में बाघ, तेंदुआ, हिरण जैसे जंगली जानवर यहां पाए जाते हैं. हाथियों का बड़ा झुंड स्थाई रूप से इस इलाके में रहता है.
उमेश्वर कहते हैं, “इसी जंगल में हमारे देवताओं के स्थाई निवास हैं. हमारी संस्कृति इसी हसदेव में रचती-बसती है. इसके अलावा हसदेव अरण्य के जंगल ने ही मध्यभारत के पर्यावरण को बचा कर रखा है. यह समझने वाली बात है कि हसदेव बचेगा तो देश बचेगा.”
हसदेव अरण्य में खनन और पेड़ों की कटाई रुकेगी या हसदेव का यह जंगल इतिहास में दर्ज हो कर रह जाएगा, अभी इस पर कुछ भी कहना मुश्किल है. लेकिन कोयला खनन को लेकर सरकार की हड़बड़ी बताती है कि कम से कम सरकार को इस जंगल की परवाह नहीं है.
(साभार- Mongabay हिंदी)
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