सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के मुताबिक देश में जैविक और प्राकृतिक खेती अब भी सीमित क्षेत्र पर ही सिमटी हुई है.
“एक साल के भीतर जैविक खेती के कारण हमारी खेती बुलंदी पर चली गई है, अब हम विविध फसल उत्पादन का मूल्यवर्धन करके बाजार में ले जाने की सोच रहे हैं. रासायनिक खेती के मुकाबले जैविक खेती न सिर्फ टिकाऊ है बल्कि इसने हमें एक ऐसा खेती का मॉडल दिया है, जिसमें शुरुआती निवेश के बाद अब खेती की लागत घटती जा रही है और हमारी उपज, मिट्टी और पर्यावरण में सुधार हुआ है. मेरा अनुभव है कि शुरुआत में काफी मेहनत और निवेश करना पड़ता है लेकिन आठ महीनों के भीतर इसका परिणाम मिलना शुरू हो जाता है.”
महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में 66 एकड़ भूमि पर जैविक खेती करने वाले सुभाष शर्मा का यह अनुभव एक साल का निचोड़ है. वह बताते हैं कि जैविक खेतों के लिए एक बेहतर पर्यावरण चाहिए, इसलिए खेतों में 3.5 हजार पेड़ लगाए हैं. यह सारे पेड़ 40 फीट की दूरी पर मौजूद हैं और सभी जिंदा हैं. इन पेड़ों के बीच पपीते और अन्य फलों का पेड़ भी लगाया गया है जो अब लाभ देने को तैयार हैं. इसके अलावा मिट्टी में कार्बनिक तत्व को बेहतर करने के लिए गोबर के साथ हरित खाद (ग्रीन मैन्योर) का प्रयोग किया. साथ ही 20 हेक्टेयर भूमि में वर्षा जल को संचित करके करीब 20 करोड़ लीटर भू-जल संचित किया है जिससे उनकी मिट्टी में नमी लौट आई है और गन्ना की उपज काफी प्रभावी है. वह बताते हैं कि इन कदमों से ऐसा सूक्ष्मसंसार मिलेगा जो उनके खेतो की मिट्टी में न सिर्फ कार्बनिक तत्व को टिकाए और बनाए रखेगा बल्कि नाइट्रोजन, फास्फोरस और अन्य तत्वों को बनाए रखेगा.
सुभाष की तरह कई किसानों ने ऐसा अनुभव हाल-फिलहाल लिया है. सरकार यह सबूत बीते 16 वर्षों से यानी 2004 से ही जुटा रही है कि रासायनिक खेती की तुलना में जैविक खेती से ज्यादा फायदा है. हालांकि ज्यादा अनाज उत्पादक राज्यों में किसानों को रासायनिक खेती छोड़कर जैविक खेती की तरफ ले जाने वाली कोई भी ठोस योजना नहीं चलाई गई.
दिल्ली स्थित थिंक-टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने “एविडेंस (2004-20) ऑन होलिस्टिक बेनिफिट्स ऑफ ऑर्गेनिक एंड नैचुरल फार्मिंग इन इंडिया” रिपोर्ट में यह तथ्य उजागर किया है कि सरकार और वैज्ञानिक खुद जैविक खेती की परियोजनाओं से हासिल परिणामों को योजना बनाते समय दरकिनार कर रहे. जैविक खेती के फायदों को गिनाते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर) और ऑल इंडिया नेटवर्क प्रोजेक्ट ऑन ऑर्गेनिक फार्मिंग (एआईएनपीओएफ) के वैज्ञानिकों ने जैविक और रासायनिक खेती की तुलना वाली कोई ठोस रिपोर्ट नहीं पेश की है.
हरियाणा में प्राकृतिक खेती का अभियान चलाने वाले राजेंद्र चौधरी ने कहा ऐसा लगता है कि कृषि वैज्ञानिक जैविक खेती को कुछ छोटे इलाकों तक जैसे द्वीपों और आदिवासी क्षेत्रों और सीमित फसलों तक ही इसे बांधे रखना चाहते हैं. पंजाब-हरियाणा जैसे रासायनिक खेती वाले बड़े अनाज उत्पादक राज्यों में वे जैविक खेती को लागू करने के बारे में सरकारी नीतियों और योजनाओं में सिफारिश नहीं कर रहे हैं.
एआईएनपीओएफ के तहत 2016 में यह निष्कर्ष वैज्ञानिकों ने ही पेश किया है कि ओडिशा के कालीकट में एक साल में एक एकड़ में 1.8 लाख रुपए का शुद्ध मुनाफा हासिल किया गया और इसमें 410 दिनों का रोजगार मिला लेकिन वैज्ञानिकों ने इसकी तुलना रासायनिक खेती से नहीं की है. राजेंद्र चौधरी बताते हैं कि ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है क्योंकि ज्यादातर परिणाम जैविक खेती के पक्ष में जाते हैं और ये स्पष्ट बताते हैं कि विस्तृत रूप से जैविक खेती रासायनिक खेती की तुलना में ज्यादा आमदनी वाली है. लेकिन सरकार व्यावसायिक हितों वाली रासायनिक खेती को प्रश्रय देना चाहती है.
वहीं सीएसई की रिपोर्ट सरकार के 16 राज्यों में 20 जैविक खेती के केंद्रो वाली परियोजना एआईएनपीओएफ के 16 वर्षों के आंकड़ों (2004-2020) और 2010 से 2020 के बीच जैविक और प्राकृतिक खेती को लेकर प्रकाशित स्वतंत्र वैज्ञानिक शोधपत्रों का अध्ययन कर अपने निष्कर्ष में बताती है कि रासायनिक खेती की तुलना में जैविक और आंशिक रसायन वाली जैविक खेती जैविक, (इंटीग्रेटेड) खेती समग्र लाभ देने वाली है (देखें, बेहतर पैदावार).
उत्तर प्रदेश के मेरठ में मोदीपुरम स्थित भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक और एआईएनपीओएफ के संयोजक एन रविशंकर ने बताया कि 2004-2020 के बीच एआईएनपीओएफ में पाया गया कि जैविक माध्यम से खरीफ और ग्रीष्म सीजन की फसलों ने बहुत ही अच्छा परिणाम दिया है. हालांकि रबी सीजन में फसलों का परिणाम सीमित रहा है.
उन्होंने बताया कि रबी फसलें कम तापमान में पैदा होती हैं और तापमान कम होने के कारण माइक्रोबियल गतिविधि कम हो जाती हैं. ऐसे में जरूरत है कि रबी फसलों पर वैज्ञानिक तरीके से ध्यान दिया जाए. बहरहाल वह यह स्वीकार नहीं करते हैं कि पूर्व में जैविक खेती की अनदेखी की गई है. वह बताते हैं कि प्राकृतिक खेती को लेकर अभी काम नहीं किया गया है, आगे आने वाली योजनाओं में इस पर काम होना बाकी है.
भले ही दिसंबर, 2021 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रासायनिक खेती के नुकसान गिनाते हुए प्राकृतिक खेती को जनआंदोलन बनाने की बात कही हो या फिर वित्त वर्ष 2022-23 के बजटीय भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने प्राकृतिक खेती को बढ़ाने की घोषणा की हो लेकिन सीएसई की रिपोर्ट के मुताबिक देश में जैविक और प्राकृतिक खेती अब भी सीमित क्षेत्र पर ही सिमटी हुई है. मसलन, भारत के कुल 14.01 करोड़ हेक्टेयर बुआई क्षेत्र में महज 2.7 फीसदी यानी 38 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर जैविक और प्राकृतिक खेती है. यदि सिर्फ अकेले प्राकृतिक खेती की बात करें तो वह भारत में कुल बुआई क्षेत्र का महज 41 हजार हेक्टेयर क्षेत्र ही है.
सीएसई की रिपोर्ट के सह-लेखक और सीएसई में सस्टेनबल फूड सिस्टम्स प्रोग्राम के कार्यक्रम निदेशक अमित खुराना ने कहा कि यह एक अच्छी बात हुई है कि वित्त मंत्री ने आम बजट में प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए कृषि विश्वविद्यालयों के सिलेबस को प्राकृतिक खेती के आधार पर नए सिरे से तैयार करने की बात की है हालांकि यह एक बहुत ही छोटा कदम होगा.
जैविक और प्राकृतिक खेती की बात भले ही सरकार कर रही हो लेकिन ज्यादा ध्यान अब भी रासायनिक खेती की तरफ ही झुका हुआ है. वित्त वर्ष 2020-21 में रासायनिक खाद के लिए सरकार ने 1,31,230 करोड़ रुपए की सब्सिडी का बजट प्रावधान किया लेकिन दूसरी तरफ जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए 2015 में शुरू की गई परंपरागत कृषि विकास योजना में वित्त वर्ष 2021-22 में महज 100 करोड़ रुपए का प्रावधान था और वित्त वर्ष 2022-23 के बजट में कोई प्रावधान ही नहीं है.
तेलंगाना में सेंटर फॉर सस्टेनबल एग्रीकल्चर के जीवी रामजेनेयलू ने कहा कि जैविक खेती के लाभ को लेकर आईसीएआर के पास साक्ष्य हैं लेकिन रासायनिक खेती से जैविक खेती की तरफ ले जाने के लिए आज सबसे ज्यादा राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है जो समूची खेती-किसानी के लिए इकोलॉजिकल फ्रेमवर्क तैयार करे. सरकार यदि लगातार गेहूं और चावल की खेती के लिए रासायनिक खेती को प्रोत्साहित करेगी और चाहेगी कि वह फसलों में विविधता लाए और जैविक खेती की तरफ जाए तो यह बदलाव फिलहाल जल्दी नहीं होगा. जब तक वृहद स्तर पर किसान जैविक खेती का अभ्यास नहीं करेगा, तब तक इस बारे में प्रभावी बदलाव नहीं शुरू होगा. सरकार को एक तरह की समर्थन प्रणाली अपनाना चाहिए साथ ही प्रत्येक मॉडल को न्यायसंगत बनाना चाहिए.
सीएसई की तुलनात्मक विश्लेषण विस्तृत रिपोर्ट को चार बिंदुओं पर केंद्रित किया है. इनमें जैविक और आंशिक जैविक खेती व प्राकृतिक खेती की लागत, आय और आजीविका, मिट्टी की सेहत व पर्यावरण और भोजन गुणवत्ता शामिल है.
अच्छी उपज का सबूत
एआईएनपीओएफ के प्रयोग में लंबी अवधि वाली फसलों की उपज यह दर्शाती है कि पूर्ण रासायनिक खेती से काफी अच्छी जैविक खेती को अपनाना है और उससे भी बेहतर एकीकृत खेती यानी आंशिक रसायन वाली जैविक खेती के परिणाम हैं. मिसाल के तौर पर 2014-2019 के बीच 504 बार दर्ज उपज परिणामों में 41 फीसदी बार जैविक खेती की उपज ज्यादा अच्छी रही है, इसके बाद एकीकृत व्यवस्था में 33 फीसदी बार और रासायनिक खेती में महज 26 फीसदी बार उपज हासिल हुई है. वहीं, सब्जियों, तिलहन और अनाज के मामले में एकीकृत और रासायनिक खेती की तुलना में जैविक खेती में अच्छी उपज मिली जबकि दलहन और मसालों के मामले में जैविक और पूर्ण रासायनिक खेती की तुलना में एकीकृत खेती के परिणाम ज्यादा अच्छे रहे हैं (देखें, कम लागत, अधिक मुनाफा,).
सीएसई ने विभिन्न अध्ययनों के विश्लेषण में पाया कि पालक, बेबी कॉर्न, ब्रोकली, आलू, भिंडी, टमाटर, प्याज, मिर्ची, अरहर, लोबिया, काले चने, चावल, रागी, बाजरा, गेहूं और केला की उपज रासायनिक खेती की तुलना में जैविक और प्राकृतिक खेती में बेहतर रही. यदि सिर्फ प्राकृतिक खेती की बात करें तो मक्का, मूंगफली, गन्ना, बाजरा, सोयाबीन, ज्वार और हल्दी में उच्च उपज हासिल हुई. सीएसई ने अपने अध्ययन में यह भी बताया है कि जैविक खेती की तरफ बढ़ने में शुरुआती परेशानियां आ सकती हैं. लेकिन वर्मीकंपोस्ट, पोल्ट्री खाद, हरित खाद, लिक्विड बायो फर्टिलाइजर्स, जीवनअमृत, बीजअमृत, घनजीवअमृत, पंचगव्य और फिश प्रोटीन हाइड्रोलाइसेट जैसे फार्मयार्ड मैन्योर जैविक खेती में बड़ी भूमिका अदा करते हैं.
लाभ के साक्ष्य
एआईएनपीओएफ परियोजना से पता चलता है कि एकीकृत की तुलना में जैविक खेती की लागत अधिक है. सीएसई की रिपोर्ट बताती है कि जैविक खेती में उच्च लागत इसलिए है क्योंकि एआईएनपीओएफ के केंद्रों में उपयोग किए जाने वाले जैविक और जैव-इनपुट बड़े पैमाने पर बाजार से महंगे दामों में खरीदे जाते हैं. किसानों द्वारा खेतों में ही तैयार खाद का इस्तेमाल करने पर जैविक खेती में लागत कम आती है. एआईएनपीओएफ के खेतों में खेती की उच्च लागत के बावजूद जैविक दृष्टिकोण के साथ 63 प्रतिशत फसल प्रणालियों (क्रॉपिंग सिस्टम) में शुद्ध लाभ उच्चतम है.
इसी तरह एकीकृत दृष्टिकोण के मामले में 11 प्रतिशत फसल प्रणालियों (क्रॉपिंग सिस्टम) में शुद्ध लाभ सबसे अधिक है. अन्य वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है कि प्राकृतिक खेती के मामले में पैदावार हमेशा सभी फसलों के लिए अधिक नहीं हो सकती है, लेकिन लाभ-लागत अनुपात रासायनिक खेती की तुलना में कई गुना अधिक है. उत्पादन की न्यूनतम लागत और उत्पाद के लिए प्रीमियम कीमतों के साथ प्राकृतिक खेती के तहत आय और लाभ पारंपरिक खेती की तुलना में अधिक है. अध्ययनों से पता चलता है कि बिना प्रमाणीकरण के भी प्राकृतिक खेती से प्राप्त उपज पारंपरिक खेती से दोगुनी आय प्राप्त करती है.
मिट्टी की सेहत
स्वस्थ मिट्टी स्वस्थ खाद्य उत्पादन का आधार है. एआईएनपीओएफ परियोजना से पता चलता है कि मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्व, कार्बनिक तत्व और राइजोस्फीयर माइक्रोबायोम सुनिश्चित करने के लिए जैविक दृष्टिकोण वाली खेती बेहतर है. जैविक दृष्टिकोण के साथ 91 प्रतिशत फसल प्रणालियों में मिट्टी में औसत ऑर्गेनिक कार्बन उच्चतम है. वहीं, 42 फीसदी फसल प्रणालियों में जैविक खेती के कारण नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम जैसे मैक्रोन्यूट्रिएंट्स रासायनिक खेती की तुलना में अधिक हैं.
मृदा सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे लोहा, मैंगनीज, जस्ता और तांबा भी जैविक दृष्टिकोण से अधिक (76 प्रतिशत) हैं. हालांकि एकीकृत दृष्टिकोण वाली खेती से सभी मामलों में रासायनिक खेती की तुलना में बेहतर परिणाम मिले हैं. एआईएनपीओएफ परिणाम बताते हैं कि जैविक खेती में मिट्टी में पोटेशियम, लोहा, मैंगनीज और मिट्टी की बल्क डेन्सिटी को छोड़कर सभी मामलों में रासायनिक से बेहतर परिणाम हैं.
सीएसई ने वैज्ञानिक अध्ययनों में पाया कि जैविक खेती उत्सर्जन से बचाव और कार्बन पृथक्करण दोनों समस्याओं के समाधान में भी सहायक है. यह भी पाया गया कि प्राकृतिक खेती और शून्य बजट प्राकृतिक खेती (जेडबीएनएफ) को अपनाने के बाद मृदा स्वास्थ्य और उर्वरता, मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्व, मृदा ऑर्गेनिक कार्बन, मृदा एंजाइम, केंचुए, मृदा श्वसन और माइक्रोबियल बायोमास में वृद्धि होती है. प्राकृतिक खेती प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों में फसलों के समग्र लचीलेपन में सुधार करती है और ऊर्जा और जल दक्षता में सुधार करती है. इसमें कार्बन उत्सर्जन को कम करने की भी क्षमता है. अध्ययनों से पता चलता है कि जेडबीएनएफ भूजल के अतिदोहन को रोकने में मदद कर सकता है. साथ ही एक्वीफर रीचार्ज को सक्षम कर सकता है और जल स्तर को बढ़ाने में योगदान कर सकता है.
भोजन की गुणवत्ता
जैविक खेती में भोजन की गुणवत्ता और पोषण रासायनिक खेती से बेहतर और एकीकृत से थोड़ा बेहतर पाया जाता है. पांच खाद्य समूहों (सब्जियां, तिलहन, दालें, मसाले और अनाज) से फसलों के लिए एआईएनपीओएफ अध्ययन से पता चलता है कि 67 प्रतिशत मामलों में परिणाम जैविक खेती के पक्ष में हैं और 64 प्रतिशत मामलों में वे एकीकृत दृष्टिकोण वाली खेती के साथ उच्च हैं. 15 में से 12 फसलों में जैविक दृष्टिकोण के साथ मानक उच्चतम पाए गए.
वहीं, अन्य वैज्ञानिक अध्ययनों से प्राप्त साक्ष्यों से पता चलता है कि सब्जियों और फलों में जैविक दृष्टिकोण के साथ कुल कैरोटीनॉयड, कुल घुलनशील ठोस, विटामिन सी, कुल शर्करा और लाइकोपीन जैसे गुणवत्ता पैरामीटर अधिक हैं. जैविक रूप से उगाए गए मक्का, स्ट्रॉबेरी और मैरियन बेरी में कैंसर से लड़ने वाले एंटीऑक्सीडेंट का स्तर काफी अधिक (लगभग 30 प्रतिशत) होता है. पपीते के मामले में, उर्वरकों की अनुशंसित खुराक की तुलना में जैविक के साथ गुणवत्ता पैरामीटर अधिक थे.
आगे का रास्ता
जैविक और प्राकृतिक खेती के प्रोत्साहन रोडमैप को लेकर डॉक्टर एन रविशंकर बताते हैं कि अभी कई योजनाओं पर निर्णय लिया जाना बाकी है. इन लंबित योजनाओं में जैविक खेती प्रत्योषण योजना, लद्दाख के लिए मॉडर्न ऑर्गेनिक एग्रीकल्चर डेवलपमेंट इनिशिएटिव और ऐसे द्वीप और आदिवासी क्षेत्रों में जहां रासायनिक खेती का बिल्कुल प्रभाव नहीं है, उन इलाकों के लिए सर्टिफिकेट प्रोग्राम चलाए जाने वाली योजनाएं शामिल हैं. हालांकि, सच्चाई यह है कि पुरानी योजनाओं को देश में बड़े फलक पर नहीं उतारा गया. वहीं, इस तरह की योजनाएं एक खास क्षेत्रों तक सिमट जाएंगी. इससे बड़े रासायनिक खाद के उपभोक्ता राज्यों में किसान जैविक खेती की तरफ बढ़ पाएगा यह संशकित करने वाला है.
एक समस्या यह भी है कि अब तक कोई ऐसी नीति नहीं आई जिसने जैविक और प्राकृतिक खेती को लेकर कोई स्पष्ट परिभाषा पेश की हो. उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर से किसान भारत भूषण त्यागी ने कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी नीति हो जिसमें जैविक खेती की साफ-साफ परिभाषा लिखी जाए, क्योंकि जैविक और प्राकृतिक खेती जैसे कई तरह के नामों और लक्ष्यों से यह भटकाव की तरफ बढ़ जाता है.
हरियाणा के हैवेनली फार्म्स के हरपाल सिंह गेरवाल ने कहा कि मौजूदा खेती-किसानी एग्रीकल्चर नहीं बल्कि केमिकल्चर है. रसायनों की खेती है. आज जो भी जैविक खेती के जरिए उगाया जा रहा हैं, उसकी इनपुट्स और पैदावार को बहुत ध्यान से देखना और समझना होगा. गेरवाल ने कहा कि 2011 में खाद्य बिल लाया गया था, इसे लागू नहीं किया गया है. यदि इसे लागू किया जाए तो जैविक खेती का रास्ता शायद सुगम हो सकता है.
सीएसई के अमित खुराना का कहना है कि सरकार को अपनी योजनाओं को बड़ा फलक देना होगा और वैज्ञानिक निष्कर्षों को गहराई के साथ देखना होगा, तभी जनआंदोलन जैसे बदलाव संभव है. एक व्यापक प्रोत्साहन वाली राष्ट्रीय नीति की जरूरत है.
(साभार- डाउन टू अर्थ)