प्रधानमंत्री संग्रहालय: पीएम कोई भी बन सकता है, बनता ही रहा है लेकिन नेहरू जैसा कोई नहीं

किसी के मन में यह हीन भाव या अहंकार बैठा हो कि हमें जवाहरलाल के समकक्ष माना जाए, तो यह कैसे इतिहास प्रमाणित हो सकता है?

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गांधी की कसौटी इतनी सख्त थी कि उस पर खरा उतरना किसी के लिए भी, कहीं से भी आसान नहीं था. जवाहरलाल बार-बार उस कसौटी पर विफल भी होते हैं, फिसलते भी हैं लेकिन कभी हार नहीं मानते हैं. उनका यह हार नहीं मानना ही उन्हें गांधी का प्रिय बनाता गया. दोनों के बीच मतभेद थे. दोनों ने ही उन मतभेदों को कभी छिपाया या दबाया नहीं. गांधी अंतत: यहां तक गए कि नाता तोड़ लेने और दुनिया को यह भेद बता देने की बात कह दी.

वह सारा इतिहास अभी यहां दर्ज नहीं किया जा सकता है. लेकिन यह तो दर्ज हो ही सकता है कि जद्दोजहद के उसी काल में कभी गांधी के पास राममनोहर लोहिया यह तीखी शिकायत लेकर गए कि आपने जवाहरलाल को सबसे अच्छा कैसे कह दिया? गांधी ने बेझिझक, सीधा जवाब दिया: मैंने उसे सबसे अच्छा नहीं कहा; इतना ही कहा है कि मेरे पास जो हैं उनमें वह सबसे अच्छा है! जवाहरलाल के बारे में गांधी का यही आकलन अंतिम था; और इतिहास का भी यही आकलन है.

आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से हमारे भी कई मतभेद हैं- गहरे व बुनियादी! उनकी गलतियों को हम क्षमा कर सकते हैं जैसे किसी की भी गलतियों को क्षमा कर सकते हैं, करना चाहिए लेकिन जो अक्षम्य है वह यह है कि बगैर समझे-जाने-बूझे देश को गांधी की दिशा से उल्टी दिशा में वे ले गए जिसकी गहरी कीमत हम आज भी अदा कर रहे हैं. जिस देश में एक नई दुनिया बनाने की संभावना दुनिया ने देखी थी, वह धीरे-धीरे देशों की भीड़ में शामिल हो गया. लेकिन क्या यह अकेले जवाहरलाल की गलती थी?

तब तो देश का सारा तथाकथित बौद्धिक वर्ग, वैज्ञानिक व पंडित सब वाह-वाह कर रहे थे कि जवाहरलाल गांधी की दकियानूसी दिशा को छोड़कर देश को आधुनिकता की तरफ ले जा रहे हैं. वैसे ही लोग आज भी तालियां बजा रहे हैं. अकेले जवाहरलाल नहीं थे जो ब्रितानी फौजी कमांडर की कोठी में रहने लगे थे, राष्ट्रपति से ले कर सारे राज्यपालों ने, मंत्रियों से ले कर नौकरशाही के सारे आला अधिकारियों ने अंग्रेजों के छोड़े जूते में आराम से पांव डाल लिए थे.

गांधी दिल-दिमाग से निकाल कर दफ्तरों की दीवारों पर टांग दिए गए. यह सब भी है जो देखने वालों को तीनमूर्ति के नेहरू-संग्रहालय में दिखाई देता था. इतिहास को देखने की आंख भी और उसे सुनने के कान भी बनाने पड़ते हैं. यह अंधों का तोतारटंट नहीं है.

अब कुर्सियों का यह संग्रहालय न इतिहास बयान कर सकता है, न उसकी फिसलन, न उसकी कमजोरियां. वह ऐसा फोटो अलबम बना दिया गया है जिसमें किसी एक को उभारने की फूहड़ कोशिश की गई है. जितने ज्यादा फोटो उतना बड़ा आदमी; जितना ज्यादा शोर उतना गहरा ज्ञान जैसा समीकरण हमें भी और समाज को भी खोखला बनाता जा रहा है. ऐसी फूहड़ता किसी देश को विश्वगुरू नहीं बना सकती. वैसे विश्वगुरू बनने की आकांक्षा भी कैसी फूहड़ व खोखली आकांक्षा है!

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं)

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