इंडियन वुमेंस प्रेस कॉर्प्स के इतिहास में पहली बार तीन गुट चुनाव लड़ेंगे. कथिततौर पर पहली बार एक दक्षिणपंथी गुट मैदान में.
न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए एक महिला पत्रकार ने बताया, “वर्तमान अध्यक्ष विनीता पांडे ने जमीन के स्टेटस से जुड़ी जानकारी छुपाई. यह जमीन क्लब को एक साल की लीज पर मिलती है. जिसके लिए हर साल सरकार को चिट्ठी लिखकर भेजनी पड़ती है. लेकिन मौजूदा पैनल की लापरवाही के कारण सरकार को हमसे जमीन वापस लेने का मौका मिल गया.”
वह आगे कहती हैं, “पिछले साल सरकार ने जमीन का किराया बढ़ा दिया जिसकी सूचना सदस्यों को नहीं दी गई. जब मामला संसद में उठा तब हमें पता चला.”
“क्लब में उठाए गए मुद्दों का ध्रुवीकरण”
महिला पत्रकारों से बातचीत में हमें पता चला कि पिछले 10 सालों में क्लब में राजनीतिक मतभेद बढ़ गया है. एक सदस्य ने गोपनीयता की शर्त पर बताया, “जिस तरह से हमारे देश में ध्रुवीकरण हो रहा है, एक समूह आईडब्ल्यूपीसी में भी उसी तरह की विचारधारा को फैला रहा है. हम चाहते हैं आपकी व्यक्तिगत विचारधारा कुछ भी हो, उसका क्लब के कामकाज पर असर ना पड़े. क्लब महिला पत्रकारों के लिए एक सुरक्षित जगह है. यहां वह जो भी स्टोरी लिख रही हैं उसे लिखने में सुरक्षित महसूस करें. क्लब को राजनीतिक अड्डा नहीं बनाया जाना चाहिए.”
वह उदाहरण के तौर पर कहती हैं, “जेएनयू में मीट को लेकर हुई हिंसा पर प्रतिक्रिया देते हुए पूनम डबास के पैनल के लोगों ने व्हाट्सएप ग्रुप में मीट बैन को सही ठहरना शुरू कर दिया. इनकी विचारधारा बहुत अतिवादी है जो क्लब के माहौल के लिए अच्छी नहीं है.”
पूनम डबास के पैनल की एक सदस्य का मानना है कि उन्हें “राइट विंग” करार देना सही नहीं है. वह कहती हैं, “मुझे नहीं पता बाकी पैनल के लोग हमें राइट विंग कहकर क्यों बुला रहे हैं. हां, हमारे आपसी मतभेद हैं लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें राजनीतिक विचारधारा के आधार पर अलग किया जा रहा है.”
उन्होंने आगे बताया, “मौजूदा वामपंथी पैनल मुद्दे उठाने में भेदभाव करता रहा है. जब हरिद्वार में एक पत्रकार की मौत हुई तब इस पैनल ने कोई नोटिस जारी नहीं किया. लेकिन जब बंगाल में पत्रकारों पर हमला हुआ तो तुरंत कई नोटिस जारी किए गए. यह क्या दर्शाता है?”
पूनम डबास के घोषणापत्र में पहला बिंदु कहता है कि आईडब्ल्यूपीसी ने 2019 में सुदर्शन न्यूज़ के पत्रकार अनुज गुप्ता के अपहरण पर चुप्पी साध ली थी. सुदर्शन न्यूज़ अपने अतिवादी हिंदुत्ववादी रवैये के लिए बदनाम है. यह बिंदु अपने आप में इस बात का इशारा करता है कि डबास पैनल का झुकाव दक्षिणपंथी है.
शोभना जैन के पैनल की एक सदस्य ने 2-3 साल पहले हुई घटना का जिक्र करते हुए कहा, “मौजूदा पैनल ने 2020 में अर्नब गोस्वामी पर हुए हमले पर कुछ नहीं कहा क्योंकि वह रिपब्लिक चैनल से थे. जब हमने चिंता जाहिर की तब स्टेटमेंट जारी किया गया.”
सुषमा रामाचंद्रन का कहना है कि पहले केवल दो पैनल चुनाव में खड़े होते थे. वो कहती हैं, “यह पहली बार हो रहा है कि तीन पैनल चुनाव लड़ रहे हैं. इसलिए इन्हें नाम दे दिए गए लेकिन इससे पहले कोई ‘राइट’, ‘लेफ्ट’ या ‘सेंटर’ पैनल नहीं होता था.”
अन्य मुद्दे
कई महिला पत्रकारों का मानना है कि क्लब को ऐसे मुद्दे उठाने चाहिए जिसने सभी को प्रभावित किया है. वैचारिकी का मुद्दा इतना महत्वपूर्ण नहीं है.
शोभना जैन के पैनल की एक सदस्य ने कहा, “जैसे कोविड के दौरान कई महिलाओं की नौकरी चली गई. इस पर बात हो. पत्रकारों को सरकार की किसी स्वास्थ्य बीमा योजना का हिस्सा बनाए जाय, इस पर बात हो.”
वह आगे कहती हैं, “कांग्रेस की सरकार में भी उनके पत्रकार हुआ करते थे जो क्लब के सदस्य थे. हमारी उनसे बहस भी हुआ करती थी लेकिन अभी के पत्रकार अतिवादी हैं. उनसे बात करके लगता है जैसे धमकी दे रहे हों. इस अतिवाद से हमें दिक्कत है.”
सुषमा रामाचंद्रन का पैनल भी चुनाव में खड़ा है. वह आईडब्ल्यूपीसी की परंपरा को दोबारा लौटाना चाहती हैं. वह कहती हैं, “पिछले दो सालों में कोरोना के कारण क्लब की स्थिति खराब हो गई है. पिछले मेंबर फंड नहीं जुटा पाए. हम फंड की समस्या का समाधान करेंगे. एक बार फिर खेल, राजनीति और कला के क्षेत्र से जुड़े ज्यादा से ज्यादा लोगों को क्लब में निमंत्रित करेंगे.”
तमाम महिला पत्रकारों से बातचीत में जो मुख्य बात उभरकर सामने आई वह थी महिलाओं के कामकाज का माहौल बेहतर हो, उनकी मुसीबतों के वक्त क्लब खड़ा हो, उनके वाजिब मुद्दों को जरूरी मंचों पर उठाए. बहुत दफा ऐसा होता है, कई दफा क्लब ऐसा करने से चूक जाता है.
2008 से क्लब की सदस्य अदिति टंडन कहती हैं, "चुनावी मतभेद का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्तिगत मतभेद है. हम बाद में फिर से दोस्त बन जाते हैं."
लेकिन एक महिला पत्रकार दूसरा पक्ष हमारे सामने रखती हैं, "ऐसे मौके आते हैं जब महिला पत्रकारों पर पुलिस मामले दर्ज कर लेती है, न्यूज़ रूम में या फिर फील्ड में कामकाज के दौरान उनका यौन शोषण होता है, ऐसे मौको पर कई बार क्लब बयान तक जारी करने से कतराता है. बड़े मुद्दों पर अक्सर उनका रवैया प्रोएक्टिव नहीं होता है. फिर इनके होने का क्या अर्थ है?"
जाहिर है आईडब्ल्यूपीसी आज उस मोड़ पर खड़ा है जहां से आगे उसकी राह तय करने का सबसे अहम जरिया होगा उसकी राजनीतिक विचारधारा, चाहे कोई भी जीते.