जब कोई कहता है कि 80 प्रतिशत महज 17 प्रतिशत की वजह से खतरे में आ गया है और असुरक्षा में जी रही है तो आंखों के सामने बिकते हुए सार्वजनिक उपक्रम सामने आ जाते हैं. यहां शब्द, शब्दों के मायने और उनसे उत्पन्न होने वाले दृश्य बदल चुके हैं. इसलिए जब हल्दीराम या नवदुर्गा में मीट की दुकानों को बंद करने के फरमान दिखाई देते हैं तो बुद्धि तत्काल चुनावी कैलेंडर देखने लग जाती है. अब कहां है चुनाव? चुनाव कब है?
कुछ साल पहले तक दरवेश और शायर सरहदों पर होने वाली हलचल से चुनाव की तिथियों का अंदाजा लगाया करते थे. अब हर रोज के बवाल से और नित नई शामतों से आने वाले कुछ साल बाद के चुनावों का सहज ही अंदाजा हो जाता है. जिंदगी को इतना भी प्रिडिक्टेबल नहीं होना चाहिए. अगर ऐसा हो जाएगा तो जिंदगी एक सफर सुहाना नहीं रह जाएगी और उस गीतकार का अपमान हो जाएगा जिसने लिखा था कि यहां कल क्या हो किसने जाना.
आज की पीढ़ी ऐसी जिंदगी पर भरोसा ही नहीं करेगी- कम से कम इस मामले में तो जरूर कि ये उसे पता है कि देश में कब-कब चुनाव हैं या कब-कब नहीं हैं और ये भी कि अगर चुनाव नहीं हैं तो सत्ता को टिकाए रखने के लिए ऐसे बवाल रोज-रोज क्यों होते हैं. आखिर चुनाव जीतकर सत्ता हासिल कर लेने के बाद उसे बचाए रखना भी कम हथकंडों का काम नहीं है. ऐसी जिंदगी रोमांच पैदा नहीं करती. सब यंत्रवत जीने लगते हैं.
अगर वक्त का पहिया थोड़ा पीछे घूमता तो इस तरह की घटनाएं इतने स्पष्ट रूप से लक्ष्यभेदी न होतीं. जो लोग हल्दीराम के यहां हरा रंग और अरबी देखकर पहुंचे थे उन पर गुंडा एक्ट लगता. सड़क पर उन्हें धर दबोचा जाता. हिंसा होती लेकिन राजकीय होती. सड़क पर लोगों को सीधा प्रसारण देखने को मिलता. न्यायालय सरकार को डांटता और तलब करता कि ये चल क्या रहा है. सरकार वादा करती कि अब ऐसा नहीं होगा. और पार्टी संदेश भेजने में लग जाती कि संयम बरतें, किसी अप्रिय घटना में मुब्तिला न हों.
कई बार ऐसी लक्ष्यभेदी घटनाओं का यूं ही दम तोड़ देना अच्छा नहीं लगता. अब कल कोई नया मुद्दा आ जाएगा और हल्दीराम एक भूली दास्तान हो जाएगी. पिछले एक सप्ताह को अगर आंखों में रिवाइंड करें तो हम देखेंगे किअगर वक्त का पहिया थोड़ा पीछे घूमता तो इस तरह की घटनाएं इतने स्पष्ट रूप से लक्ष्यभेदी न होतीं. जो लोग हल्दीराम के यहां हरा रंग और अरबी देखकर पहुंचे थे उन पर गुंडा एक्ट लगता. सड़क पर उन्हें धर दबोचा जाता. हिंसा होती लेकिन राजकीय होती. सड़क पर लोगों को सीधा प्रसारण देखने को मिलता. न्यायालय सरकार को डांटता और तलब करता कि ये चल क्या रहा है. सरकार वादा करती कि अब ऐसा नहीं होगा. और पार्टी संदेश भेजने में लग जाती कि संयम बरतें, किसी अप्रिय घटना में मुब्तिला न हों.
कई बार ऐसी लक्ष्यभेदी घटनाओं का यूं ही दम तोड़ देना अच्छा नहीं लगता. अब कल कोई नया मुद्दा आ जाएगा और हल्दीराम एक भूली दास्तान हो जाएगी. पिछले एक सप्ताह को अगर आंखों में रिवाइंड करें तो हम देखेंगे कि हिजाब से लेकर झटका, हलाल से होते हुए हरे रंग और एक लिपि- जिसे पढ़ा जाना बहुसंख्यकों के लिए उतना ही दुश्वार है जितना अंग्रेजी की रोमन लिपि- तक आ गया है. कोई घटना अंजाम तक न पहुंच सकी.
हां, ये कह सकते हैं कि इतना ही करने कहा गया था. और इतना करने भर से भी कुछ तो टूटा ही है. एक दिन में सब तोड़ दिया जाना भी सत्ता के लिए उचित नहीं है. जब सब कुछ टूट ही जाएगा तो सत्ता का भरम भी तो टूट जाएगा. आखिर तो, सत्ता एक भरम के सिवा और है भी क्या? और एक लिपि- जिसे पढ़ा जाना बहुसंख्यकों के लिए उतना ही दुश्वार है जितना अंग्रेजी की रोमन लिपि- तक आ गया है. कोई घटना अंजाम तक न पहुंच सकी. हां, ये कह सकते हैं कि इतना ही करने कहा गया था. और इतना करने भर से भी कुछ तो टूटा ही है. एक दिन में सब तोड़ दिया जाना भी सत्ता के लिए उचित नहीं है. जब सब कुछ टूट ही जाएगा तो सत्ता का भरम भी तो टूट जाएगा. आखिर तो, सत्ता एक भरम के सिवा और है भी क्या?
(साभार- जनपथ)