पंडिता रमाबाई: जिन्होेंने नव निर्माण और सुधार के लिए जन्म लिया

रमाबाई जानती थीं कि शिक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुए बिना स्त्रियों का उद्धार नहीं हो सकता, उन्हें आजीवन धर्म और पुरुष सत्ता के अधीन रहना होगा.

WrittenBy:सुजाता
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समाज सुधार के पुरुष इलाके में अकेली योद्धा

स्त्री शिक्षा के इस स्वप्न को रमाबाई ने खुद पूरा करने की ठानी. जिस साल, यानी 1882 में पुणे से आनंदीबाई जोशी अमेरिका के लिए निकलीं डॉक्टरी की पढ़ाई करने उसी साल रमाबाई बेटी के साथ इंग्लैंड के लिए रवाना हुईं. वहां कॉलेज में युवकों को संस्कृत पढ़ाकर अपना खर्च निकाला और शिक्षण-प्रशिक्षण हासिल किया. युवकों को एक विधवा युवती पढ़ाए इस बात को लेकर चर्च ने एक बार को आपत्ति की लेकिन प्रिंसिपल ने रमाबाई का साथ देकर इस मुद्दे को संभाला.

यहीं से आनंदीबाई जोशी को दीक्षांत समारोह के लिए उन्हें पेंसिल्वेनिया महिला मेडिकल विद्यालय की प्रिंसिपल रैचेल एल बॉडले ने आमंत्रित किया. इसी दौरान अमेरिका के अलग-अलग शहरों में घूम कर रमाबाई ने भाषण दिए और भारत में स्त्री शिक्षा की जरूरत और अपने मकसद के लिए आर्थिक मदद इकट्ठी की. 1887 में ‘अमेरिकन रमाबाई असोसिएशन’ का गठन हुआ जिसने तय किया कि भारत में स्त्री शिक्षा के लिए एक रेसिडेंशियल सेक्युलर स्कूल खोलने के लिए रमाबाई को आर्थिक मदद दी जाए.

इसी दौरान उन्होंने ‘द हाई कास्ट हिंदू वुमन’ (हिंदू स्त्री का जीवन) लिखी और इसकी कमाई से वापसी का टिकट और स्कूल के लिए कुछ सामग्री जुटाई. यह किताब हाथोहाथ बिकी. द हाई कास्ट हिंदू वुमन की भूमिका में प्रिंसिपल मिस बॉडले ने लिखा था- हजारों सालों की चुप्पी टूटी है...

1889 में जब रमाबाई इस सफलता और निश्चय के साथ भारत पहुंचीं तो पहले की तरह उनका स्वागत नहीं हुआ. कुछ था जो बदल गया था. इंग्लैंड में रमाबाई ने ईसाई धर्म अपना लिया था. इस बात की चर्चा और निंदा यहां के लोगों के बीच हो रही थी. अखबारों में उनके खिलाफ छप रहा था. चितपावन ब्राह्मण समाज एक ऐसी उद्दंड महिला को बर्दाश्त करने को तैयार न था.

लेकिन रमाबाई अकेले ही एक विकट राह पर निकल पड़ी थीं. स्कूल खोलने के लिए सबसे बड़ी मदद अर्थ और कौशल वह हासिल करके आई थीं और हर एक आलोचना को नजर अंदाज करते हुए आगे बढ़ रही थीं. पहला स्कूल ‘शारदा सदन’ बम्बई में जुहू पर खोला गया. तिलक जैसे कई नेताओं को आशंका थी कि यह हिंदू लड़कियों को जबरन ईसाई बनाएगी.

रानाडे, भंडारकर जैसे शारदा सदन के सलाहकार मंडल ने सामूहिक इस्तीफा दे दिया क्योंकि रमाबाई अपने फैसले खुद किया करती थीं और यह बात सलाहकार मंडल को अखरती थी. अपने पत्र ‘केसरी’ में तिलक ने उन्हें तमाम बार अपशब्द कहे और रमाबाई के खिलाफ एक संशय का माहौल बन गया. जब पुणे के सुधारक रमाबाई के खिलाफ खड़े थे उस समय दो लोग, गोपाल गणेश अगरकर और महात्मा ज्योतिबा फुले ने रमाबाई के समर्थन में लिखा.

कभी ईसाई धर्म में लड़कियों के जबरन परिवर्तन करने की बातें होती थीं कभी यह कि विधवा लड़कियों को घी खिलाती है, कभी यह कि लालची है पैसे की. न जानें कितनी बार स्कूल संकट में आया लेकिन तमाम चुनौतियों का वह सामना हिम्मत से करती रहीं क्योंकि वह जानती थीं कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से अकेले जूझना आसान नहीं है. बम्बई बहुत महंगा था, कुछ समय बाद शारदा सदन को पुणे और फिर केडगांव ले जाना पड़ा जहां आज भी यह ‘मुक्ति मिशन’ के नाम से चलता है.

अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व

रमाबाई आजीवन अमेरिकी रमाबाई एसोसिएशन से जुड़ी रहीं और इंग्लैंड के चर्च से भी जहां की सिस्टर गेराल्डाइन को उनकी बेटी मनोरमा ग्रैंडमदर या नानी कहती थीं. ‘मुक्ति मिशन’ ने न सिर्फ हिंदू सवर्ण बाल-विधवाओं की शिक्षा के लिए काम किया बल्कि अकाल, प्लेग जैसी स्थितियों में अकेली, बेसहारा लड़कियों, दिव्यांग लड़कियों, वृद्धाओं और अनाथ बच्चों को भी शिक्षित किया, स्वावलंबी बनाया बिना जाति-धर्म देखे. प्लेग के दिनों में वह एक बैलगाड़ी लेकर निकल पड़ती थीं और जहां संकट में पड़ी गरीब, असहाय, भूख या बीमारी से मरती हुई बच्चियां, स्त्रियां, नन्हे बच्चों सहित माताएं मिलती थीं उन्हें मुक्ति मिशन ले आती थीं, उन्हें नहला-धुलाकर साफ करना, घावों का इलाज करना और फिर शिक्षित करना इन कामों में रमाबाई प्राण-प्रण से जुटी थीं.

मुक्ति-मिशन में विदेशी वॉलंटियर्स का हमेशा आना-जाना लगा रहा. स्त्रियां आती थीं और वहीं रहकर शिक्षा के काम में रमाबाई का हाथ बंटाती थीं. धीरे-धीरे मुक्ति मिशन का विस्तारित हुआ और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होता गया. अमेरिकन रमाबाई असोसिएशन आज भी है.

रमाबाई जानती थीं कि शिक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुए बिना स्त्रियों का उद्धार नहीं हो सकता, उन्हें आजीवन धर्म और पुरुष सत्ता के अधीन रहना होगा. इसलिए उन्होंने कई तरह के कौशल लड़कियों को दिए जिनमें प्रिंटिंग का काम भी था. ‘मुक्ति मिशन’ का अपना प्रेस है और दुनिया भर में बनाया एक नेटवर्क है जिससे जुड़े लोग समाज-सेवा और स्त्रियों की स्थिति को बेहतर बनाने के प्रयास आज भी कर रहे हैं.

मृत्यु जिस नाम को मिटा नहीं सकी

रमाबाई का जीवन कठोर परिस्थितियों का जैसे आदी हो गया था. इसने हार मान कर बैठ जाना कभी सीखा ही नहीं था, न ही कभी खाली बैठना. अंतिम वर्षों में वे बाइबल का मराठी अनुवाद पूरा कर रही थीं. बेटी मनोरमा और मिशन की और कुछ लड़कियां इंग्लैंड से पढ़कर लौट आई थीं. मनोरमा मिशन के कामों में मां की मदद किया करती थीं. लेकिन अक्सर बीमार हो जाया करती थीं. 1921 में मनोरमा की मृत्यु हो गई.

इस बार यह रमाबाई के लिए असह्य था. उसने अपने सामने परिवार के एक-एक सदस्य को मौत के मुंह में जाते देखा था. साल भर बाद बाइबल का अनुवाद पूरा करने के लिए जैसे कुछ दिनों की मोहलत उन्होंने मांगी. इस काम को समाप्त करने के कुछ दिन बाद 5 अप्रैल 1922 को सुबह नींद में ही रमाबाई ने इस दुनिया से शांति से विदा ली अपने कामों की एक बड़ी धरोहर ‘मुक्ति मिशन’ को दुनिया के लिए छोड़कर.

पिछले साल नवंबर में मुक्ति मिशन जाना हुआ था वहां पास्टर ने बातों में बताया कि उनकी बेटी की मृत्यु यहां से 80 किलोमीटर दूर अस्पताल में हुई थी तब सबको लगा रमाबाई वहां जाएंगी. लेकिन रमा बोलीं- हजारों बेटियों को यहां छोड़कर एक बेटी के लिए कैसे जाऊं? इस दुख से रमाबाई बुरी तरह टूट गई थीं और साल भर बाद ही देह त्याग दी.

7 अप्रैल 1922 के टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा– यह एक देवदूत के जीवन का अंत है, खुद अकिंचन होते हुए भी दूसरों को समृद्ध करता, कुछ न होते हुए भी जिसके पास सब कुछ था.

कुछ और महत्वपूर्ण उपलब्धियां

1889 में बम्बई में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में उन्हें वक्ता के तौर पर बुलाया गया था. 1919 उन्हें ब्रिटिश सरकार ने कैसर-ए-हिंद की उपाधि से सम्मानित किया. रमाबाई ने भारत में छोटे बच्चों के लिए शिक्षा की किंडरगार्टन पद्धति से भारत को परिचित कराया जिसे उन्होंने अमेरिका में सीखा था.

वह पहली थीं जिन्होंने दृष्टि- बाधित विद्यार्थियों के लिए स्पेशल ब्रेल स्कूल खोला. हंटर कमीशन के सामने स्त्री-शिक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण सुझाव रखे. दुनिया में कहीं भी बाइबल का अनुवाद करने वाली पहली महिला थीं. 1989 में भारत सरकार ने ‘मुक्ति मिशन’ का 100वां साल पूरा होने पर रमाबाई के नाम का डाक-टिकट जारी किया.

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में असोसिएट प्रोफेसर हैं)

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