अब अखबारों पर कोई भी बात करने से पहले सोचना होगा कि बात को कैसे देखा जाए.
क्या सही है और क्या गलत, यह सवाल क्या आपराधिक है और क्या नहीं इससे अलहदा है. कोई घटना या बात सही होते हुए भी आपराधिक हो सकती है. कोई और बात कतई गलत होते हुए भी जरूरी नहीं कि अपराध के दायरे में आए. बात को अपराध मानने या न मानने का काम अदालत का है. बात को सही या गलत मानने का काम सुनने वाले का है. सुनने वाले के ऊपर अदालती धाराएं काम नहीं करती हैं. बोले गए को सुनना एक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया है. अब फर्ज कीजिए कि अदालत पाबंद कर दे कि सही और गलत का पैमाना वही तय करेगी, तो आप क्या करेंगे? आइए, दो उदाहरण देखते हैं. लेकिन उससे पहले...
आज पक्षकारिता में अखबारों पर मैं कोई बात नहीं करूंगा क्योंकि करने के लिए कोई बात है ही नहीं. वास्तव में, ऊपर जो सवाल किया है मैंने, उस संदर्भ के दो उदाहरणों ने ही यह तय कर दिया है कि अब अखबारों पर कोई भी बात करने से पहले सोचना होगा कि बात को कैसे देखा जाए. फिलहाल उदाहरण देखिए, नीचे दो खबरें हैं.
अमर उजाला में 18 मार्च को छपी खबर के अनुसार देश के सबसे प्रतिष्ठित उच्च न्यायालयों में एक इलाहाबाद हाइकोर्ट कह रहा है कि राजनीतिक दलों या नेताओं के किए वादों के प्रति वे दल/नेता जिम्मेदार नहीं हैं. इन वादों से मुकरने पर कोई दंड का प्रावधान नहीं हैं इसलिए यह कानूनन कोई अपराध नहीं है. इस खबर को समझते हुए आप 10 मार्च, 2022 से पीछे जाइए और डेढ़ महीने में सारे अखबारों को खंगाल डालिए. सभी अखबारों ने नेताओं और राजनीतिक दलों की सभा/रैली आदि में किए वादों को प्रमुखता से रिपोर्ट किया था.
इलाहाबाद हाइकोर्ट के मुताबिक चूंकि उन वादों से मुकरने की कानूनन छूट है, तो कुल मिलाकर यह अर्थ निकलता है कि नेता और अखबार मिलकर मतदाताओं को बरगला रहे थे और इसे 'बरगलाना' कहना भी एक मूल्य-निर्धारण का मसला है जिसका अख्तियार हम पर नहीं है क्योंकि यह कानून के खांचे में निर्दोष कृत्य करार दिया जा चुका है. यानी अदालत के मुताबिक झूठे वादे करना विधिक पैमानों पर सही है. वादों को झूठ कह कर दरअसल कहने वाला खुद अपनी ही टांग फंसा रहा है क्योंकि विधिक पैमाने पर तो इसका निर्धारण हो चुका है जबकि वैधता के मोर्चे पर सब इस पर चुप हैं.
ऊपर वाली बात को बेहतर ढंग से समझने के लिए दूसरी खबर पर आइए- नवभारत टाइम्स में 26 मार्च को छपी है. औरों ने भी रिपोर्ट किया है. कोर्ट वादी से पूछ रही है कि 'ये लोग' से आप कैसे किसी समुदाय विशेष का अर्थ लगा सकते हैं? ये तो कोई भी हो सकता है! और इस तरह सुनने वाले की मंशा पर सवाल खड़ा कर के बोलने वाले की मंशा को स्वस्थ करार दे दिया जाता है कि अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा के भाषणों में सांप्रदायिक मंशा नहीं थी. इतना ही नहीं, दिल्ली हाइकोर्ट अनुराग ठाकुर के संदर्भ में कहता है कि मुस्कुरा कर कही गई बात में आपराधिकता नहीं होती.
कोर्ट कह रहा है कि अगर आप मुस्कुरा कर कोई बात कह रहे हैं तो इसमें कोई अपराध नहीं है लेकिन अगर आप आक्रामक तरीके से कुछ कह रहे हैं तो यह जरूर अपराध है. याद कीजिए नवंबर 2016 का वह दिन जब जापान में प्रवासी भारतीयों की एक सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाथ मलते हुए विनोदपूर्ण ढंग से अंगूठा दिखाकर तंज किया था- ''घर में शादी है, पैसे नहीं हैं. मां बीमार है, हजार के नोटों का थप्पा है, लेकिन मुश्किल है...।'' और पूरी सभा ठठा कर हंस पड़ी थी.
छह साल बाद फिर से यह वीडियो देखकर यदि आपके मन में थोड़ी सी भी वितृष्णा जगती हो तो समझिएगा कि भारतीय अदालतों के मुताबिक गुनाहगार आप हैं, बोलने वाला नहीं. अपनी वितृष्णा की जवाबदेही आप पर है.
यह बयान भारतीय अदालत के मुताबिक अपराध नहीं होना चाहिए क्योंकि बात हंसी में आई गई हो गई थी. जिसके घर में वाकई शादी रही होगी, जिसकी मां वास्तव में बीतार रही होगी, उसके लिए? यह वैधता का मसला है जिस पर एक बार फिर से यह समाज चुप है. अदालतें नैतिकता को आईपीसी से तौल रही हैं. अच्छे-बुरे की सामाजिक-सांस्कृतिक विकास में अर्जित परिभाषा को कठघरे में खड़ा कर दिया गया है. महज इन दो उदाहरणों को आने वाले समय में मूल्य-निर्धारण का शुरुआती ट्रेंड माना जाय तो जेहन में सवाल उठता है कि अखबार अब क्या करेंगे, क्या छापेंगे? किसे सही और गलत बताएंगे और किन पैमानों पर? संपादकगण किसी का हंसता हुआ चेहरा देखकर निर्णय देंगे या हाथ में खंजर देखकर?
कौन तौले बात का वजन?
जिस समाज में हम रहते हैं, वहां आदमी का वजन नापने के लिए उसको नहीं उसकी बात को तौला जाता है. ध्वनियों से अक्षर बनाकर हमने जब भाषा ईजाद की, तो सबसे पहले उसे हमने जबान दी. सामने वाले ने उसे सुना. सुनकर कुछ समझा. माना, कि जो कहा गया है वो ही कहा जाना था. कुछ और नहीं. फिर भाषा के विकासक्रम में हमने झूठ बोलना सीखा. भीतर कुछ, बाहर कुछ और. सामने वाले ने इस फर्क के आधार पर जानना सीखा कि कौन जबान का पक्का है और कौन नहीं.
इसी तरह धीरे-धीरे समाज खालिस और फर्जी, असली और नकली, कथनी और करनी, सही और गलत का भेद करना सीखता गया. इस भेद को बरतने की सलाहियत से तर्क का विज्ञान पैदा हुआ. तर्कशास्त्र ने संकेतों को भी समाहित किया. शारीरिक भंगिमाओं को भी भाषा की जटिल दुनिया में जगह मिली. सच और झूठ को अलगाने की प्रक्रिया जटिल होती गई. फिर भी एक बात मुसलसल कायम रही- आदमी चाहे जो बोल ले, अखबार झूठ नहीं बोलेंगे. आज भी रोजाना लोग किसी बात पर कहते मिल जाते हैं- अखबार में तो पढ़ा था!
छपाई को बमुश्किल 500 साल हुए हैं. जबान की उम्र उससे कहीं ज्यादा है. फिर भी आदमी की जबान का भरोसा समय के साथ जाता रहा है, पर अखबारों का कायम रहा है. इसकी वजह इतनी सी है कि अखबारों का बुनियादी काम बात को तौल कर पाठक के सामने पेश करना था. बात का जितना वजन यानी बात जितनी सच्ची और गहरी, अखबारों में उसे उतनी ज्यादा अहमियत मिलती थी. हलकी बात को हलके में निपटा दिया जाता था. वजन कौन तय करता था? अखबार का संपादक. या संपादक मंडल. इसी से एक पत्रकार का बुनियादी गुण पता चलता है कि जो बात को सही-सही पकड़ ले, वो कायदे का पत्रकार. आज भी समाज में लोग कहते मिल जाते हैं- अरे, आपने तो बात को पकड़ ही लिया!
ये जो बात को समझने, पकड़ने और उस पर मूल्य-निर्धारण की सलाहियत है, समय के साथ समाज में विकसित हुई है. इसका कोई तय पैमाना नहीं है. तय पैमाना लगा देंगे तो मुहावरों और लोकोक्तियों और कहावतों का भट्ठा बैठ जाएगा. हमारी भाषाएं मुहावरों और कहावतों से भरी पड़ी हैं क्योंकि यहां सुन कर याद करने और अगली पीढ़ी तक पहुंचाने की परंपरा मौखिक रही है. इसे हम श्रुति-स्मृति के नाम से जानते हैं. 500 साल का छापाखाना हजारों साल की ज्ञान परंपरा का पासंग भी नहीं है.
एक और समझने वाली बात है कि हमारे यहां जब कभी श्रुति और स्मृति के बीच टकराव पैदा हुआ, स्मृतियों के ऊपर श्रुति को वरीयता दी गई. यानी याद कर के, व्याख्या कर के लिखी गई चीज के मुकाबले प्रत्यक्ष सुन कर रची गई चीज को गुरु माना गया. बोले हुए को सुनना, हमारी सभ्यता और संस्कृति में मूल रहा है. इसी सुनने में मूल्य और न्याय निर्धारण की समूची प्रक्रिया समाई हुई है. छपाई आने के बाद इस समाज ने जाना कि मनुष्य के कान से तेज अखबारों के कान होते हैं, इसलिए हमें अखबारों को सुनना चाहिए और उसके माध्यम से सच को जानना चाहिए.
हमारे अखबारों को अदालत के ऐसे फैसलों पर क्या कोई चिंता नहीं होती? या फिर पत्रकारों का कॉमन सेंस (सहजबोध) समाप्त हो चुका है? एक और उदाहरण देखिए.
सबसे ऊपर हरी पट्टी में लिखा है 'भाजपा की फैक्ट फाइंडिंग कमेटी'. इसे रिपोर्ट करने के साथ अखबार ने यह क्यों नहीं पूछा कि ये क्या बला है? जिस दल की केंद्र में सरकार है; जिसने केंद्रीय एजेंसी सीबीआई को घटना की जांच का जिम्मा सौंप दिया है; जिस घटना की जांच राज्य की एसआईटी कर चुकी है; वहां भाजपा की अपनी तथ्यान्वेषी कमेटी के जांचने का क्या अर्थ निकलता है? यहां कायदे से वैधानिकता की कसौटी पर इस फैक्ट फाइंडिंग कमेटी का कोई मतलब नहीं बनता लेकिन पार्टी का अध्यक्ष इसके आधार पर बयान भी दे रहा है. सीबीआई का क्या कोई अर्थ नहीं रह गया है? आखिर एक सत्ताधारी राजनीतिक दल द्वारा स्वतंत्र जांच को कानूनी वैधता किसने दी?
कहां गई सही-गलत की सामाजिक समझदारी?
अखबारों में बैठे संपादकों को यह गुत्थी समझ में शायद न आए, लेकिन पाठक तीनों खबरों को मिलाकर पढ़ें तो शायद कुछ स्पष्ट हो. सत्ताधारी पार्टी बीजेपी के नेता दंगा भड़काने के केवल इसलिए अपराधी नहीं हैं क्योंकि वे मुस्कुरा रहे थे; सत्ताधारी पार्टी का मुखिया रह चुका इस देश का गृहमंत्री झूठ बोलने का अपराधी इसलिए नहीं है क्योंकि लोक प्रतिनिधित्व कानून के तहत वादों से वह कानूनन मुकर सकता है; और सत्ताधारी पार्टी केंद्रीय अन्वेषण एजेंसी के समानांतर पार्टी स्तर पर एक जांच कमेटी दंगास्थल पर भेज सकती है क्योंकि इस पर अदालतों का विधिक पैमाना अब तक लागू नहीं हुआ है.
कुल मिलाकर नैतिकता और सहजबोध के आधार पर जो कुछ भी गलत है, उसे कानून के हस्तक्षेप या अ-हस्तक्षेप से सही ठहराया जा रहा है. इन तीनों ही मामलों में हजारों साल पुराने इस समाज का सामूहिक विवेक घास चरने चला गया है.
समाज, संस्कृति, सामूहिक विवेक, नैतिकताबोध और इतिहास से कटने का यही हश्र होता है. जिन अखबारों को बोला हुआ सुनने और सुनाने की जिम्मेदारी इस समाज ने दी थी, वे अपने कान से सुनना अब बंद कर चुके हैं. सुने हुए को अपने भेजे में वे पका नहीं रहे. बात कहीं से निकल रही है, कहीं और पक रही है और अखबारों का काम बस बाहरी निर्णय सुनाना ही बचा है. इसी का नतीजा है कि बलिया के जिन पत्रकारों ने परचा लीक की खबर छापी और अपने नैतिकताबोध में परचा लीक होने की खबर अधिकारियों को दी, पलट कर उन्हीं के ऊपर मुकदमा लाद दिया गया.
बलिया की इस घटना को पत्रकारों पर प्रशासनिक हमले के घिसे-पिटे मुहावरे में आप कभी नहीं समझ पाएंगे. ऐसी घटनाएं होती रहेंगी. इस परिघटना को जड़ से समझना है तो उन कोनों-अंतरों में झांकिए जहां इस समाज के सहज-सामूहिक विवेक व मूल्य-निर्णय का कानूनी धाराओं में अपहरण किया जा रहा है और सच को समझने व बरतने के हमारे सहजबोध का लतीफ़ा बनाकर रख दिया गया है. हमारे अखबार अगर अब भी अपने कान दुरुस्त नहीं करेंगे और सही-गलत की स्वाभाविक समझ के बजाय फरमानों का मुंह ताकेंगे, तो इस मुल्क की जनता साल के 365 दिन बेवकूफ बनती रहेगी. ऐसी बेवकूफियों का अंतिम सिला वही होगा, जैसा एक शायर ने कहा है:
पुश्त पर कातिल का खंजर सामने अंधा कुआं
बच के जाऊं किस तरफ अब रास्ता कोई नहीं