क्या खैरात बांटना ही लोक कल्याणकारी राज की अवधारणा है?

लोग पैसे के लिए या फिर मुफ्त में कुछ पाने के लिए मरने से भी नहीं चूकते, तो पंजाब या देश के अन्य भागों में जब जनता खैरात बांटने वालों को अपना अधिनायक चुन लेती है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

WrittenBy:हिमांशु एस. झा
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ज्ञात इतिहास में भारत सबसे अधिक विकास मनरेगा के आने के बाद से कर रहा था क्योंकि लोगों के पास खर्च करने के लिए पर्याप्त धन की आमदनी हो रही थी. ली क्वान यु ने बिजली या पानी बिल माफ करने के बदले लोगों की बचत को उनकी कमाई का 45 फीसदी तक कर दिया जिसका फल यह निकला कि सिंगापुर में लोग कार्य करने के लिए प्रेरित हो रहे थे. वहीं मलेशिया अपनी मलय संस्कृति को लेकर अंधेरे और गरीबी की गर्त में डूबता गया.

लोककल्याणकारी राज्य के रूप में मुफ्त में सिर्फ शिक्षा और स्वास्थ्य की वकालत मार्क्स करते हैं. वह कहते हैं, "सभी बच्चों की सार्वजनिक विद्यालयों में मुफ्त शिक्षा. अपने वर्तमान रूप में कारखानों में बच्चों के काम का अंत." वह श्रम दायित्व की बात करते हैं न कि मुफ्त अन्न की. जब श्रम दायित्व की बात आती है तो वह कहते हैं, "प्रत्येक के लिए सामान श्रम–दायित्व, औद्योगिक सेनाओं की स्थापना, विशेषकर कृषि के लिए. कृषि का उद्योग के साथ संयोजन." वह कहीं भी लोगों को कर्महीन बनाने की बात नहीं करते हैं.

रघुराम राजन और लुई जिंगल्स अपनी पुस्तक सेविंग कैपिटलिज्म फ्रॉम द कैपिटलिस्ट्स में लिखते हैं कि यदि गरीब को मुफ्त में जमीन सिर्फ इस बात के लिए सरकार द्वारा दे दी जाए जिससे कि उसकी वित्तीय सहायता होगी तो यह गलत है. वह कहते हैं, "अब जबकि इस विचार में पर्याप्त योग्यता है, यह कोई रामबाण इलाज नहीं है. यदि गरीब किसी और की निजी संपत्ति पर कब्जा कर रहे हैं या, जैसा कि आमतौर पर विकासशील देशों में होता है, सरकारी भूमि या फिर अतिक्रमण को वैध करने से शेष भूमि पर सभी कब्जा करने के लिए अपने आप को स्वतंत्र मान बैठेंगे, जिससे संपत्ति की व्यापक असुरक्षा हो सकती है, इसके विपरीत प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है."

अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी, जो लोक कल्याणकारी राज्य को मानने वाले हैं, वह भी मानते हैं कि गरीबी किन्हीं संरचनात्मकता के संकट की उपज नहीं है बल्कि वह एक मानसिक अवधारणा है, जिसे व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा से खत्म किया जा सकता है. उन्होंने अपनी पुस्तक पुअर इकोनॉमिक्स में इसे अच्छे से समझाया है. यही बात जब युवा राहुल गांधी ने 2014 के आम चुनाव में लोगों के सामने कही तो कुमार विश्वास ने उन्हें पप्पू बना दिया. क्या प्रतिस्पर्द्धा मुफ्त माल से मिलेगी या फिर अनाज के लिए उद्यम करने से, जैसा कि मार्क्स ने कहा?

कभी सोचा है कि यह मुफ्त में जो लोककल्याणकारी राज्य के नाम पर भीख देकर अधिनायकवाद को जन्म दिया जाता है उसका खर्च कौन वहन करता है. सबसे ज्यादा उस मुफ्त को खाने वाले. मन में प्रश्न आया होगा- कैसे? समझते हैं. दिल्ली में जब अरविंद केजरीवाल ने 2014-15 में सत्ता संभाली थी तो उसका बजट 30940 करोड़ रूपए का था. इस साल 2022 का बजट दिल्ली सरकार ने 69000 करोड़ रुपए कर दिया जो सात साल में दुगुना से अधिक हो गया. समर्थकों के लिए खुशी से लहालोट होने वाली बात है, लेकिन कभी सोचा कि यह 69000 करोड़ रुपए आएंगे कहां से. उत्तर है- कर से. जी हां, दिल्ली सरकार ने अपने करों में बेतरतीब इजाफा किया है खैरात बांटने के लिए.

2014-15 में बजट 30940 करोड़ रूपए का था और 2021-22 में दिल्ली सरकार कर से 43000 करोड़ रूपए उगाही की बात कर रही है- यानी 13000 करोड़ ज्यादा. यह कर कौन देगा? वही गरीब जनता क्योंकि यह कॉर्पोरेट टैक्स नहीं है. दिल्ली सरकार कहती है, "वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए 69000 करोड़ रुपए के प्रस्तावित बजट के लिए 43000 करोड़ रुपए कर राजस्व से, 1000 करोड़ रुपए गैर कर राजस्व से, 325 करोड़ रुपे केंद्रीय करों में हिस्सेदारी से, 9285 करोड़ रुपए लघु बचत ऋण से, 1000 करोड़ रूपए पूंजीगत प्राप्तियों से, 6000 करोड़ रूपए जीएसटी प्रतिपूर्ति से, 2088 करोड़ रुपए केंद्र प्रायोजित योजना से. केवल 657 करोड़ रुपए भारत सरकार की अनुदान सहायता से और शेष राशि, प्रारंभिक शेष (ओपनिंग बैलेंस) से जुटाई जाएगी."

इस तरह की मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने से सरकार तेल और गैस के दामों में बेतहाशा वृद्धि करती है. वह उद्योगों को दिए जाने वाली बिजली की दर को बढ़ा देती है जिससे वस्तुएं महंगी हो जाती हैं और उसका भार भी जनता के ऊपर ही आता है जिससे मुद्रास्फीति में बेतहाशा वृद्धि होती है फलस्वरूप गरीब और गरीब हो जाते हैं. असमानता बढ़ती जाती है. एक रिसर्च के मुताबिक भारत में गरीबी रेखा से नीचे के लोगों में 127 फीसदी की बढ़त 2021-22 में हुई है जिसके पीछे एक ही कारण है और वह है बेरोजगारी, जो लोक कल्याणकारी राज्य को गलत परिभाषित करने के कारण हुई है.

न्याय जैसी योजनाएं जो गरीबों के खाते में सीधे नगद ट्रांसफर की बात करती हैं वह भी गलत था जो संयोग से धरातल पर नहीं आ सका. भारत की सरकार निवेश पर ध्यान देती है किन्तु बचत के लिए हतोत्साहित करती है जिसका एक जीता-जागता उदहारण पुरानी पेंशन स्कीम को खत्म करना है. असली लोक कल्याणकारी योजना है लोगो को बचत के लिए प्रोत्साहित करना, सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना न कि मोती की माला गले से तोड़कर खैरात बांटना.

भले ही जनता जनार्दन अभी लालच में मुफ्तखोरी का मजा ले रही है लेकिन भविष्य के लिए खुद को पंगु कर रही है. ऐसी सरकार शक्ति को केंद्रीकृत कर जनता की स्वतंत्रता का उल्लंघन करने से भी नहीं चूकती है जो धीरे-धीरे परिलक्षित भी हो रहा है.

(साभार- जनपथ)

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