गरीबी में और धंस गए भारत की बदहाली का चेहरा हैं फनस पुंजी, जिनकी अगली पीढ़ियां भी उन्हीं की तरह गरीबी में जी रही हैं.
मरुस्थलीकरण का फैलना
दरअसल, कालाहांडी की कहानी अच्छे संसाधनों और खराब प्रबंधन की कहानी है. ब्रिटिश यात्रियों के आधिकारिक रिकॉर्ड और रिपोर्टें बताती हैं कि कालाहांडी में पहला भीषण सूखा 1898 में दर्ज किया गया था.
सूखे की बढ़ती आवृत्ति के साथ इसका 125 साल का इतिहास, एक स्थायी और सहभागी पारिस्थितिकी के विनाश का इतिहास है.
19वीं सदी के यात्रियों ने कालाहांडी की धरती को ‘जगलों और पहाड़ियों का समूह' कहा है, जिसके चारों ओर की धरती बंजर हो गई है. 19वीं सदी के अंत में बर्फ और पाला यहां उतने ही सामान्य हो गए थे, जितने कि 21वीं सदी में कैक्टस और रेत.
वनों की कटाई और पारंपरिक टैंक से सिंचाई की व्यवस्था के ढहने के चलते इस क्षेत्र में मरुस्थलीकरण हुआ है. भारत के नवीनतम मरुस्थलीकरण एटलस में, नुआपाड़ा को ऐसे क्षेत्र के रूप में पहचाना गया है, जिसे असिंचित भूमि की ऊपरी मिट्टी और नमी खोने के कारण उच्च भूमि क्षरण का सामना करना पड़ा हैं.
यह क्षरण काफी तेज था और इसका असर पहले ही देखा जा सकता था. 1946 में कालाहांडी की पारंपरिक प्रणालियां यहां की 38,684 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई करती थी. 1970 में यह इलाका 80 फीसदी घटकर 8,007 हेक्टेयर रह गया.
आज की तारीख में, ऐसे टैंक मुश्किल से कुछ 100 हेक्टेयर में सिंचाई करते हैं क्योंकि बड़े पैमाने पर सिंचाई परियोजनाओं का वादा किया गया है. ऐसे में कालाहांडी असहाय होकर देखता रह जाता है और सारा पानी बह जाता है. वह भी तब, जब यहां पंजाब की तुलना में अधिक वर्षा होती है- जो औसतन 1,200 मिमी है.
यहां के अधिकांश लोगों के लिए जंगल और खेती, आजीविका के दो मुख्य स्रोत थे. ये दोनों ऐसे स्रोत हैं, जिनसे ज्यादा लाभ नहीं होता है. भरण-पोषण के लिए यहां के लोगों को कुछ मौसमों में पलायन भी करना पड़ता है. खेती से होने वाली कम आमदनी के कारण ऐसे लोगों की तादाद में बढ़ोत्तरी देखी गई है.
2020 में जब केंद्र सरकार ने कोविड-19 के चलते लॉकडाउन लगाया था तो जिले के आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक, 70,000 से ज्यादा असंगठित मजदूर इस जिले में लौटे थे. जिले की दीर्घजीवी गरीबी की वजहों पर शोध करने वाले यहां के खरियार कॉलेज के रिटायर्ड प्राचार्य फनिंदम देव के मुताबिक हर साल जिले से 80, 000 से लेकर एक लाख लोग आजीविका के लिए पलायन करते हैं.
फनस की जिंदगी को करीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजित पांडा के मुताबिक, "जमीन का एक छोटा टुकड़ा आखिर कितने लोगों को रोजी दे सकता है. संकट के समय में, यह रास्ता बंधुआ मजदूरी की ओर जाता है. जिले में कई लोग उसके दुष्चक्र में फंस जाते हैं, उनमें फनस और उसका बेटा भी शामिल हैं."
2020 में प्रकाशित नुआपाड़ा डिस्ट्रिक्ट हैंडबुक, 2011 की जनगणना के आंकड़ों को पेश करती है, जिसमें जिले के रोजगार संकट के बारे में बताया गया है. 2011 में, जिले में किसानों की तुलना में ज्यादा कृषि-मजदूर थे. यहां के कुल 30 हजार मजदूरों में 9,400 किसान थे, जबकि 14,000 कृषि-मजदूर थे. खरिहार विकास खंड में किसानों की तुलना में दोगुने कृषि-मजदूर थे. इसी खंड में फनस का गांव आता है.
राजीव गांधी जब फनस के गांव में आए थे, तब फनिंदम देव करीब के गांव में रहते थे. प्रधानमंत्री के दौरे के बाद उन्होंने फनस के जीवन पर नजर रखी और पाया कि पूरे जिले की कहानी एक सी है.
वह आगे कहते हैं, "कुछ लोगों तक कल्याणकारी कार्यक्रम पहुंचने से जिले का संकट कम हुआ है लेकिन यह वास्तविक विकास नहीं है. पलायन जहां पहले एक संकट-काल की प्रतिक्रिया थी, वहीं अब यह एक स्थापित आजीविका स्रोत बन गया है. अगर सूखे के चलते पहले फनस को काम की तलाश में निकलना पड़ रहा था, तो आज भी उन्हें और उनके परिवार को ऐसा ही करना पड़ रहा है. जिले में हजारों लोग ऐसा करते हैं."
हमेशा से खतरे में रही जिंदगी
फनस, गरीबी के जाल में ठीक उसी तरह से फंसी, जिस तरह से कालाहांडी फंसता गया. पहले इलाके का पारिस्थितिक क्षरण हुआ, जिसकी परिणति एक के बाद एक पड़ने वाले सूखे के रूप में हुई. अंततः इसके चलते आजीविका के पारंपरिक स्रोत खत्म होते चले गए.
फनस के पास करीब तीन एकड़ जमीन थी, लेकिन उन्हें याद नहीं आता कि उनके पति ने कभी खेती की हो, क्योंकि सूखे के चलते ऐसा कर पाना मुमकिन ही नहीं था. वह कहती हैं, "मुझे याद है कि चावल के बदले मुझे सालों तक काम करना पड़ता था." प्रधानमंत्री के दौरे के एक दशक के बाद, 1995 में, सरकार ने उन्हें पास की आंगनबाड़ी में एक रसोइए की संविदा नौकरी दी. वह फिलहाल मासिक मानदेय के रूप में 3,500 रुपए कमाती हैं.
1990 तक, उनका बेटे जगबंधु पुंजी ने जो उस समय 15 साल का था - पहले अपनी मां के साथ आस-पास के गांवों में और फिर छत्तीसगढ़ में पलायन करना शुरू कर दिया. उनकी दो बेटियों ने भी उनका साथ देने के लिए खेत-मजदूर के रूप में काम किया. महीनों तक वे गांव से बाहर रहे.
पड़ोसी जिले बलांगिर के भालुमुंडा गांव में जगबंधु को 30 रुपए महीने पर काम करना पड़ता था. अजित पांडा कहते हैं कि जगबंधु बंधुआ मजदूर के रूप में काम करता था. यह एक अंतहीन कहानी थी, जिसमें फनस और उसके परिवार को खाना जुटाने के लिए हर रोज काम करना पड़ता था. किसी इमरजेंसी के आने पर उन्हें निजी स्रोतों से कर्ज लेना पड़ता था, जिससे वे कर्ज के जाल में फंस जाते थे.
तीन पीढ़ियों में, फनस गरीबी की खाई में फिसलती गई हैं. उनके बेटे और पोते पहले से ही कर्ज के जाल में फंस चुके हैं. यह जाल सालों पहले तब बिछाया गया था, जब जगबंधु को खेती से लगाव था. उनके पास अकेली संपत्ति वह जमीन है, जहां अभी वे रहते हैं. उन्हें डर है कि कहीं इसे भी उन्हें खोना न पड़े.
जगबंधु ने 2004 में पलायन का रास्ता छोड़ दिया और फैसला किया कि वह अपनी तीन एकड़ की जमीन में खेती करेंगे. वह कहते हैं, "जब मैं छत्तीसगढ़ में बंधुआ मजदूर था, तब मैंने खेती के बारे में सीखा था." वह जीवित रहने के लिए दूसरों पर निर्भर होने से मुक्त होने की भावना को याद करते हुए कहते हैं, "मेरी मां के वेतन ने हमें सुरक्षा का कुछ एहसास दिया. सरकार से हमें जो सस्ता चावल मिलता है, उससे हमें कुछ दिनों के लिए भोजन मिलता है. वैसे भी, खेती का फैसला सिर्फ एक और जोखिम था, जिसे हम भूख के चलते पहले से उठाते आ रहे थे."
शुरुआत में उन्होंने खुद के उपभोग के लिए धान और बेचने के लिए सब्जियां लीं. हालांकि बार-बार के सूखे और मरुस्थलीकरण ने लाभदायक कमाई को उनके लिए असंभव बना दिया. एक सरकारी योजना के तहत उन्होंने अपनी जमीन पर एक कुआं खोदा लेकिन कुछ ही महीनों में वह सूख गया. वह बताते हैं, "मेरे लिए निवेश की लागत वहन करना भी मुश्किल होता गया. आखिरकार, मुझे फिर से दिहाड़ी मजदूर का काम करने के लिए बाहर जाना पड़ा"
(साभार- डाउन टू अर्थ)