दुनिया भर में 2.5 अरब लोग पीने के पानी और घरेलू आवश्यकताओं के लिए भूजल पर निर्भर हैं.
राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान, रुड़की और ब्रिटिश भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा पंजाब में सतलुज एवं ब्यास नदी तथा शिवालिक पहाड़ियों के मध्य स्थित नौ हजार वर्ग किलोमीटर विस्तार वाले बिस्त-दोआब क्षेत्र में भूजल के प्रदूषण के स्तर का परीक्षण करने के बाद बताया गया कि भूजल में विद्युत चालकता एवं लवणता का स्तर चिंताजनक रूप से बढ़ रहा है. भूजल में सिलेनियम, मोलिब्डेनम और यूरेनियम की घातक उपस्थिति है. इस अध्ययन ने सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि मानव-जनित एवं भू-जनित घातक तत्व तलछटीय एक्विफर तंत्र से होकर गहरे एक्विफरों में प्रविष्ट हो रहे हैं जिससे भूजल प्रदूषित हो रहा है.
गंगा बेसिन के निचले हिस्सों के डेल्टा क्षेत्र में भूजल स्रोतों में आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रदूषण प्रायः देखा जा रहा है. औद्योगिक कचरे का सही ढंग से उपचार न करने पर मृदा तो नष्ट हो ही रही है, इसके कारण खाद्य चक्र में कैडमियम जैसे घातक तत्व भी प्रवेश कर रहे हैं, जैसा हमने बंगाल के डेल्टा क्षेत्रों में होते देखा है.
औद्योगिक और व्यावसायिक संस्थानों में उपयोग में लाए गए जल की रीसाइक्लिंग के लिए अनेक प्रावधान बनाए गए हैं किंतु खर्चीली तकनीकों के कारण प्रायः औद्योगिक एवं व्यावसायिक अपशिष्ट को बिना उपचारित किए दूषित जल को नदियों में छोड़ने के मामले अक्सर देखने में आते हैं और बिना किसी कठोर कार्रवाई के औद्योगिक इकाइयां बच भी निकलती हैं.
फरवरी 2021 में साइंस एडवांसेस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार भूजल की आवश्यकता से अधिक दोहन के कारण यदि उसकी उपलब्धता समाप्त हो जाती है और अन्य स्रोतों से सिंचाई की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो पाती है तो राष्ट्रीय स्तर पर जाड़े की फसलों के उत्पादन में 20 प्रतिशत की गिरावट हो सकती है जबकि गंभीर रूप से प्रभावित क्षेत्रों में यह गिरावट 68 प्रतिशत तक होगी. यदि नहरों के माध्यम से सिंचाई द्वारा भूजल के जरिए होने वाली सिंचाई को प्रतिस्थापित भी कर दिया जाए तब भी राष्ट्रीय स्तर पर फसल उत्पादन में 7 प्रतिशत और गंभीर रूप से प्रभावित क्षेत्रों में 24 प्रतिशत की कमी आ सकती है.
नहरों से सिंचाई की अपनी सीमाएं हैं. भूजल हर जगह उपलब्ध है और विकेन्द्रित सिंचाई व्यवस्था को सुलभ बनाता है जबकि नहरों से जुड़ी परियोजनाओं का वृहद स्वरूप इनके हर स्थान तक पहुंचने में बाधक है. फिर नहरों से सिंचाई मानसून पर आश्रित होगी जो जलवायु परिवर्तन के कारण वैसे ही अनिश्चित व्यवहार कर रहा है.
प्रख्यात भूजल गवर्नेंस विशेषज्ञ जेनी ग्रोनवाल के अनुसार भूजल का उपयोग और दुरुपयोग दोनों ही स्थानीय और सीमित प्रभाव वाले मुद्दे हैं. केवल भारत में ही 20 लाख पम्पसेट के माध्यम से ट्यूबवेल से भूजल का दोहन किया जाता है. इन ट्यूबवेलों की मिल्कियत छोटे किसानों के पास है. इस परिस्थिति केंद्र से बनाई गई कोई भी नीति देश के सिंचाई व्यवहार में परिवर्तन नहीं ला सकती.
विशेषज्ञों का मानना है कि भूजल संरक्षण के हमारे प्रयास बहुआयामी होने चाहिए. कई विशेषज्ञ उत्तर भारत में चावल और गेहूं की खेती के रकबे में 20 प्रतिशत की कमी लाने का सुझाव देते हैं और चावल एवं गेहूं जैसी बहुत ज्यादा जल की मांग रखने वाली फसलों के स्थान पर ऐसी फसलें लगाने का सुझाव देते हैं जो उतने ही भूजल का उपयोग करें जितने का पुनर्चक्रीकरण हो सकता है. अर्धशुष्क, शुष्क अथवा ऊपरी क्षेत्रों में चावल एवं गेहूं के स्थान पर बाजरे की खेती की जा सकती है. इनका यह भी सुझाव है कि सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर्स और ड्रिप इरीगेशन का उपयोग हो तथा नहरों की कार्यक्षमता बढ़ाई जाए.
कुछ विशेषज्ञ यह मानते हैं कि राष्ट्रीय नदी जोड़ो परियोजना के काम में तेजी लाई जानी चाहिए जिससे अधिक जल उपलब्धता वाले क्षेत्रों से जल की कमी वाले इलाकों की ओर नदियों का पानी ले जाकर सिंचाई की सुविधा का विस्तार संभव हो सकेगा.
फसल चक्र परिवर्तन का प्रश्न जितना सरल दिखता है उतना है नहीं. खाद्यान्न उत्पादन में कमी लाने और ग्लोबल नॉर्थ की जरूरतों के लिए फसल उत्पादन करने का दबाव हम पर विकसित देशों द्वारा निरंतर डाला जा रहा है और कोई आश्चर्य नहीं कि कृषि के बाजारीकरण के हिमायती धान और गेहूं का रकबा कम करने की सिफारिश करते नजर आएं. देश में खाद्यान्न की आवश्यकता और किसानों के हितों को ध्यान में रखकर फसल चक्र में परिवर्तन किया जाना चाहिए. आधुनिक उपभोगवादी सभ्यता ने जल के साथ मनुष्य के सदियों से चले आ रहे दोस्ताने को भंग कर दिया है, हाल के वर्षों में मनुष्य ने जल को उपभोग की वस्तु मानकर इसका निर्ममता से दोहन किया है.
भूजल का पुनर्चक्रण बड़ी सरलता से किया जा सकता है. स्थान विशेष की हाइड्रोलॉजी को ध्यान में रखकर रिचार्ज पिट, रिचार्ज ट्रेंच, रिचार्ज ट्रेंच सह बोरवेल, तालाब, पोखर, सूखा कुआं, बावली आदि निर्मित किए जा सकते हैं. सतही जल के संग्रहण की विधियां अपनाई जा सकती हैं. छोटे-छोटे चेक डैम भी बनाए जा सकते हैं. नवनिर्मित भवनों, कालोनियों, कार्यालयों तथा औद्योगिक इकाइयों में जल के पुनर्चक्रण की व्यवस्था के लिए नियम बनाए गए हैं किंतु इनका पालन कम उल्लंघन अधिक होता है.
विशेषज्ञों का अभिमत है कि जनजागरूकता और समुदाय की भागीदारी के बिना भूजल की रक्षा असंभव है. हमें अपने घर, मोहल्ले, गांव, कस्बे, शहर से शुरुआत करनी होगी किंतु इसका आशय यह नहीं है कि सरकार का भूजल संरक्षण के प्रति कोई उत्तदायित्व नहीं है. सरकार को अंधाधुंध औद्योगिक विस्तार पर अंकुश लगाना होगा और भूजल के अनुचित दोहन तथा प्रदूषण के लिए उत्तरदायी व्यक्तियों पर कठोर कार्रवाई करनी होगी. देश में अनेक व्यक्तियों और संस्थाओं ने अपने स्तर पर भूजल की रक्षा के लिए अनुकरणीय कार्य किया है. सरकार को इनके अनुभव का लाभ उठाना चाहिए.
लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.
(साभार- जनपथ)