हर इतिहास के काले व सफेद पन्ने होते हैं, कुछ भूरे व मटमैले भी. वे सब हमारे ही होते हैं. ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बाद और कितनी फाइलें खोलेंगे?
कश्मीर में जगमोहन का यह दूसरा कार्यकाल पहले से भी ज्यादा बुरा रहा. बुरा इस अर्थ में नहीं कि वे कश्मीर को संभाल नहीं सकें बल्कि इस अर्थ में कि वे कश्मीर को भाजपा के दिए एजेंडे के मुताबिक सांप्रदायिकता से सराबोर कर गए. वे जगमोहन ही थे जिन्होंने मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला को बर्खास्त करवाया; वे जगमोहन ही थे जिन्होंने आतंकियों के लिए कश्मीर को चारागाह बनने से रोकने के लिए कुछ खास नहीं किया क्योंकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भाजपा की रणनीति थी; वे जगमोहन ही थे जिन्होंने डरे-घबराए कश्मीरी पंडितों को हिम्मत व संरक्षण देने के बजाए उन्हें कश्मीर छोड़ने की सलाह भी दी और सुविधा भी. कश्मीरी पंडितों को पलायन के बाद कितनी ही सुविधाओं का लालच दिखाया गया. अपने लिए नाम व नामा दोनों बटोरने का हिसाब भी पंडितों के पलायन के पीछे था. पलायन हमेशा डर, लालच और कायरता से पैदा होता है. आज कश्मीरी पंडित छलावे का वही जहरीला घूंट पी रहे हैं.
‘द कश्मीर फाइल्स’ वालों को यह सारा इतिहास दिखाई नहीं दिया कि यह सब दिखाना उनके एजेंडे में था ही नहीं? इतिहास के आकलन का दूसरा नाम तटस्थ ईमानदारी है जिसका इस प्रहसन से कोई नाता नहीं है. यदि होता तो फिल्म को यह कहना ही चाहिए था कि 1990 में कश्मीरी पंडितों के साथ-साथ अनेक मुसलमान कश्मीरी भी मारे गए. एक-दो नहीं, अनेक! फिल्म नहीं बताती है कि मुहम्मद यूसुफ हलवाई कौन था और क्यों मारा गया?
जीएम बटाली पर घातक हमला क्यों हुआ और फिर गुलशन बटाली कैसे मारे गए? एक मोटा अनुमान बताता है कि कश्मीर में कोई 25 हजार मुस्लिम कश्मीरी मारे गए तथा 20 हजार मुस्लिम कश्मीरियों ने उस दौर में पलायन किया. मारे गए कश्मीरी पंडितों की संख्या हजार भी नहीं है, पलायन करने वाले कश्मीरी पंडितों की संख्या विवादास्पद होते हुए भी लाखों में है. अगर आम कश्मीरी मुसलमान कश्मीरी पंडितों के खिलाफ होता, तो यह संख्या एकदम उल्टी होनी चाहिए थी. लेकिन सच वैसा नहीं है.
सच यह है कि कमजोर भारत सरकार व जहरीले इरादे वाले राज्यपाल के कारण तब पाकिस्तान ने आतंकवादियों को खूब मदद की और भारत समर्थक तत्वों को निशाने पर लिया. यह हिंदू-मुसलमान का मामला नहीं, भारत समर्थक व भारत विरोधी तत्वों का मामला था. कश्मीरी पंडितों को घाटी में कोई रोकना नहीं चाहता था- पाकिस्तान भी नहीं, जगमोहन के आका भी नहीं. कश्मीरी पंडितों को बचाने कई मुसलमान सामने आए जैसे ऐसी कुघड़ी में हमेशा इंसान सामने आते हैं. और अधिकांश मुसलमान वैसे ही डर कर पीछे हटे रहे जैसे ऐसी कुघड़ी में आम तौर पर लोग रहते हैं. कितने हिंदू संगठित तौर पर मुसलमानों को बचाने गुजरात के कत्लेआम के वक्त आगे आए थे?
सभी जगह मनुष्य एक-से होते हैं. कोई हिम्मत बंधाता है, आचरण के ऊंचे मानक बनाता है तो लोग उसका अनुकरण करते हैं. कोई डराता है, धमकाता है, फुसलाता है तो भटक जाते हैं. यह मनुष्य सभ्यता का इतिहास है. इसलिए खाइयां पाटिए, दरारें भरिए, जख्मों पर मरहम लगाइए, लोगों को प्यार, सम्मान व समुचित न्याय दीजिए. इससे इतिहास बनता है.
हम यह न भूलें कि हर इतिहास के काले व सफेद पन्ने होते हैं, कुछ भूरे व मटमैले भी. वे सब हमारे ही होते हैं. कितनी फाइलें खोलेंगे आप? दलितों- आदिवासियों पर किए गए बर्बर हमलों की फाइलें खोलेंगे? भागलपुर-मलियाना-मेरठ की फाइलें खोलेंगे? गुजरात के दंगों की? सत्ताधीशों की काली कमाई की? स्वीस बैंकों की? जैन डायरी की? जनता पार्टी की सरकार को गिराने की? दीनदयाल उपाध्याय की हत्या की? संघ परिवार को मिले व मिल रहे विदेशी दानों की? भारतीय जनता पार्टी को मिल रहे पैसों की? कोविड-काल में हुए चिकित्सा घोटालों की? वैक्सीन की कीमत के जंजाल की? सीबीआई व दूसरी सरकारी एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल की? कठपुतली राज्यपालों की?
आप थक जाएंगे इतनी फाइलें पड़ी हैं! इसलिए इतना ही कीजिए कि अपने मन के अंधेरे-कलुषित कोनों को खोलिए और खुद से पूछिए : क्या सच्चाई की रोशनी से डर लगता है? डरे हुए लोग एक डरा हुआ देश बनाते हैं. कला का काम डराना व धमकाना नहीं, हिम्मत व उम्मीद जगाना है.