दुनिया में करीब 20 करोड़ से अधिक लोगों का घर उत्तर प्रदेश में है. यदि उत्तर प्रदेश एक देश होता तो चीन, भारत, अमेरिका, इंडोनेशिया और ब्राजील के बाद यह दुनिया के छठे सबसे ज्यादा आबादी वाले देशों में शुमार होता. अब यहां चुनाव हो चुके हैं और दोबारा भारतीय जनता पार्टी जीतकर आई है, लेकिन इस विशाल प्रदेश की किस्मत का रोड़ा कहां अटका है? इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जीबी पंत संस्थान के प्रोफेसर केएन भट्ट से विधानसभा चुनाव के वक्त विवेक मिश्रा से की गई बातचीत पर आधारित यह लेख यूपी के पिछड़ेपन की सामाजिक संदर्भ में व्याख्या पेश करता है-
इतनी बड़ी आबादी वाला यह राज्य अपने समृद्ध संसाधनों के होते हुए भी उन्हें इस्तेमाल करने से चूक गया. इसे हम अर्थशास्त्र की परिभाषा में “रिसोर्स कर्स” कहते हैं. यानी भरपूर संसाधनों के बावजूद उनका उपयोग न हो पाना. यही कारण है कि राज्य में मानव विकास लगातार एक अंधेरे में सफर करता रहा है.
इस विशाल राज्य के 27 जिलों से गंगा बहती और 1,100 किमी से अधिक क्षेत्र कवर करती है. इसका 60 से 70 फीसदी इलाका गंगा-यमुना का दोआब है. इतनी उपजाऊ भूमि शायद ही कहीं उपलब्ध हो, इसके बावजूद राज्य में कृषि क्षेत्र पर नगण्य काम हुआ है.
खासतौर से प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) के जरिए खाद्य उत्पादों के मूल्यवर्धन का एक बड़ा क्षेत्र इस राज्य में अछूता रह गया है. खेती-किसानी यहां की रीढ़ रही, लेकिन इसको किसी भी सरकार में औद्योगिक सहयोग का पोषण नहीं मिल सका.
ऐसा क्यों हुआ कि इतना समृद्ध राज्य बीमारू राज्यों में शीर्ष पर बना हुआ है? इसका जवाब नोबेल विजेता अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल अपनी चर्चित पुस्तक “एशियन ड्रामा : एन इंक्वायरी इनटू द पॉवर्टी ऑफ नेशंस” में देते हैं.
उन्होंने अपनी इस पुस्तक के निष्कर्ष में बताया था कि एशिया में पिछड़ेपन का मूल कारण है कि लोग अपने व्यवहार में बदलाव नहीं लाना चाहते. यह बात उत्तर प्रदेश के लिए एकदम सटीक बैठती है.
मिसाल के तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश को देखिए, जहां आज भी सामाजिक बदलाव मुखर नहीं हुआ है. लोग रूढ़िवादी बने हुए हैं. इसी तरह नैरेटिव की बात करें तो एक गहरा एहसास लोगों के दिलों में है कि “कुछ भी बदल नहीं सकता.”
प्रदेश ने खराब शासन का एक लंबा दौर देखा है. इसलिए यह एक मनी-ऑर्डर इकोनॉमी वाला राज्य बना हुआ है. यदि केरल की तुलना में उत्तर प्रदेश के प्रवासियों (डायसपोरा) को देखें तो आप पाएंगे कि केरल से उच्च दक्ष लोगों ने विदेशों में श्रम के लिए कूच किया, जबकि उत्तर प्रदेश से अकुशल और गरीब वर्ग के लोग मध्य एशियाई देशों में जाते रहे हैं.
इस राज्य की बड़ी आबादी बाहर से आने वाले इन्हीं पैसों पर जी रही है. लोग गांव छोड़कर शहर की तरफ भाग रहे हैं और शहरी झुग्गी-झोपड़ियों वाली बस्ती में बढ़ोतरी हो रही है. एक बड़े मध्यवर्ग का उदय हुआ है और शहर में गरीबी भी बढ़ी है.
दूरदृष्टि का अभाव
उत्तर प्रदेश सरकार ने 1999 में पहली बार मानव विकास रिपोर्ट तैयार करने का निर्णय लिया था. राज्य में मानव विकास पर पहली रिपोर्ट 2005 में आई. उसके बाद यह तय हुआ था कि हर वर्ष रिपोर्ट आएगी.
कई विशेषज्ञों की टीम के साथ कई मानकों पर दूसरी विस्तृत रिपोर्ट 2006-07 में आई थी. इसके बाद से अब तक इस तरह की रिपोर्ट नहीं आई है. केएन भट्ट कहते हैं कि इस रिपोर्ट का हिस्सा रहते हुए जो हमने महसूस किया, उससे अब तक बहुत कम ही राज्य में मानव विकास में बदलाव हो पाए हैं.
यदि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और प्रति व्यक्ति आय की तुलना 2006-07 से 2021 के बीच की जाए तो राज्य में कुछ खास बदलाव नहीं हुआ है.
एक और अहम बात है कि विकास के संचालक संस्थान होते हैं और जब हम संस्थान की बात करते हैं तो यह बहुत व्यापकता में होता है. स्वस्थ परंपरा के लिए इन संस्थानों की अहम भूमिका होती है.
अब भी उत्तर प्रदेश में विकास को अमलीजामा पहनाने के लिए अच्छे संस्थानों और विशेषज्ञों का घोर अभाव है. यदि सामाजिक शोध संस्थानों को देखें तो गिनती के हैं और उन्हें मजबूत करने के लिए कोई पहल नजर नहीं आती.
उत्तर प्रदेश में 1991 के बाद जब निजीकरण का आगमन हुआ तो उसका कोई लाभ राज्य नहीं ले सका. राजनीतिक इच्छाशक्ति और दूरदृष्टि के अभाव ने इस राज्य को बदनसीब बनाया है.
उत्तर प्रदेश से ही अलग होकर जब उत्तराखंड की नींव पड़ी तो तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने वहां औद्योगिक निवेश के लिए सिडकुल की स्थापना की, जिसका असर भी दिखा.
लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसी कोई औद्योगिक योजना नहीं चलाई गई. बीते दो चार वर्षों में विकास की बात और इस दिशा में पहल की बात की गई, लेकिन प्रदेश में औद्योगिक निवेश वाला पर्यावरण अब तक नहीं तैयार किया जा सका है.
1950 में आचार्य विनोबा भावे की तरफ से जब भूदान आंदोलन शुरू किया गया तो दान की गई अधिकांश भूमि अनुपयोगी या खराब थीं. उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार के लिए चकबंदी योजना शुरू की गई, लेकिन प्रभावी तौर पर उसे लागू नहीं किया गया.
ज्यादातर बड़े जमीदारों ने अपनी बड़ी भूमि को अपनों के ही बीच कई टुकड़ों में बांट लिया. वहीं एक बड़ी आबादी बहुत ही बिखरी हुई जोत पर निर्भर हो गई और आज उनकी पीढ़ियों ने उसे इतने हिस्सों में कर दिया है कि एक मकान बन जाने भर की भूमि भी किसी के हिस्से में शायद आए.
इसके अलावा सरकार की ओर से बंजर भूमि के पुनरुद्धार को लेकर भी कदम नहीं उठाए गए. बुंदेलखंड समेत कई हिस्सों में ऐसी भूमि अनुपयोगी हालत में हैं जिसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए था.
एक अहम बात यह भी है, जो खेती को हतोत्साहित करती है कि खेती-किसानी के लिए जो प्राकृतिक संसाधन चाहिए वह भी नियंत्रित कर लिए गए. बांध बना दिए गए और पानी नियंत्रित हो गया.
1960 में नलकूपों की शुरुआत की गई थी और आज देखिए भू-जल की क्या हालत हो गई है. यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि हमारे सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी 14 फीसदी है और रोजगार की निर्भरता 52 फीसदी के आसपास है.
लेकिन हम कृषि क्षेत्र को सतत विकास के मॉडल के साथ जोड़ नहीं रहे हैं. उत्तर प्रदेश में ऐसा प्रयास बहुत ही कम दिखाई देता है. पर्यावरण हितैषी और खाद्य सुरक्षा वाली खेती-किसानी को मूल्यवर्धन का सहयोग जरूर मिलना चाहिए. यह काम इस बड़े प्रदेश की नजरों से ओझल रहा है.