अगर आप कश्मीरी पंडितों की जिंदगी की एक संजीदगी भरी कहानी देखना चाहते हैं, तो यह फिल्म आपके लिए नहीं है.
यह कहने के लिए पर्याप्त प्रमाण है कि इस फिल्म में वामपंथियों को इस तरह से दिखाया गया है कि वे भारत के बारे में हर चीज से घृणा करते हैं, यहां आत्म-घृणा करने वाले हिंदू हैं जो मुसलमानों से प्यार करते हैं. और ऐसे लोगों का अस्तित्व अभिजात संस्थानों पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए नकली उत्पीड़न के नैरेटिव के इर्द-गिर्द घूमता है. मुख्य पात्र के तौर पर उन्होंने एक गुमराह किए जा चुके युवा कश्मीरी पंडित को दिखाकर दर्शकों को लुभाने का प्रयास किया है. यह युवा कश्मीरी पंडित भी इन्हीं वामपंथियों की सेना का सिपाही बनना चाहता है लेकिन उसे मिथुन और हताश हुए पंडितों के समूह द्वारा सही रास्ते पर ले जाया जाता है. यहां पर भी यासीन मलिक के साथ वामपंथी बुद्धिजीवियों के मेलजोल को जानबूझकर बिट्टा कराटे के समर्थन के रूप में चित्रित किया गया है.
कोई भी यह जायज तर्क दे सकता है कि बौद्धिक और राजनीतिक वामपंथ ने कश्मीरी पंडितों के मसले को पर्याप्त तवज्जो नहीं दी, लेकिन फिल्म में इस तरह से उनका चित्रण ट्विटर पर 'अर्बन नक्सल्स' के खिलाफ अग्निहोत्री की शेखी का स्क्रीन संस्करण है. जिसका असलियत से कोई लेना-देना नहीं है.
अग्निहोत्री के विश्वदृष्टि के इन तीन पहलुओं को ही चित्रित करने में अधिकांश फिल्म निकल जाती है: कश्मीरी मुसलमानों, धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं और वामपंथी बुद्धिजीवियों के बारे में उनका दृष्टिकोण, फिल्म की मुख्य प्रेरक शक्ति दर्शकों को कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा के बारे में जागरूक करने के बजाय उन वर्गों को खलनायक के रूप में चित्रित करना है जो देश के भीतर हिंदू राष्ट्रवादियों के दमन के लिए सबसे पहले निशाने पर हैं. कश्मीरी पंडितों की भूमिका केवल बेजान लाशों के तौर पर काम करने की है जिनके द्वारा कुछ विद्रूप दृश्यों को एक साथ पिरोया जा सकता है. अगर आप कश्मीरी पंडितों की जिंदगी की एक संजीदगी भरी कहानी देखना चाहते हैं; कि पलायन से पहले उनकी जिंदगी कैसी थी?; कैसे पलायन ने उनकी सामूहिक पहचान को प्रभावित किया?; वे अपने उत्पीड़न की यादों से कैसे निपटते हैं?; या खुद पर बीती इस त्रासदी के बावजूद कैसे उन्होंने जिंदगी में वापसी कर ली है?; तो यह फिल्म आपके लिए नहीं है.
कई साल पहले इंटरनेट पर दिया गया एक जवाब "कश्मीरी पंडितों का क्या" लगभग एक मजेदार मीम बन गया था. इसके जरिए सरकार किसी भी असुविधाजनक राजनीतिक मुद्दे से लोगों का ध्यान हटाने के लिए कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा का हवाला देती थी. यह फिल्म भी बिल्कुल उस मीम की ही तरह है. यह एक शोषक उपकरण के समान है जो सरकार के लिए असुविधाजनक पॉलिटिकल नैरेटिव्स को गलत ठहराने के लिए कश्मीरी पंडितों के उत्पीड़न के मामले का दुरुपयोग करता है और साथ ही सरकार के पक्ष में पॉलिटिकल नैरैटिव को मजबूत करता है.
कल रात मैंने यह फिल्म देश राजधानी के एक व्यस्त थिएटर में देखी जहां संवाद दक्षिणपंथी नारों और बीच-बीच में आने वाली तालियों की गड़गड़ाहट की आवाज के साथ चल रहे थे. अनुपम खेर की अनुच्छेद 370 को हटाने की मांग के लिए सबसे जोरदार तालियां बजीं. फिल्म के अंत में जैसे-जैसे क्लोजिंग क्रेडिट स्क्रीन पर उतर रहे थे भीड़ में से पुरुषों का एक गुट अपनी सीटों पर बैठे-बैठे एक जूलूस में बदल गया. भारतीय झंडे लहराते हुए उन्होंने कई तरह के परेशान कर देने वाले नारे लगाए: "ठोक के देंगे आजादी", "अफजल को दी है आजादी", "जेएनयू को देंगे आजादी", "जिस हिंदू का खून न खौला खून नहीं वो पानी है", "जय श्री राम", और "हर हर महादेव".
मुझे शक है कि उनमें से कई आरएसएस के कार्यकर्ता थे जो अक्सर सिनेमाघरों में आकर फिल्म देखने आने वाले लोगों जैसा बनने का ढोंग कर रहे थे. और वाकई, थिएटर के बाहर मौजूद एक और भीड़ ने आरएसएस के समर्थन में नारे लगाए: "एटम बम, एटम बम, आरएसएस एटम बम". दर्शकों की भीड़ में से भी कई लोगों ने वापस यही नारे लगाकर उनका जवाब दिया. इस फिल्म के जरिेए बिलकुल यही असर पैदा करने की ही तो कोशिश की गई थी - यहां पर आरएसएस और विवेक अग्निहोत्री एक हैं.
सोशल मीडिया पर इस फिल्म की तुलना शिंडलर्स लिस्ट से की जा रही है. लेकिन शिंडलर्स लिस्ट देखने के बाद एक आम इंसान जो संदेश लेता है, वह है "फिर कभी नहीं" - फिर कभी अल्पसंख्यकों के प्रति किसी तरह की कट्टरता को इस हद तक बर्दाश्त नहीं किया जाएगा कि वह बर्बर हिंसा के तांडव में फट पड़े. लेकिन इस फिल्म से एक साधारण हिंदू को जो संदेश लेने की उम्मीद की जाती है (जैसा कि सिनेमाघरों से आने वाले कई वायरल वीडियो से प्रमाणित है) वह एक दूसरे तरह का "फिर कभी नहीं" है - मुस्लिम, धर्मनिरपेक्षतावादी या वामपंथी पर फिर कभी भरोसा नहीं करना है. ऐसा न हो कि बंगाल, केरल या भारत के किसी दूसरे हिस्से में भी हिंदुओं के साथ फिर वही दोहराया जाए जो कश्मीरी हिंदुओं के साथ हुआ.
यह बहुसंख्यकवादी राजनीति का खंडन और अल्पसंख्यकों पर उसके दुष्परिणामों का वर्णन नहीं है बल्कि उसी बहुसंख्यकवादी राजनीति और अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न को जायज ठहराने की एक कोशिश है - नाजी दुष्प्रचारकों के नैतिक मापदंडों के साथ बनाई गई शिंडलर्स लिस्ट.