विश्लेषण के मुताबिक, सरकार के आकलन के हिसाब से देखें तो कुछ राज्य ऐसे हैं, जिनमें वन के तौर पर दर्ज भूमि का 30 से 35 फीसद हिस्सा गायब हैं.
कार्रवाई का एजेंडा
- पारिस्थितिकी तंत्र भुगतान के माध्यम से बहुत घने और पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण वनों की रक्षा करना- 70 फीसदी या उससे अधिक की छत्रछाया के साथ बहुत घने जंगल, देश के भूमि क्षेत्र का केवल 3 फीसदी हिस्सा बनाते हैं. लेकिन इसका बड़ा हिस्सा (70 फीसदी से अधिक) ‘आदिवासी’ के रूप में वर्गीकृत जिलों में पाया जाता है, जहां देश के सबसे गरीब लोग रहते हैं. इन शेष उच्च गुणवत्ता वाले वनों को पारिस्थितिक सुरक्षा, जैव विविधता संरक्षण और कार्बन-पृथक्करण के लिए हर कीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए.
नारायण ने कहा, "लेकिन यह हमें इस तरह से करना चाहिए कि वनों के करीब रहने वाले समुदायों को वन बचाने के लिए अपनी आजीविका से जो समझौता करना पड़े, उसका उन्हें वाजिब मूल्य मिले. 12वें वित्त आयोग में मुआवजे के भुगतान के लिए जो नियम तय किया गया था, उसे फिर से अलग में लाया जाना चाहिए. नियम के मुताबिक, सही इरादे के साथ प्रभावित समुदायों को पारिस्थितिकी तंत्र भुगतान के रूप में पैसा दिया जाना चाहिए."
- वन विभाग के नियत्रंण में अंदर वाले क्षेत्र की जमीनों पर फोकस करना - ‘गायब’ 2.58 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल को नवजीवन दिया जाए. हालांकि जैसा कि सुनीता नारायण कहती हैं कि यह काम बिना स्थानीय समुदायों की सक्रिय मदद के बिना नहीं किया जा सकता. पेड़ों की कटाई समस्या नहीं है, समस्या वनों को फिर से लगाने और फिर से उगाने में हमारी अक्षमता है.
उनके मुताबिक, "इसीलिए स्थानीय समुदायों की जरूरतों को ध्यान में रखकर गंभीरता से काम करना होगा, जिससे उनके लोगों को केवल घास या छोटे वन-उत्पादों पर ही अधिकार न मिले बल्कि जब पेड़ कटाई के लिए तैयार हो जाएं तो उन्हें काटने और बेचने का हक भी इन लोगों को दिया जाए."
वनों के बाहर के पेड़ों पर लाइसेंस राज खत्म करना- नारायण के मुताबिक, अच्छी खबर यह है कि लोग अपनी जमीन पर, घर के पिछवाड़ों में पेड़ लगा रहे हैं लेकिन बुरी खबर यह है कि यह सब विपरीत परिस्थितियों में हो रहा है. उन्होंने कहा, "आज काफी ज्यादा प्रतिबंधात्मक परिस्थितियों में, किसी पेड़ का गिरना सचमुच सही मायनों में एक अपराध है, भले ही आपने इसे अपनी जमीन पर लगाया हो."
आईएसएफआर 2021 के मुताबिक, देश में बांस के 53,336 मिलियन झुरमुट हैं. लेकिन तथ्य यह है कि अब जबकि इसे घास के रूप में वर्गीकृत कर दिया गया है और ये इंडियन फॅारेस्ट एक्ट, 1927 के बाहर हैं, इसके बावजूद उन लोगों को इन्हें बेचने का हक नहीं है, जो इनका पौधारापण करते हैं.
विश्लेषण के मुताबिक, "कुल मिलाकर देश के वन अच्छी हालत में नहीं हैं. वनों में वृद्धि शेखी बघारने लायक नहीं है, बल्कि यह इतनी भी नहीं है कि जिस पर ध्यान देना चाहिए. हमारा फोकस ‘गायब’ वनों पर होना चाहिए, जो वास्तव में चिंता का सबब है. वरना हमारे वन केवल कागजों पर रह जाएंगे, जमीन पर नहीं."
(डाउन टू अर्थ से साभार)