मीडिया बिरादरी समेत कई दूसरे तबकों को झकझोर देने वाली ये मौत बहुत से लोगों के लिए एक न्यूज़ एजेंसी के उत्थान और पतन की कहानी बन गई है.
न्यूज़लॉन्ड्री ने शिकायत की जो भी प्रतियां देखी उनके अनुसार अजय गुप्ता सबसे पहले राजस्थान के श्रम विभाग गए थे. सितंबर 2018, में श्रम अदालत ने यूएनआई को श्री गुप्ता के वेतन की कुल बकाया राशि को नौ प्रतिशत ब्याज समेत लौटाने का आदेश दिया. लेकिन एजेंसी इस मामले को लेकर 2019 में उच्च न्यायालय में चली गई और माननीय उच्च न्यायालय ने एजेंसी की याचिका खारिज कर दी. इसके साथ ही 2021 में श्रम अदालत ने एजेंसी के मैनेजमेंट के खिलाफ अदालत की अवेहलना का आदेश जारी कर दिया. श्री गुप्ता का कहना है कि उन्हें आज भी करीब 10 लाख रुपए के बकाए का भुगतान नहीं किया गया.
एडिटर इन चीफ श्री कौल ने बताया कि मैनजमेंट बाकी लोगों के साथ एक आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट के लिए कोशिशें कर रहा है. "अजय गुप्ता के साथ भी इस मसले पर बातचीत जारी है और हमें उम्मीद है कि जल्द ही या थोड़े और वक़्त में ये मामला भी निपट जायेगा," उन्होंने कहा.
'हद दर्जे की लापरवाहियां' और सब्सक्रिप्शन्स खो देना
लेकिन हालात इतने खराब कैसे हुए, वो भी एक ऐसी न्यूज़ एजेंसी के जिसे एक वक्त प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया का प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखा गया और जिसने सबसे पहले राजीव गांधी की हत्या की खबर दी थी?
1961 में एक अंग्रेजी न्यूज़ एजेंसी के तौर पर शुरुआत करने वाली यूएनआई ने आने वाले सालों में कुछ दूसरी भाषाओं में भी सेवाएं देना शुरू की. अनेक मीडिया घराने इसे सब्सक्राइब करते रहें और ये सिलसिला यूं ही जारी रहा. यूएनआई के पूर्व ब्यूरो चीफ डीजे वॉल्टर स्कॉट के अनुसार इसकी आय अखबारों, टीवी चैनलों के सब्सक्रिप्शन से आती है और एजेंसी का मैनेजमेंट अलग-अलग अखबारों से जुड़े बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के जरिए किया जाता है.
दूसरी न्यूज़ एजेंसियों की तरह यूएनआई अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसियों और भारतीय मीडिया के बीच एक पुल का काम करता है. "द एसोसिएटेड प्रेस और रायटर्स का यूएनआई और पीटीआई के साथ एक करार है, जिसमें हर चार साल में एक बार अदला-बदली होती है. हालांकि भूमंडलीकरण के बाद अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की पहुंच सीधे-सीधे भारतीय मीडिया तक हो गई है, यह कारण भी न्यूज़ एजेंसियों की अहमियत को कम करने के लिए जिम्मेदार है," 2012 में यूएनआई छोड़ने वाले वॉल्टर स्कॉट ने बताया. स्कॉट ने यह भी बताया कि यह एजेंसी उस वक्त फली-फूली जब स्थानीय भाषा के मीडिया घराने भारत के सभी कस्बों और शहरों में पत्रकार रखने का खर्च नहीं उठा सकते थे.
इसके बाद आये तूफानी झटके.
हर महीने 13-15 लाख रुपए का भुगतान करने वाले द हिंदू जैसे बड़े और अहम सब्सक्राइबर ने 2007 में अपना सब्सक्रिप्शन वापस ले लिया और देखा-देखी दूसरे बहुत से अखबारो ने भी इस कार्रवाई की नकल की. एक बहुत बड़ा झटका 2020 में तब लगा जब प्रसार भारती ने दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो का सब्सक्रिप्शन खत्म कर दिया.
इस दलील को सामने रखते हुए कि अपने घाटे की भरपाई के लिए मैनेजमेंट दूसरे रास्ते भी तलाश रहा है, अजय कौल ने कहा, "12 सालों से ज्यादा समय से यूएनआई फंड्स के लिए बुरी तरह हाथ-पांव मार रहा है. प्रसार भारती हमें सालाना 6.5 करोड़ रुपए का भुगतान करता था लेकिन अक्टूबर 2020 में उसके सब्सक्रिप्शन से हाथ खींच लेने के बाद से हमारा घाटा कई गुना बढ़ गया है."
मणिपाल ग्रुप के सागर मुखोपाध्याय बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के मुखिया हैं. पिछले साल यूएनआई को फिर से खड़ा कर देने के वादे के साथ उन्होंने चेयरमैन का पद संभाला. लेकिन ग्रुप कोई भी नया निवेश लेकर नहीं आया बल्कि यूएनआई ऑल इंडिया एम्प्लॉयीज फ्रंट के अनुसार इस ग्रुप ने 30 से ज्यादा कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारियों को दूसरे कर्मचारियों के आर्थिक संकट के इस दौर में मोटी तनख़्वाह पर प्रमुख पद संभालने को दे दिए हैं.
मणिपाल ग्रुप के कानूनी मामलों के अध्यक्ष बिनोद मंडल और वकील पवन कुमार शर्मा भी बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के सदस्य हैं. यूएनआई के बड़े शेयरधारकों में जागरण प्रकाशन लिमिटेड, कस्तूरी एंड संस लिमिटेड, एक्सप्रेस पब्लिकेशन (मदुरै), एच टी मीडिया लिमिटेड, स्टेट्समैन लिमिटेड, नव भारत प्रेस (भोपाल) लिमिटेड, एबीपी प्राइवेट लिमिटेड और टाइम्स ऑफ इंडिया आदि शामिल हैं.
शर्मा ने यूएनआई के इस बुरी स्थिति के लिए अखबारों के कारोबार में आने वाली गिरावट को जिम्मेदार ठहराया. "यूएनआई की ऑनलाइन मौजूदगी न के बराबर है. इसके कर्मचारी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रति अपडेट रहने के लिए प्रक्षिशित नहीं है. मणिपाल मीडिया को यूएनआई से जुड़े पूरे एक साल भी नहीं हुए. यूएनआई की स्थिति में इतनी ज्यादा गिरावट पिछले 12 सालों से सुधारात्मक उपाय अमल में न लाने के कारण आई है."
यह कहते हुए कि सब्सक्रिप्शन्स को बढ़ाने के लिए कुछ कदम उठाए जा रहे हैं, शर्मा ने आगे कहा मणिपाल ग्रुप को शेयरधारकों द्वारा प्रबंधन के काम के लिए चुना गया था. "वे लोग अपनी सेवाएं देने वाले स्वतंत्र और पेशेवर लोग हैं."
इसी बीच कुछ लोगों ने मैनेजमेंट की ओर से लिए गए "बुरे फैसलों" की ओर भी उंगली उठाई.
"12 साल पहले मैनजमेंट ने यूनी टीवी को चार भाषाओं- हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी और कन्नड़ में शुरू किया. वैसे तो ये सब्सक्रिप्शन पाने की दिशा में उठाया गया एक उचित कदम था लेकिन औसत गुणवत्ता के कारण इसे दो सालों के भीतर ही बंद करना पड़ गया. अगर किसी तीसरे पक्ष को कॉन्ट्रैक्ट न देकर ये काम अपने यहां ही कराया जाता तो इतनी बड़ी नाकामी देखने को नहीं मिलती," यूएनआई में कार्यरत एक सीनियर इंजीनियर ए कांडासामी ने कहा.
डेक्कन क्रॉनिकल के पूर्व संपादक आर भगवान सिंह ने कहा कि एजेंसी के पास समय के साथ आगे बढ़ने के लिए ऐडेड सर्विसेज भी होनी चाहिए, खासकर तब जब इसके सब्सक्रिप्शन का दाम पीटीआई से बहुत कम हो. "यूएनआई" के ट्रायल्स बहुत बड़ी नाकामी थे. एजेंसी ने एक फोटो सर्विस जोड़ी लेकिन इस काम को करने लिए पेशेवर लोगों की भर्ती नहीं की. तस्वीरों की गुणवत्ता से समझौता किया गया था."
गोपनीयता को ध्यान में रखते हुए नामों को बदल दिया गया है.
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.