पंजाब: सोशल मीडिया का बेजा इस्तेमाल कर ‘जिंदगी को जहन्नुम’ बनाने वाला यूएपीए कानून

यूएपीए ऐसा कानून है जिसे हर सरकार अपने विरोधियों की आवाज को दबाने के लिए भी उपयोग करती है.

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यूएपीए का इतिहास और पंजाब में उग्रवाद

पंजाब स्थित मानवाधिकार कार्यकर्ता सरबजीत सिंह वेरका जिन पर 1992 में टेररिस्ट एंड डिसरप्टिव एक्टिविटीज एक्ट (टाडा) के तहत केस दर्ज किया गया था. वह कहते हैं, “आज भी पंजाब पुलिस उसी मानसिकता के साथ काम करती है जो पंजाब में उग्रवाद के दौरान विकसित हुई थी.”

1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार और सिख जनसंहार के बाद सिख समुदाय के कुछ लोगों ने कठोर पुलिस कार्रवाईयों, फर्जी मुठभेड़ों और उत्पीड़न के बीच, खालिस्तानी विद्रोहियों और आतंकवादियों का समर्थन करना शुरू कर दिया था.

सरबजीत सिंह कहते हैं, “यह वह समय था जब पंजाब पुलिस ने आतंकवाद विरोधी कानूनों को अंधाधुंध तरीके से सिख समुदाय के खिलाफ लागू करना शुरू कर दिया. टाडा जैसे कानून उसी समय लाए गए थे क्योंकि पुलिस को कार्रवाई करने के लिए ज्यादा शक्तियां चाहिए थीं. चूंकि पुलिस के पास ज्यादातर मौकों पर आरोपी साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं होते थे और बिना सबूत वह लोगों को जेल में नहीं डाल सकती, इसलिए टाडा ने उनके लिए समाधान के तौर पर काम किया.”

वेरका कहते हैं, “आखिरकार 1992 के बाद यह स्पष्ट हो गया कि टाडा का दुरुपयोग किया जा रहा था. कानून के तहत बहुत ही कम लोगों को सजा हुई.”

कानून के दुरुपयोग की आलोचना के कारण 1995 में टाडा कानून को खत्म कर दिया गया. साल 2001 में अटल वाजपेयी की सरकार आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटा) कानून लेकर आई जिसमें कमोबेश टाडा जैसे ही प्रावधान थे.

हालांकि इस कानून के दुरुपयोग के खिलाफ जन आक्रोश के कारण चार साल में पोटा को भी रद्द कर दिया गया. इसके बाद मनमोहन सिंह की सरकार 1967 के यूएपीए कानून में संशोधन कर आंतकवाद निरोधक कानून लेकर आई. मुंबई हमलों के बाद साल 2008 में कानून में संशोधन कर इसे और मजबूत बनाया गया और अंत में, साल 2019 में मोदी सरकार ने संशोधन किया, जिसके मुताबिक किसी भी व्यक्ति को आंतकी घोषित किया जा सकता है.

वेरका कहते हैं, “कानून का नाम यूएपीए से टाडा, टाडा से पोटा और फिर पोटा से यूएपीए हो गया लेकिन प्रावधान वही रहे- असहमति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने के लिए बिना सबूत के गिरफ्तारी.”

उन्होंने आगे कहा, “पंजाब में, यूएपीए का लगातार उपयोग इस बात को भी दर्शाता है कि पंजाब पुलिस का नेतृत्व किसने किया. केपीएस गिल और सुमेध सिंह सैनी जैसे आईपीएस अधिकारियों के समय में टाडा का उपयोग लोगों के गायब होने और फर्जी मुठभेड़ के मामलों में बढ़ोतरी हुई. बाद में आईपीएस सुरेश अरोड़ा के दौरान चीजें बेहतर हुईं. लेकिन एक बार फिर जब कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में दिनकर गुप्ता को पंजाब पुलिस का प्रधान बनाया गया, तो पंजाब में यूएपीए के मामले फिर से शुरू हो गए.”

हमने इस पर सुमेध सिंह सैनी से टिप्पणी लेने के लिए संपर्क किया, लेकिन उनका फोन नंबर बंद था, वहीं दिनकर गुप्ता ने जवाब देने से यह कहकर मना कर दिया कि वह अब पंजाब के डीजीपी नहीं हैं. हमने पंजाब पुलिस को भी उनके जवाब के लिए संपर्क किया है. जवाब आने पर स्टोरी को अपडेट कर दिया जाएगा.

क्या कहते हैं आंकड़े?

यूपपीए मामलों को लेकर जो दावे सरबजीत सिंह वेरदा दावा करते हैं, वही आंकड़े भी दर्शाते हैं. लोकसभा में गृह मंत्रालय द्वारा 2021 में दिए गए एक जवाब के मुताबिक पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने, शिरोमणि अकाली दल की सरकार के तुलना में कहीं अधिक यूएपीए का उपयोग किया है. साल 2017 से 2019 तक यूएपीए के तहत 18 मामले दर्ज किए गए, जिनमें लगभग 100 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जबकि 2015 से 2016 तक केवल चार मामले ही दर्ज किए गए जिनमें सात लोगों को गिरफ्तार किया गया.

दिसंबर 2021 में राज्यसभा में गृहमंत्रालय द्वारा दिए गए एक जबाव के मुताबिक, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने 2021 में पंजाब में सात देशद्रोह और यूएपीए के केस दर्ज किए हैं, जो देश में सबसे अधिक हैं.(आंकड़ों के अनुसार पंजाब और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर दोनों में सात-सात मामले हैं)

वेरका कहते हैं, “यह कानून एक बार फिर राज्य के लिए जरूरी है क्योंकि तमाम कोशिशों के बावजूद वह सोशल मीडिया पर लोगों को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं. अमृतसर से लेकर टोरंटो तक कोई भी सोशल मीडिया पर अपनी बात रख सकता है. पुलिस का इस पर कोई कंट्रोल नहीं है. खुद को असहाय महसूस कर रही सरकार ने फिर से ऐसे कानूनों का सहारा लेना शुरू कर दिया, जिनके जरिए सबूतों के आभाव में भी लोगों को गिरफ्तार किया जा सकता है.”

अदालत के आदेशों, जेल रिकॉर्ड और मीडिया रिपोर्ट्स के आधार पर जुटाए गए वकील जसपाल सिंह मंझपुर के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2009 से पंजाब में 112 यूएपीए के मामले दर्ज किए गए. 2009 में ही सिंह भी करीब 18 महीने इस कानून के तहत जेल में रहे. साल 2014 में कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया. अब वह पंजाब के अधिकांश यूएपीए मामलों में उन अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनकी पहुंच वकीलों तक नहीं है.

पिछले एक दशक में, जसपाल सिंह पंजाब में यूएपीए के मामलों में एक पैटर्न देखते हैं. वह कहते हैं, “अगर हम यूएपीए मामलों की संरचना को देखें, तो पाएंगे कि सरकार ने एक खाका तैयार किया है जिसके तहत मामले दर्ज किए जाते हैं. अधिकतर मामलों में आरोप भी एक जैसे होते हैं, मानों उन्हें कंप्यूटर पर कॉपी और पेस्ट कर दिया हो.”

जसपाल सिंह मंझपुर जो खुद भी यूएपीए के तहत 18 महीने जेल में बंद रहे. अब राज्य में अधिकतर यूएपीए के केस लड़ रहे हैं.

सिंह के आंकड़ों के मुताबिक पंजाब में यूएपीए के 112 मामलों में से केवल तीन में ही आरोप सिद्ध हो पाए हैं. इन तीनों में से भी दो को पंजाब और हरियाणा होईकोर्ट ने बरी कर दिया. जबकि एक मामले की अपील हाईकोर्ट में लंबित है.

वह कहते हैं कि आतंकवाद कानून के साथ होने वाली कैद में न्यायपालिका की मिलीभगत है. “यूएपीए का मामला दर्ज करने, जांच करने और अदालत में चालान पेश करने के कई महत्वपूर्ण निर्देश हैं, लेकिन आमतौर पर इसका पालन नहीं किया जाता”.

जसपाल सिंह बताते हैं, “उदाहरण के लिए, यूएपीए मामले की जांच डीएसपी पद के नीचे के अधिकारी नहीं कर सकते. सरकार के बिना मंजूरी के अदालतें आरोप नहीं लगा सकतीं. मंजूरी का समय भी निश्चित है लेकिन सभी अदालतें इन निर्देशों पर सही से ध्यान नहीं देती हैं, जिसके कारण अदालतों में मामले लंबित हैं और अभियुक्त जेल में.”

यूएपीए के संदर्भ में पंजाब की राजनीति

पंजाब में यूएपीए के बढ़ते मामलों के बीच, 2020 में तब के पंजाब एकता पार्टी के नेता सुखपाल सिंह खैरा के नेतृत्व में पांच विपक्षी विधायकों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को एक ज्ञापन सौंपा, जिसमें “झूठे आरोपों और यूएपीए के तहत सिख युवकों की गिरफ्तारी” की जांच की मांग की गई थी.

खैरा के ज्ञापन के बाद, अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह, जो सिख धर्म के सबसे बड़े धार्मिक संस्था के नेता हैं, ने केंद्र सरकार और राज्य सरकार से सिख युवाओं के खिलाफ आतंकवादी कानून का उपयोग बंद करने के लिए कहा.

मार्च 2021 में, जब प्रवर्तन निदेशालय(ईडी) ने खैरा पर छापा मारा तो उन्होंने ट्विटर पर कहा कि आतंकी कानून के खिलाफ उनकी सक्रियता के कारण उन्हें निशाना बनाया जा रहा है.

पंजाब एकता पार्टी का कांग्रेस में विलय करने वाले सुखपाल खैरा कहते हैं कि पंजाब में यूएपीए के मामलों में केंद्र की भी भूमिका होती है. न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में वह आरोप लगाते हुए कहते हैं, ”पंजाब एक सीमावर्ती राज्य है और भाजपा झूठा डर पैदा करना चाहती है. वह एक नैरेटिव बनाना चाहते हैं कि पंजाब में 'पाकिस्तान', 'आतंकवाद', 'भारत विरोधी ताकतें' और 'खालिस्तान' सक्रिय हैं. ये यूएपीए के मामले, ड्रोन, हथियारों की बरामदगी और अब सोशल मीडिया पोस्ट उस नैरेटिव को बनाने के तरीके हैं. ज्यादातर दलितों पर आतंकवाद के आरोपों के तहत मामला दर्ज किया जाता है, जिनके पास पैरवी करने के लिए वकील भी नहीं होते हैं. उनका बलिदान किसी भेड़ के बच्चे से कम नहीं है.”

खैरा दावा करते हैं कि पंजाब के डीजीपी के रूप में दिनकर गुप्ता की नियुक्ति राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल द्वारा की गई थी. वह कहते हैं, “यह राज्य की अघोषित नीति से मेल खाता है. पंजाब, जम्मू और कश्मीर में यह ताकतें अविश्वास का माहौल बनाए रखना चाहती हैं. दोनों सीमावर्ती राज्य हैं और इनमें अल्पसंख्यक समुदाय हैं. यह चाहते हैं कि यह मामले ऐसे ही उबलते रहें.”

लुधियाना के रहने वाले मनदीप को न सिर्फ आंतक के आरोप में फंसाया गया बल्कि उनके शौक को भी आंतकवाद से जोड़ा गया. बचपन से ही कबूतरबाजी का शौक रखने वाले मनदीप, कई राज्यों में जाकर कबूतरबाजी प्रतियोगिता में हिस्सा लेते रहे और उन्होंने कई अवार्ड भी जीते हैं.

लेकिन पंजाब में जहां कबूतरों पर भी केस दर्ज कर, उन्हें संदिग्ध करार दिया जाता है, वहां मनदीप के बचपन के शौक को भी संदिग्ध करार दिया गया. उन्होंने कहा, “पुलिस ने कहा कि मैं पाकिस्तान में आतंकवादियों के संपर्क में रहने के लिए कबूतरों का इस्तेमाल करता हूं.अब मैं इस पर क्या कहूं.”

पंजाब में सोशल मीडिया को लेकर यूएपीए का सबसे पहला केस 2013 में दर्ज किया गया था. पंजाब पुलिस ने फतेहगढ़ साहिब में एक आतंकी घटना की साजिश रचने के आरोप में 16 लोगों - 15 वयस्कों और एक नाबालिग को गिरफ्तार किया था. पुलिस ने सबूत के तौर पर फेसबुक चैट का इस्तेमाल किया. न्यूज़लॉन्ड्री को मिले फैसले की कॉपी के मुताबिक, साल 2017 में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने नाबालिग को बरी कर दिया क्योंकि जांच एजेंसी, ”संदिग्ध गतिविधियों के अलावा नाबालिग का आरोप साबित करने में विफल रही.” एक जमानत पर रिहा है, एक आरोपी ने आत्महत्या कर ली और जबकि एक की मौत कोरोना वायरस से हो गई. केस अभी भी चल रहा है.

इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के वकील अभिनव सेखरी कहते हैं कि रोजमर्रा की जिंदगी में सोशल मीडिया की मौजूदगी के कारण ये स्वाभाविक है कि अब यह आपराधिक जांच, सूचना और सबूत का हिस्सा बन गया है. वह कहते हैं, “हालांकि जिस तरह से पुलिस जांच होती है, उसे उचित निगरानी और समीक्षा की जरूरत है. कभी-कभी ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया के आधार पर कोई आपराधिक एंगल है लेकिन असलियत में वैसा कुछ होता नहीं है.”

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