सेंट्रल विस्टा नया भारत है? असलियत में हम पुराने भारत की ओर लौट रहे हैं

सेंट्रल विस्टा अगर आज की कसौटी पर खरा नहीं है तो भविष्य भी अंधकारमय है. ऐसे में क्या कोई उम्मीद बाकी है?

WrittenBy:अल्पना किशोर
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देश की संसद के निर्माण से मिलने वाली शोहरत न सिर्फ तारीख में दर्ज होगी बल्कि निजी और माली लिहाज से भी ऊंचाइयां छूने का मौका भी है. पटेल ने मौके का फायदा उठाने में कतई झिझक नहीं दिखाई.

इससे उनकी हर कथित पेशेवर पसंद को लेकर संदेह पैदा होता है.

चार लाख स्क्वेयरमीटर की 18 मजबूत इमारतों को जमींदोज करना, सांस्कृतिक महत्व की संस्थाओं को ध्वस्त करना, विस्टा से हुकूमत और आवाम की साझी पहचान मिटाना और ऐसी संस्थाओं को विस्टा से बाहर कर देना, छह हजार पेड़ काटना, इस संवेदनशील विरासत वाले क्षेत्र में एक्सप्रेसवे की तरह यातायात का बंदोबस्त, स्थानीय प्रशासन की अनुमति लिए बगैर अपने हिसाब से फ्लोर एरिया रेश्यो तय करना, राजपथ लॉन में फर्श वाले रास्ते, और प्राकृतिक जल प्रवाह अवरुद्ध करने जैसे काम उनकी पसंद में शुमार हैं, वो भी ग्रेड वन हेरिटेज जोन में.

एक नागरिक की नजर से देखा जाए तो सरकार ने पटेल को संस्थाओं, नगर निकायों और शहरी कानून को अपने निजी फायदे में इस्तेमाल करने की ताकत देने के लिए क्या नहीं किया.

अगर दूसरे नजरिए से देखें तो इन संस्थाओं, स्थानीय निकायों और शहरी कानूनों के प्रति सरकार ने अपनी जिम्मेदारी कतई नहीं निभाई.

मगरूर और सब तबाह कर देने वाला यही नजरिया ही प्रोजेक्ट को विश्वस्तरीय बनने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है.

बुद्धिजीवियों का विरोध सरकार की नीति है या ‘पेशेवरों पर अविश्वास’

वही खौफ जिसकी वजह से पटेल को खुली छूट दी गई है, उसी ने तबाही रोकने के लिए जानकारों के मशविरा देने पर पाबंदी लग गई है.

बंद सोच के साथ कान बंद कर सरकार ने संबंधित संस्थाओं की सलाह-नसीहतों को बेरुखी से ठुकरा दिया (यहां और यहां देखें)

दरसल इस संस्थागत नाकामी की असली वजह पेशावर लोगों पर शक है, जिनको लेकर लगता है कि वे वैचारिक ‘सपनों’ की राह में अड़चन बन सकते हैं. हालांकि इस सोच की झलक पहले “हॉवर्ड और हॉर्ड वर्क” को लेकर की गई टिप्पणी में दिखाई पड़ती है लेकिन अब तो सब पानी की तरह साफ हो गया है.

न्यू इंडिया की शब्दावली भले ही आधुनिक हो, लेकिन व्यवसायिक नजरिए में आधुनिकता को जानबूझ कर दरकिनार रखा है. सामंती सोच वाले इस न्यू इंडिया के नजरिए में मध्यम स्तर के नौकरशाहों का बोलबाला है जो सुर में सुर मिला कर बहुमत से कानून को धता बताते हुए, अवैध फैसलों के लिए संस्थागत तरीके से रास्ता तैयार करते हैं.

असल में इस भयावह नुकसान की असली वजह यही है.

हुनर से दुश्मनी की कीमत

संस्थाओं को इरादतन तरीके से खत्म किया जा रहा है

स्थानीय निकाय से रजामंदी की पहली शर्त पूरी किए बगैर शहरी नियोजन की संस्था अगर अनुमति दे सकती है, हेरिटेज कमेटी के लिए विरासत कानून को ही माफ कर सकती है, या पर्यावरण से जुड़ी संस्था खुलेआम अवैध फ्लोर एरिया रेश्यो को मंजूरी देती है, तो यह सिर्फ पैसे की ताकत के सिवा कुछ नहीं.

वैचारिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए इतने दबाव और खतरों के बीच मोहरों की तरह इस्तेमाल हो रही संस्थाएं पेशेवराना पैमाने या क्वालिटी के लिए बाहर की दुनिया से जानकारी हासिल करने में यकीन नहीं रखती. क्योंकि ये संस्थाओं के प्रति भरोसा टूटने जैसा है.

सेंट्रल विस्टा का ताकतवर संदेश एकदम साफ है. संस्थाएं बेमानी हैं और कानूनी तौर-तरीकों के न्यू इंडिया में बहुत मायने नहीं हैं.

प्रतिभा की कमी से स्तर में गिरावट आती है

योजना में प्रतिभाओं की कमी का असर बढ़ता नजर आ रहा है. दुनिया में नए इजाद हो रहे खयालात से आइडिया लेने के बजाय नौसिखिए खानसामें से घरेलू फालूदा बनवाया जा रहा है. जहिर है पर्यावरण, विरासत, यातायात, पानी वगैरह को लेकर बेतुके फैसले लिए जा रहे हैं.

“सरकार का काम हेरिटेज, प्रदूषण, इंजीनियरिंग, वास्तुकला, संस्कृति,परिवहन से जुड़े विभागों के बीच जटिल मुद्दे के समाधान निकालने के लिए तालमेल बिठाना है, न कि मुगलिया सल्तनत की तरह इकतरफा फरमान जारी करना.” स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर के पूर्व डीन केशव कपाड़िया कहते हैं- “एक शहर बनाने के लिए बहुत संजीदा नजरिए की जरूरत होती है.” वे आगे कहते हैं, “तर्कों को नजरअंदाज करना तजुर्बे को ठुकरना है- यहीं से शहर बिखरना शुरू हो जाता है.”

यही बेरतरतीबी पूरे प्रशासनिक व्यवस्था को औसत दर्जे की बना देती है. यानी सब कुछ जायज मान लिया जाता है.

इसी वजह से दो हजार पेड़ों से तैयार किए जंगल को काटने के पाप से सरकारी महकमों तक में खलबली पैदा हो गई थी, लेकिन इसे विकास के लिए बलि मान कर स्वीकार कर लिया गया. जानकारों की सलाह के एकदम अलग बेअक्ल और बेहुदा “विकास” मंजूर है.

जाहिलियत से भरे बेतुके फैसले

इस योजना के लिए एकदम उलट तरीके से फैसले लिए जा रहे हैं. पहले खाका तैयार किया गया, फिर पड़ताल की गई. इसी वजह से बगैर तैयारी बनाई इमारत की मंजूरी के लिए बेतुके उपाय तलाशने पड़ते हैं.

वहीं, इन इमारतों की वजह से खड़ी होने वाली भारी यातायात समस्या को दूर करने के लिए लुटियन दिल्ली के बीचो बीच सड़कों को चौड़ा करने का चौंकाने वाला फैसला लिया गया.

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यातायात संबंधी पड़ताल से दिल्ली की इस विरासत को बचा कर भी आसानी से टिकाऊ रास्ता तलाशा जा सकता था. आवाजाही को तो कम ज्यादा या बदलाव किया जा सकता है लेकिन विरासत नहीं बदली जाती. इसके बजाय एक सदी पुरानी सड़कों के किनारे तरतीब से लगे पेड़ों की जगह आठ लेन का कॉरीडोर,चौराहों पर गोलचक्कर और एलेवेटेड सड़कें बनाकर विरासत को तहस नहस करने का फैसला लिया गया है.

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Source: Hindustan Times.

कपाड़िया कहते हैं, “ये ताजमहल के चबूतरे को मेट्रो स्टेशन में बदलने को यहां पहुंचने का दुनिया की बेहतरीन इंतजाम बताने की तरह है.”

फिर भी इस भोंडेपन को आसानी से पचा लिया गया और बगैर किसी बहस जांच कमेटी ने हरी झंड़ी भी दिखा दी (नीचे देखें तस्वीर.)

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इसीलिए ये जो न्यू इंडिया है.. यहां नएपन या नफासत के लिए कोई जगह नहीं है. इसके पीछे सिर्फ अपनी हसरत पूरी करने की मोटी समझ भर है और मकसद हासिल करने का सही रास्ता तलाशने की आजादी भी नहीं है. बेहतरीन कानून भी बेमानी है, अगर सरकार के इरादे ही उनकी मुखालिफत करते हों.

परिस्थिति को बदलने का समय अभी भी है

अब भी आम लोगों से लेकर सरकार तक, सबके लिए नुकसादेह और नासमझी भरी राह से लौटने के रास्ते बाकी हैं.

अगर सरकार बातचीत के दरवाजे खोलती हैं तो आधुनिक और संरक्षण के साथ बीच का रास्ता निकल सकता है. दोनों के लिए किसी इंकलाब की जरूरत नहीं है, बस कानून पर अमल जरूरी है.

सबसे पहले सार्वजनिक, अर्धसरकारी और सैर-सपाटे की जगह, उसकी मालिक यानी जनता को वापिस सौंप दिया जाए- इसका मतलब जनपथ के पूर्व का ये पूरा इलाका अवाम को लौटा दिया जाए जो 60 के दशक से इसकी मालिक है.

इसका अर्थ है कि जनपथ और राजपथ के उस चौराहे जो पहले जैसा कर दिया जाए जहां सरकार और जनता के सरोकार एक दूसरे में घुलमिल जाया करते थे, जैसा दुनिया के बेहतरीन शहरों में होता भी है और जहां सरकार जनता की इन जगहों का संरक्षण करती है.

इसके मायने यह भी हैं कि इन सांस्कृतिक संस्थानों राष्ट्रीय संग्रहालय, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय संस्कृति और कला केंद्र और राष्ट्रीय अभिलेखागार की कार्यकारी संप्रभुता लौटाई जाए, इसके बाद ही इनके आधुनिकीकरण और विस्तार पर बैठकर बहस की जा सकती है.

इसका ये भी मतलब है कि अवाम को पहले की तरह उसकी तफरीह के लिए उसकी अमानत सौंपी जाए, यानी संग्रहालय, पार्क, मौज-मस्ती की जगह- जो जनतंत्र की असल पहचान हैं.

आखिर में, इसका मतलब यह भी है कि जनपथ के पश्चिम ( चौराहे और जनपथ के दो प्लॉट छोड़ कर) सरकार के संरक्षण वाला इलाका आधुनिक और नई तकनीक की सचिवालय की इमारतों के लिए काफी है.

इस जगह आरामदेह तरीके से प्रति व्यक्ति 11 स्क्वेयर मीटर के अनुपात से 55 हजार कर्मचारी काम करते हैं, यानी हजारों पेड़ों के साथ यातायात के लिए भी ये जगह पर्याप्त है.

नए सचिवालय में भी कर्मचारियों की तादाद में बदलाव नहीं है.

कपाड़िया कहते हैं, “अगर कर्मचारियों की तादाद पहले जैसी है, पहले की तरह उसी अनुपात में इलाके को आधुनिक क्यों नहीं बनाया जा सकता? फिर चार गुनी जगह में हजारों पेड़ों को काट कर, संग्रहालयों को गिरा कर और सड़कों को तहसनहस कर निर्माण की जरूरत क्या है? लेकिन इसके लिए, जनता के लिए बनाई गई दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में से एक लुटियन दिल्ली के लिए नम्रता के साथ शालीन और संजीदा नजरिए की जरूरत है.”

दूसरा कदम कानून के लिए इज्जत बहाल करना है.

इसके लिए 200 फ्लोर एरिया रेश्यो की पाबंदी लागू करना जरूरी है, जो सेंट्रल विस्टा के जोन डी के लिए तय की गई है. इसका मतलब ये होगा कि इमारतों की ऊंचाई, पर्यावरण और विरासत से जुड़े कानूनों पर अमल, पेड़ों के साथ-साथ विरासत और स्काईलाइन की हिफाजत. जाहिर है कि इसके लिए स्थानीय निकायों की मंजूरी जरूरी होगी, जैसा हर नागरिक को लेनी होती है.

इसे कैसे आंका जाएगा? विरासत का नजरिया

अगर सरकार अपने तयशुदा खाके पर ही काम करने का फैसला करती है, तो इसके लिए एक बड़ी कुर्बानी देनी पड़ेगी

विरासत, जो सेंट्रल विस्टा मुख्य उद्देश्य है.

क्या इसे ‘ताकतवर’ और दोबारा उठ खड़े होने वाले भारत की नायकीय पहचान के तौर पर देखा जाएगा?

या फिर वास्तुकला और पर्यावरण की उपेक्षा कर, हुकूमत के इशारे पर हो रही इस बड़े पैमाने की तबाही (चार लाख स्क्वेयर मीटर में बनी मजबूत ढांचे वाली इमारतों को गिराने, और इसके लिए हजारों पेड़ों की बलि) दुनिया भर में जनता के लिए बनाए गए सबसे हसीन इलाकों में से एक में सरकारी दफ्तर बनाने के लिए होगी?

अपने वक्त से अलग सेंट्रल विस्टा, विश्वस्तरीय तो छोड़िए, अच्छे आर्किटेक्चर के लिहाज से भी दुनिया भर में तय पैमाने से दूर दिखाई देता है. जाहिर है कि ये इस सोच को नए नजरिए की मिसाल के तौर पर नहीं देखा जा सकता. ऐसी पुरानी सोच से एक धरोहर को संजोया नहीं जा सकता जिसको दुनिया भर में रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है.

साथ ही, अब नए विचारों का समय आ चुका है- मसलन, जलवायु परिवर्तन, स्थायित्व, अविध्वंसक और आवाम की पहुंच- ऐसे में महज प्रचार के जरिए जानकारों और पेशेवर लोगों के बीच सेंट्रल विस्टा वर्ल्ड क्लास नहीं हो जाएगा. पर्यावरण को तबाह कर विजय के प्रतीक के तौर पर इमारतें बनाने की वास्तुकला से निकल कर शहरी विकास बहुत आगे आ चुका है.

वहीं, किसी भी योजना को गूगल अर्थ के इस दौर में राज बना कर नहीं रखा जा सकता. इसको आने वाले वक्त में आंका जाएगा, जिसमें मिट्टी के विश्लेषण से लेकर भूजल प्रवाह, प्रदूषण, इमारतों के नक्शे तक कुछ भी छिपा नहीं रहेगा.

इस विरासत को सिर्फ खूबसूरती और इसके पीछे विचारधारा के आधार पर ही नहीं आंका जाएगा, बल्कि जानबूझ कर संस्थाओं के दमन और क्रूर विध्वंस के लिए भी याद रखा जाएगा. नए निर्माण की खूबसूरती से भी इसकी लोकतंत्र विरोधी छवि नहीं बदल पाएगी. ये जन विरोधी विचारधारा उस जनता की सोच के एकदम खिलाफ है, जिसकी नुमाइंदगी का दावा किया जाता है. इसकी आधुनिकता का हो-हल्ला असलियत उजागर न होने देने, और इस विरोधाभास को ढंकने की एक कोशिश है.

विचाराधाराओं की दुनिया में कट्टरपंथी विचारों का यही विरोधाभास है, जो तेजी से बह रही सूचनाओं की डिजिटल दुनिया में हर मिनट विचारधाराएं खारिज होने से पैदा हो रहा है. किसी भी जिरह-बहस या पेशेवर सलाह को खारिज करने वाली पुरानी सोच से, आने वाली नस्लों के भविष्य से जुड़े फैसले नहीं लिए जा सकते.

सेंट्रल विस्टा की धरोहर इसी से तय होगी.

सेंट्रल विस्टा के चार अंकों की श्रृंखला का यह अंतिम लेख है, पढ़िए, पहला, दूसरा, और तीसरा अंक.

(अनुवाद- अंशुमान त्रिपाठी)

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