प्रियंका गांधी के कभी बेहद जोशीले तो कभी बेहद उदासीन रवैये ने इस धारणा को और मजबूत ही किया है कि यूपी में कांग्रेस मुकाबले में आगे आकर सामने से लड़ने वाले नेतृत्व की कमी से जूझ रही है.
असल में, यूपी में जिस एक खास सामाजिक धड़े पर प्रियंका की नजर है, वह है महिला मतदाता. यह शायद दो क्षेत्रीय पार्टियों की कामयाबी से ली गई सीख है- एक ओर बिहार में नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड और दूसरी ओर बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस- महिला मतदाताओं के बीच अच्छा खासा समर्थन हासिल करने में सफल रही थी. हालांकि, एक बड़ा अंतर यह है कि जदयू और टीएमसी दोनों सत्ता में थे और उन्हें उनकी कल्याणकारी योजनाओं और नीतियों के बदले में समर्थन मिला था. इन दोनों दलों की नीतियों और योजनाओं से महिला वोटर्स के एक बड़े हिस्से को फायदा मिला था.
यूपी में 30 सालों से भी अधिक समय से सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस के लिए मामला काफी अलग है. वैसे भी औरतों को एक वोट बैंक में बदलने का बीड़ा कोई आसान काम नहीं है. इसका कारण यह है कि लिंग आधारित राजनीति की बनावट बहुत जटिल है और फिलहाल यह इस कदर अस्थिर है कि अकेले एक बड़े चुनावी हलचल के लिए उत्तरदायी प्रेरक शक्ति नहीं बन सकती है.
अब चूंकि मुकाबले में आमने-सामने खड़े भाजपा और सपा की अगुवाई वाले गठबंधनों के साथ सामाजिक धड़ों के चुनावी राजनीतिकरण को और ज्यादा मजबूत करने के लिए लकीरें खींची जा रही हैं तो ऐसे में कांग्रेस को इससे परे एक खासी बड़ी राजनीतिक पटकथा लिखने की जरूरत है. इस पटकथा को आगे आकर सामने से नेतृत्व करने वाले एक चुनावी अभियान के इर्द-गिर्द ही बुना जा सकता है. पटकथा को मंच पर सफल बनाने के लिए दो कारकों, पहला- एक शख्सियत को बहुत बड़ा बनाकर उसकी छवि को भुनाने, और दूसरा स्थानीय लोगों और उनके मुद्दों को राष्ट्रीय पटल पर लाकर, उन पर काम करने की ज़रूरत है.
एक तरह से, प्रियंका को मुख्यमंत्री पद के चेहरे के तौर पर पेश करना इसी तरह की पटकथा का मामला हो सकता था. भले ही एक बड़ी तस्वीर के तौर पर ऐसा लगे कि इसने प्रदेश में पार्टी के लिए वोटों की गिनती के मामले में कोई बदलाव न किया हो, लेकिन इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि इसकी वजह से पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी ऊंचा हुआ है. एक तरह से इसे ऐसे भी देखा जा सकता है कि इसकी वजह से पार्टी उस चुनावी अभियान में जहां उसे पहले ही हाशिए की पार्टी करार दे दिया गया है, वहां पर भी बहुत हद तक लोगों की नजरों और जुबान पर बनी हुई है. बिल्कुल हाल-फिलहाल में तो यही कहा जा सकता है कि इसने मुकाबले में शामिल दूसरी पार्टियों को भी कांग्रेस को एक दावेदार मानने का मौका दे दिया है. और बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस मौके को तुरंत लपकते हुए वोटरों से कह दिया है कि वो अपना वोट इस चुनाव को गैर संजीदगी से लेने वाली कांग्रेस जैसी पार्टियों को देकर खराब न करें.
राजनैतिक दांव पर लगी चीजों, उनकी कीमत को एक बड़े फलक पर समझने की कोशिश करने पर हम पाएंगे कि प्रियंका को एक अनिश्चित चुनावी मुकाबले से अपनी राजनीति की शुरुआत करने देने और उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करने के खतरे से बचाने के काफी सारे वाजिब कारण कांग्रेस पार्टी के पास हैं.
हालांकि मुकाबले में सामने खड़े दूसरे गठबंधनों से जुड़े अलग-अलग सामाजिक धड़ों में अपनी जगह को मजबूत करने में नाकाम रहने वाली कांग्रेस के हालातों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस अपने ओहदे और अपनी छवि में काफी सुधार ला सकती है. यहां तक कि बेहद धुंधले हालातों में भी भरोसे की यह छलांग, लोगों के दिलो-दिमाग से दूर होती जाती पार्टी को कुछ हद तक उसको पहले के दौर में मिलने वाली तवज्जो को वापस दिलवाने के साथ ही, प्रदेश के चुनाव में उसे पहली कतार का स्थानीय योद्धा बना सकती है, वो भी राष्ट्रीय पटल पर.
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