सितंबर 2020 में हाथरस जिले में एक दलित लड़की की बलात्कार के बाद मौत हो गई. उसके बाद पुलिस पर आरोप लगा कि परिजनों की इजाजत के बगैर, देर रात को पीड़िता का अंतिम संस्कार कर दिया गया.
यहां ‘भूरा का नगला’ गांव है. इस गांव में जाटव समुदाय की एक बड़ी आबादी है. यहां पहुंचने पर हमारी मुलाकात 22 वर्षीय सन्नी कुमार से हुई. हाथरस घटना को लेकर क्या सोचते हैं, पूछने पर कुमार कहते हैं, ‘‘सोचने का समय नहीं है. कमाएंगे नहीं तो खाएंगे कैसे. हमें तो बोलने तक का अधिकार नहीं है. मैं इलेटक्ट्रिशयन का काम करता हूं. शहर में तो फिर भी ठीक है लेकिन गांव में जब काम करने जाता हूं तो लोग कहते हैं कि जूता बाहर खोलकर अंदर आओ. अब मैं बिजली का काम करता हूं. ऐसे में बिना जूता जाने पर दुर्घटना हो सकती है. उन्हें समझता हूं और अगर वो नहीं समझते तो काम छोड़कर चला आता हूं.’’
लोगों को आपकी जाति कैसे पता चलती है. इस पर वे कहते हैं, ‘‘हमारा गांव जाटवों का है. यहां सब जानते हैं. ऐसे में उस घटना के बारे में सोचने का वक्त नहीं है हमारे पास. हम लोग तो बहन जी के वोटर हैं. उनको ही देंगे. वो हमारे गांव भी आ चुकी हैं.’’
यहां ज्यादातर लोग भाजपा सरकार से नाराज लगते हैं. नाराजगी की एक बड़ी वजह रोजगार की समस्या है. यहीं हमारी मुलाकात अमर कुमार से हुई. हाथरस मामले को लेकर वे कहते हैं, ‘‘नाराजगी तो है ही. इस सरकार में दलितों को कोई सुनने वाला नहीं है. अगर उच्च जाति का कोई होता तो इस तरह से व्यवहार नहीं होता. बीजेपी के कारण अब तक आरोपी बचे हुए हैं नहीं तो अब तक फांसी हो गई होती. वैसे यह चुनावी मुद्दे का विषय नहीं है, यह हमारे सम्मान की बात है. चुनावी मुद्दा रोजगार है. मैं बीएससी कर चुका हूं. रोजगार नहीं मिल रहा तो कारपेंटर का काम कर रहा हूं. आप यहां देखिए कितने लड़के डोल (घूम) रहे हैं. हम लोग रोज कमाने-खाने वाले हैं. काम बंद है.’’
भूरा का नगला गांव से थोड़ी दूरी पर तमानागढ़ी गांव है. यह भी एक जाटव बाहुल्य गांव है. यहां हमारी मुलाकात पेशे से वकील कुलदीप सिंह ने हुई. हाथरस घटना पर वे कहते हैं, ‘‘इस पर तो हर वर्ग के लोगों को नाराज होना चाहिए. यह घटना तो हाथरस के माथे पर कलंक की तरह है. 2017 में हमने बीजेपी को वोट किया था. हमने सोचा बदलाव होगा लेकिन हमें और परेशान किया गया. प्रशासन में हमें सुना नहीं जाता है. कोई शिकायत लेकर जाता है तो उल्टा उसी को डराया धमकाया जाता है.”
न्यूज़लॉन्ड्री की टीम हाथरस पीड़िता के गांव भी पहुंची. गांव में प्रवेश करते ही हमारी मुलाकात 76 वर्षीय बुजुर्ग रघुवीर सिंह से हुई. उन्हें हाथरस की घटना का अफसोस नहीं है. वे हंसते हुए कहते हैं, ‘‘लड़की की शादी करते तो इन्हें (पीड़िता के घर की तरफ इशारा कर) पैसे खर्च करने पड़ते, वो पैसे भी बच गए और सरकार से काफी पैसे भी मिले. हमें किस बात का दुख होगा. हम तो योगी की सरकार बनाएंगे. योगी आदित्यनाथ हमारी बिरादरी के हैं.’’
हमारे पूछने पर कि देर रात को जिस तरह से शव जलाया गया क्या वह जायज था, इस पर सिंह कहते हैं, ‘‘अगर पुलिस ऐसा नहीं करती तो यहां कोई राजपूत नहीं बचता. आसपास के वाल्मीकि इस गांव में आ चुके थे. प्रशासन ने बिल्कुल ठीक किया.’’
इस गांव के ज्यादातर राजपूत भाजपा सरकार के पक्ष में बोलते नजर आते है. यहां मिले एक राजपूत नौजवान कहते हैं, ‘‘वोट तो हम बीजेपी को ही देंगे लेकिन मैं सरकार से नाराज हूं. बेवजह मुझे जेल में रखा गया. मेरी जमीन को बीजेपी नेता के करीबी ने कब्जा लिया था. पुलिस में शिकायत किया. विधायकों के पास गया. किसी ने नहीं सुनी. उल्टा मुझे और मेरी पत्नी को जेल में डाल दिया गया. 15 दिन बिना गलती के जेल में रहना पड़ा. हम बीजेपी को वोट भी करेंगे और शिकायत भी. यहां के वाल्मीकि भी बीजेपी को ही वोट करेंगे.’’
हालांकि हाथरस पीड़िता के चाचा संतोष वाल्मीकि इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं. अपने जर्जर मकान को दिखाते हुए वह कहते हैं, ‘‘हमें तो घर तक नहीं मिला है. टूटे घर में रहते हैं. गैस कनेक्शन मिला था. वो भी खत्म हो गया. चूल्हे पर खाना बनाते हैं. सरकार की तरफ से राशन मिलता है लेकिन क्या सिर्फ राशन से पेट भर जाएगा? हमें सरकार से कोई लाभ नहीं मिला है.’’
हाथरस से बसपा के दो बार के विधायक गेंदालाल चौधरी के बेटे पंकज चौधरी यहां से जिला पंचायत सदस्य रह चुके हैं. न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए चौधरी कहते हैं, ‘‘बुल गढ़ी घटना के बाद हाथरस की देश विदेश में जो बदनामी हुई है, वो इस बात से नहीं हुई कि उस लड़की के साथ बलात्कार हुआ. मरने के उपरांत जो प्रशासनिक कार्रवाई उस लड़की और उसके परिजनों के साथ की गई, उससे बदनामी हुई. न्यायपालिका अपना काम करेगी कि कौन दोषी है या नहीं. अगर बसपा की सरकार होती तो ये काम नहीं होते. प्रशासन इस तरह से काम नहीं करता.’’
हाथरस की घटना से लोगों में गुस्से के सवाल पर चौधरी कहते हैं, ‘‘मुझे नहीं लगता कि लोगों में गुस्सा है. अपर कास्ट के लोग तो भूल चुके हैं. उनको तो फर्क नहीं पड़ा. प्रशासन ने क्या किया, अगर उसको लेकर यहां के लोग आक्रोशित नहीं है तो आप सोच सकते हैं. हालांकि बसपा के लोगों में इसका गुस्सा दिखेगा.’’
न्यूज़लॉन्ड्री ने हाथरस में चाय दुकानों, रेहड़ी पटरी पर दुकान लगाने वाले कई लोगों से बात की. दलित तबके के लोगों को छोड़ दें तो ज्यादातर लोगों के लिए हाथरस की घटना बड़ा मुद्दा नहीं है. इसकी वजह पंकज चौधरी बताते हैं, ‘‘हमारे यहां घटना से पहले पीड़ित और आरोपी की जाति देखी जाती है. यह अफसोस की बात है पर सत्य है. यह दिल्ली नहीं है कि निर्भया की जाति जाने बगैर लोग सड़कों पर आ गए थे. यह यूपी है.’’