दिल्ली में जघन्यता की घटनाओं पर अखबारों ने बेशक पर्याप्त रिपोर्ट की है लेकिन जिस एक पक्ष पर अलग से बात की जानी चाहिए थी वह अब भी हमारी आंखों से ओझल है.
बीते पखवाड़े के अखबारों को पढ़कर यकीन नहीं होता कि ये वही दिल्ली है जो आज से नौ साल पहले एक गैंगरेप की घटना पर उबल पड़ी थी. भारतीय नारीवादी आंदोलन के सफर में निर्भया आंदोलन को एक इंकलाब बताया गया था. इस आंदोलन ने भारत में हमेशा के लिए बलात्कार कानूनों की शक्ल बदल दी. पूरी दुनिया की निगाह में दिल्ली महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित जगह ठहरा दी गई थी.
मीडिया इस घटना के बाद पुलिस के पास आए फोन कॉल तक गिनने लगा था और हमें बताया जा रहा था कि दिल्ली में हर 18 घंटे पर एक रेप की घटना होती है. क्या वह सब कुछ गलत था? या अतिरंजित था, जैसा कि शीला दीक्षित ने मीडिया के बारे में कहा था (ब्लोन आउट ऑफ प्रपोर्शन)? या फिर आज जो हो रहा है वह बेमानी है?
निर्भया की याद इसलिए क्योंकि आप 20 जनवरी से 31 जनवरी के बीच के अखबार उठाकर देख लें- हफ्ते भर के भीतर कम से कम तीन ऐसे अंक अखबारों के रहे जिनमें पहले पन्ने पर बलात्कार और मौत की खबरें प्रमुखता से छापी गईं. सबमें नहीं, कुछ में सही, लेकिन इतनी भी नामालूम नहीं थीं कि इस समाज का ध्यान न जाता! चुनावी बयानबाजी, नेताओं के दलबदल, शीतलहर, कोरोना और गणतंत्र दिवस के मिलेजुले भव्य कोहरे के बीच दिल्ली में बलात्कार की शिकार आधा दर्जन वीभत्स चीत्कारों को अखबार सामने लाते रहे, कुछ भी नहीं छुपाया. दिल्ली चुप रही.
26 जनवरी को दिल्ली में 75 जगहों पर 115 फुट ऊंचा तिरंगा फहराया गया. अगले दिन (28 जनवरी) का अखबार दूसरे पन्ने पर एंकर में छपी खबर की हेडिंग लगाता है- ''घर-घर ने देखा''. उसी अखबार के पहले पन्ने पर उसी दिन सेकंड लीड छपी इस खबर को क्या किसी ने नहीं देखा? देखा तो चुप क्यों रहा?
ऐसा नहीं कि जुर्म की इन घटनाओं की रिपोर्टिंग में विवरणों के स्तर पर वीभत्सता की कोई कमी रही हो. विस्तृत फॉलो-अप भी हुए हैं भीतर के पन्नों में. अधिकतर नाबालिगों के केस थे. कम से कम तीन मामलों में पीड़ित भी नाबालिग, आरोपित भी नाबालिग. कस्तूरबा नगर में जो सबसे शर्मनाक घटना घटी उसमें तो महिलाएं भी आरोपित हैं. जिस पखवाड़े दो दिन के अंतर पर राष्ट्रीय बालिका अधिकार दिवस और गणतंत्र दिवस दोनों मनाया जा रहा हो, क्या ये तथ्य ऐसी घटनाओं पर गर्मी पैदा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं?
खबरों की प्राथमिकता का सवाल
इसमें कोई दो राय नहीं कि बीता पखवाड़ा बहुत घटना प्रधान रहा. बेशक अखबारों के संपादकों को उहापोह ने सताया होगा कि कौन सी घटना बड़ी है. उदाहरण देखिए- जिस दिन अपर्णा यादव भाजपा में गईं, एक रेप की खबर थी. जिस दिन आरपीएन सिंह भाजपा में गए, एक और रेप की खबर थी. जिस दिन बालिका अधिकार दिवस के भाषण में प्रधानमंत्री की जबान फिसली (बेटी पढ़ाओ, बेटी पटाओ), उस दिन भी रेप हुआ. जिस दिन गणतंत्र का उत्सव मना, उस दिन इंडिया गेट से 15 किलोमीटर दूर कस्तूरबा नगर में गैंगरेप पीड़िता की सरेसड़क झांकी निकाली गई. मुंह काला कर के. अखबारों ने हर बार पहली वाली घटना को ही लीड बनाया. रेप की खबर या तो सेकंड लीड रही या फिर भीतर के पन्ने में सिमट गई. सेकंड लीड भी बुरी बात नहीं है.
सबसे बुरा तो यह हुआ कि ऐन गणतंत्र दिवस को छपे संस्करणों में आठ साल की बच्ची के साथ 12 साल के लड़कों द्वारा किए गए रेप की खबर को ज्यादातर अखबार निगल गए. जिन्होंने छापा भी, तो चौथे या 10वें पन्ने पर छापा. जाहिर है, गणतंत्र को शर्मिंदा करने की इनकी नीयत नहीं रही होगी, तभी ऐसा किया होगा.
अब फर्ज करिए कि इन अखबारों के संपादकों ने अपने-अपने विवेक से यह तय किया होता कि कम से कम रेप की ऐसी घटनाओं को रोज पहले पन्ने की लीड लेना है जिनमें नाबालिग पक्ष शामिल हो. क्या एक पखवाड़े में 10 दिन लगातार पहले पन्ने की लीड के रूप में ऐसी जघन्य खबरों को पढ़ते रहने से पाठक समाज पर कोई फर्क पड़ता? इस सवाल का जवाब देना मुश्किल है, इस पर हम बाद में आएंगे लेकिन पहला सवाल तो संपादकों से ही किया जाना चाहिए कि उन्हें ऐसा करने का खयाल क्यों नहीं आया?
कहीं ऐसा तो नहीं कि मामला निर्भया की तरह दक्षिणी दिल्ली का नहीं था इसलिए जेहन में ठंड पड़ी रही? ऊपर की तस्वीर में लाल घेरों को देखिए- सीमापुरी, शास्त्री पार्क, नरेला, कस्तूरबा नगर, प्रेम नगर, शालीमार बाग, न्यू उस्मानपुर- क्या ये जगहें सबसे बड़े गणतंत्र की राष्ट्रीय राजधानी का पाताललोक हैं जहां कुछ भी हो सकता है और सब कुछ ऐसे ही वहीं पर खप जाने दिया जा सकता है?
दैनिक जागरण के लिए शायद ऐसी उपेक्षा वाकई बहुत आसान है. उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि पुलिस की जांच पूरी हुई है या नहीं. इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि मरने वाले के रिश्तेदारों का क्या कहना है. इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि कम से कम सही तथ्यात्मक रिपोर्टिंग ही कर ली जाए. केवल इसलिए क्योंकि मामला दिल्ली की तलछट का है, सीमापुरी का? 20 जनवरी को दो अखबारों के पहले पन्नों पर छपी यह खबर देखिए- बाएं हाथ पर जागरण की हेडिंग है और दाएं हाथ पर नवभारत टाइम्स की. दोनों की तुलना करिए.
अब इसी खबर की कवरेज अमर उजाला में देखिए (पहले पन्ने की सेकंड लीड), फिर सोचिए कि एक ही घटना पर जागरण के पाठक और बाकी अखबारों के पाठकों की जहनियत में कितना बड़ा फर्क हो सकता है.
दिल्ली में मध्ययुग का अंधेरा
बहुत दिन नहीं हुए जब दिल्ली के पाताललोक में बुराड़ी नाम की एक जगह पर एक ही घर में 11 लाशें पाई गई थीं. इन हत्याओं के पीछे घर के मुखिया के अंधविश्वास की बात सामने आई थी. अंधविश्वास का लेना-देना फिर भी तार्किक विवेक के अभाव से है इसलिए घटना को अपवाद माना जा सकता है. जहां पूरे विवेक के साथ सचेत रूप से किसी महिला को सरेआम दिन के उजाले में एक समूचे परिवार द्वारा बेइज्जत किया जा रहा हो और पूरा समाज इस घटना को साक्षीभाव से देख रहा हो, वहां मध्ययुगीन अंधेरे के साक्षात्कार होते हैं.
दिल्ली में पंजाब केसरी के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान और दैनिक भास्कर ऐसे अखबार रहे जिन्होंने कस्तूरबा नगर की उक्त घटना को बहुत सघन कवरेज दी है.
ज्यादातर अखबारों के पहले पन्ने पर कस्तूरबा नगर, शालीमार गार्डेन या सीमापुरी जैसी जगहों की डेटलाइन से खबर का छपना अपने आप में जिज्ञासा पैदा करने की चीज होनी चाहिए थी. ऐसा आम तौर से नहीं होता है. खासकर कस्तूरबा नगर की घटना सामान्य घटनाओं की बाढ़ में भुला दी जाने लायक तो कतई नहीं है. वो भी तब जब आप ट्विटर पर धड़ल्ले से तैर रहे उन वीडियो क्लिप्स को देखें जिन्हें खुद अपराधी परिवार ने बनाकर वायरल किया है.
आश्चर्य होता है कि दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल भी उस विवेकहीन भीड़ में शामिल हैं जिन्होंने महिला को कालिख पोत कर सरेराह घुमाया जाने वाला वीडियो अपने खाते से ट्वीट किया है. बीते चार दिन से ऐसे दो वीडियो ट्विटर पर घूम रहे हैं. सबसे ज्यादा निराशाजनक बात वह है जो स्वाति के ट्वीट को रीट्वीट करते हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने लिखी है.
नौ साल पहले भी दिल्ली का लॉ एंड ऑर्डर केंद्र के पास ही था. उस वक्त तो अजीब स्थिति यह थी कि दिल्ली और केंद्र दोनों जगह कांग्रेस की ही सरकार थी. सोचिए, कितना मुश्किल रहा होगा तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के लिए केंद्र को जिम्मेदार ठहराना! उन्होंने एक बार को ऐसा ही कुछ कहा भी था, लेकिन बाद में चीजें बदल गईं जब वे खुद मोमबत्ती जलाने जंतर-मंतर पर पहुंचीं.
अपनी आत्मकथा में वे लिखती हैं, ''निर्भया कांड के बाद मैं बहुत परेशान थी. मेरे परिवार जिसने उस दौरान मेरी पीड़ा देखी थी, ने मुझसे इस्तीफा दे देने का आग्रह किया, जैसा कि पहले से तय भी था लेकिन मुझे लगा कि ऐसा कोई भी कदम पलायन माना जाएगा. केंद्र नहीं चाहता था कि इसका दोष उसके ऊपर सीधे लगे और मैं अच्छे से जानती थी कि केंद्र सरकार पर विपक्ष दोष मढ़ेगा ही, इसलिए मैंने सीधे इसे अपने ऊपर लेने का फैसला किया. किसी को तो दोष की जिम्मेदारी लेनी ही थी.''
आज कांग्रेस न तो दिल्ली में है, न ही केंद्र में. अरविंद केजरीवाल पर नैतिकता व संवेदना का कोई बोझ नहीं है कि वे इस घटना को अपनी सरकार से जोड़ कर देखें और कुछ बोलें. वैसे भी वे पंजाब चुनाव में ज्यादा व्यस्त हैं. केंद्र सरकार हमेशा की तरह चुनावों में व्यस्त है. पर निर्भया कांड के बाद का आंदोलन तो सत्ता पर आश्रित नहीं था? वह आंदोलन तो समाज की उपज था! अगर अखबार इन खबरों को लगातार पहले पन्ने पर छाप ही देते तब भी क्या ही सूरत बदल जाती? क्या समाज वाकई प्रतिक्रिया देता? इंडिया गेट के पार रहने वाला अनुदानित नागरिक समाज आवाज उठाता? वो तो हिंदी के अखबार वैसे भी नहीं पढ़ता! बीते पखवाड़े बलात्कार की जघन्यतम घटनाओं पर भी इंडिया गेट और जंतर-मंतर दोबारा आबाद क्यों नहीं हो सका, ये सोचने लायक बात है.
कोई तो जिम्मा ले...
पांच साल में सरकारें बदलती हैं. समाज को बदलने में बरसों लगते हैं. यह मानना तो कतई मुमकिन नहीं है कि 2012 से 2022 के बीच में दिल्ली का आदमी इतना बदल चुका है कि अब वह सड़क पर घुमाई जा रही गैंगरेप की शिकार महिला का वीडियो देखेगा, ट्वीट करेगा और चुपचाप आगे बढ़ लेगा पर ऐसा हो रहा है. ये नया राहगीर कौन है जिसकी आंखों में शर्म का पानी नहीं बचा? इसे कहां से ऊर्जा मिलती है? वे तमाम पढ़े-लिखे लोग जो कस्तूरबा नगर के वीडियो शेयर कर रहे हैं, किस सोच और संवेदना में कर रहे हैं?
इन सवालों पर अगर बात नहीं की गई तो वही होगा जो जाति-बिरादरी में बंटे हुए एक समाज में हो सकता है. बात अन्याय से मुड़ कर पहचानों पर चली जाएगी और संवेदना के नाम पर राजनीति के रास्ते खोल दिए जाएंगे. भाजपा में हाल ही में आए मनजिंदर सिंह सिरसा का नीचे ट्वीट देखिए और समझिए कि शर्मनाक घटनाओं पर आम समाज के मूक बने रहने से मामले कैसे बिगड़ जाते हैं. अब दलित-सिख होना ही बाकी था, वो भी हो लिया!
दिल्ली में जघन्यता की इन घटनाओं पर अखबारों ने बेशक पर्याप्त रिपोर्ट की है लेकिन जिस एक पक्ष पर अलग से बात की जानी चाहिए थी वह अब भी हमारी आंखों से ओझल है. निर्भया केस में हमारे समाज की हैरत और रोष का केंद्र एक जुवनाइल रेपिस्ट था, किशोर बलात्कारी था. कस्तूरबा नगर आते-आते 2022 में इस अपराधी की उम्र घट चुकी है. अब 10-12 साल का लड़का न केवल अकेले में, बल्कि अपने परिवार के कहने पर परिवार के ही सामने दुष्कर्म कर रहा है.
ये जो नया किशोर, नया परिवार, नया समाज हमें दिख रहा है इसे कहां से ताकत मिल रही है? क्या किसी को बच्चों की चिंता है? केंद्र और दिल्ली के दो चुनाव-प्रेमी आत्मकेंद्रित फोटोकॉपी नेतृत्व के बीच बरबाद हो रहे बचपन का सूद कौन चुकाएगा? कौन लेगा जिम्मा?