“यह सवाल उत्तराखंड के चुनावों में कहां हैं?”

उत्तराखंड में चुनाव चमोली आपदा के ठीक एक साल बाद हो रहे हैं. भूस्खलन, उफनती नदियां, जल संकट और बर्बाद होते जंगल जिन पर सामुदायिक जीवन और मवेशियों का चारा निर्भर है. ये सवाल दलबदल, तोड़फोड़ और लूटखसोट की राजनीति में कहीं खो गए हैं.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
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चेतावनी और आपदा का अंदाजा

पिछले साल आई बाढ़ के बाद कार्बनकॉपी ने तमाम विशेषज्ञों से यह जानने की कोशिश की कि क्या हमारा आपदा प्रबंधन खतरों की बढ़ती संख्या और विनाशकारी ताकत से लड़ने लायक है? संबंधित विभाग के सरकारी अधिकारियों ने यह बात स्वीकार की कि केंद्र और राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग अब भी “पुराने आंकड़ों” के भरोसे ही अधिक हैं जो कि “पहले हुई आपदाओं” से लिए गए हैं जबकि अब क्लाइमेट चेंज के कारण पैदा हुई “नई चुनौतियों” के हिसाब से तैयारी किए जाने की जरूरत है.

यह ध्यान देने की बात है कि ऋषिगंगा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट या धौलीगंगा पर बने एनटीपीसी के निर्माणाधीन पावर प्रोजेक्ट में कोई चेतावनी (अर्ली वॉर्निंग) सिस्टम नहीं था. अगर होता तो कई लोगों की जान बचाई जा सकती थी. आपदा के बाद सरकार ने ऐसा चेतावनी सिस्टम यहां लगाया है लेकिन राज्य में डेढ़ हज़ार मीटर से अधिक ऊंचाई पर चालू करीब 65 पावर प्रोजेक्ट्स में कोई चेतावनी सिस्टम नहीं है.

यद्यपि भारत ने चक्रवाती तूफानों से बचने के लिए बेहतर चेतावनी सिस्टम लगाया है लेकिन हिमालयी क्षेत्रों में जहां बादल फटने और हिमनदों में बनी झील टूटने के ख़तरे हैं, बहुत कुछ किया जाना बाकी है. सवाल है कि यह मुद्दा क्या किसी पार्टी के घोषणा पत्र में दिखेगा.

“एक बेहतर अर्ली वॉर्निंग सिस्टम के लिये जरूरी है कि हमारे पास खतरे को आंकने के लिए एक प्रभावी रिस्क असेसमेंट का तरीका हो,” सरकार के साथ काम कर रहे एक विशेषज्ञ ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “जब तक आपको यह पता नहीं होगा कि कब, कहां और कितना खतरा है आप वॉर्निंग कैसे दे सकते हैं.” एक दूसरे अधिकारी ने कहा कि भारत ने “आपदा के खतरों को कम करने के बजाय आपदा से लड़ने की तैयारियों” में अधिक निवेश कर दिया है.

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन विभाग के संस्थापक सदस्यों में से एक एन विनोद चंद्रा मेनन नई टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल पर जोर देते हैं. उनका कहना है कि “आने वाले कल की चुनौतियों” का सामना “बीते हुए कल के हथियारों” से नहीं हो सकता. टेक्नोलॉजी बदल रही है और नए उपकरण और हल उपलब्ध हैं. हमें आईटी आधारित समाधानों को तेजी से अपनाना होगा जिससे प्रकृति के बदलते स्वभाव को समझने में मदद होगी.

यह बहुत मूलभूत बात है जो हमें करनी है क्योंकि जो लोग इस क्षेत्र में अलग-अलग संस्थानों में पिछले 20 साल से काम कर रहे हैं उन्हें “कुछ नया सीखना” है तो बहुत कुछ पुराना ऐसा है जिसे “भूलना” भी है और इसके लिये बहुत विनम्रता चाहिए,” मेनन ने कहा.

चुनावी शोर में नदारद है यह मुद्दा

पूरा हिमालयी क्षेत्र करीब 10 हजार छोटे-बड़े ग्लेशियरों का घर है. करीब 1000 ग्लेशियर तो उत्तराखंड में पड़ने वाले हिमालयी इलाकों में हैं. सैकड़ों छोटी बड़ी नदियों, जंगलों और अपार जल स्रोत का भंडार होने के कारण इसे धरती का तीसरा ध्रुव यानी थर्ड पोल भी कहा जाता है. इसका रिश्ता सिर्फ पर्यावरण से नहीं करोड़ों लोगों की जीविका और देश के बड़े हिस्से के आर्थिक ढांचे से है. संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों के पैनल (आईपीसीसी) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि साल 2100 तक जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण भारत को जीडीपी में 3-10% सालाना क्षति हो सकती है.

स्थानीय स्तर पर आये दिन बाढ़, भूस्खलन और क्लाइमेट में बदलाव की चोट यहां रह रहे लोगों की जीविका पर तो है ही, बड़ी विकास परियोजनाओं में पर्यावरण नियमों की अनदेखी ने कई गांवों को बर्बाद किया है. पिछले साल रैणी गांव की ममता राणा ने इस डर को बयां किया था. लोग अपने घरों को छोड़कर जिस गांव में बसना चाहते हैं वहां के लोग संसाधनों पर दबाव के कारण इन लोगों को अपने पास नहीं बसाना चाहते. रैणी से कुछ दूर दरक रहे चाईं के जैसे बीसियों गांव हैं जहां जल संसाधनों और कृषि को जल विद्युत परियोजनाओं के लिये किए जा रहे विस्फोटों ने बर्बाद कर दिया है. उत्तराखंड के चुनावों में क्या इस बार राजनेता ये मुद्दे उठायेंगे या जनता इन पर वोट करेगी. यह पर्यावरण या आर्थिक रोड मैप के लिये उनकी समझ का ही नहीं बल्कि सामाजिक चेतना का भी बैरोमीटर होगा.

(साभार- कार्बनकॉपी)

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