डॉक्यूमेंट्री: जमीन से निकलती मौत, पानी में आर्सेनिक बन रहा यूपी-बिहार के हजारों गांवों में काल

पानी में घुली आर्सेनिक से जुड़ी बीमारियां हर साल उत्तर प्रदेश-बिहार में हजारों लोगों की जान ले रही हैं लेकिन यह कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनता, मौजूदा विधानसभा चुनावों में भी नहीं.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
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मजुमदार कहते हैं कि आज पश्चिम बंगाल में करीब 60 लाख लोग ऐसे इलाकों में रहते हैं जहां आर्सेनिकोसिस का प्रकोप है.

“एक लाख से अधिक लोगों में आर्सेनिकोसिस पाया जा चुका है. उनमें कम से कम 8000 लोगों को कैंसर की पुष्टि हुई है,” वह कहते हैं.

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान यानी आईआईटी खड़गपुर की एक स्टडी के मुताबिक आज भारत का 20% हिस्सा आर्सेनिक से प्रभावित है और 25 करोड़ जनता को इससे होने वाली बीमारियों का खतरा है.

सरकारें लंबे समय तक आर्सेनिक की समस्या से अनजान बनीं रहीं जबकि आईआईटी खड्गपुर की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 25 करोड़ लोग आर्सेनिक प्रभावित इलाकों में हैं.

लेकिन लंबे समय तक सरकारों ने पानी में आर्सेनिक की मौजूदगी और इससे मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव को स्वीकार नहीं किया. विशेष रूप से यूपी, बिहार जैसे राज्यों में. अपनी पड़ताल के दौरान इस रिपोर्टर ने पाया कि कई अधिकारी अब भी आर्सेनिक की अधिकता वाले क्षेत्रों में हो रही बीमारियों के लिए पानी में इस तत्व की मौजूदगी को कारण नहीं मानते. मिसाल के तौर पर प्रयागराज जिले के हंडिया और कौड़ीहार के ब्लॉक्स के मरीजों में आर्सेनिकोसिस के लक्षण हैं लेकिन सरकारी कागजों में पूरे जिले में आर्सेनिकोसिस कोई समस्या नहीं है. केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय ने 13 दिसंबर 2021 को राज्यसभा में आर्सेनिक समस्या से संबंधित सवाल के जवाब में प्रभावित जिलों की जो लिस्ट सदन में रखी उसमें प्रयागराज जिला नहीं है. इस बारे में हमने राज्य पेय जल और स्वच्छता मिशन के अधिकारियों को सवाल भेजे लेकिन अभी तक उनका जवाब नहीं मिला है. जवाब मिलने पर इस रिपोर्ट में उसे शामिल किया जाएगा.

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महावीर कैंसर संस्थान के अशोक कुमार घोष कहते हैं, “हम लोगों ने 2003 में काम करना शुरू किया था. तब हमने पटना, भोजपुर, भागलपुर और वैशाली में काम किया. लोगों ने हमारी विश्वास नहीं किया. खासतौर पर सरकार ने कहा कि ये बकवास है ये वैज्ञानिक लोग यूं ही बकते रहते हैं कुछ न कुछ. आर्सेनिक बांग्लादेश में होगा लेकिन बिहार में कुछ नहीं है.”

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के इलाकों में इस संकट का अलार्म सबसे पहले आर्सेनिक विशेषज्ञ दीपंकर चक्रवर्ती ने बजाया जो अब जीवित नहीं हैं. पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में आर्सेनिकोसिस पर रिसर्च कर चुके दीपंकर चक्रवर्ती (जिनकी 2018 में मृत्यु हो गई) ने 2000 के दशक के शुरुआती सालों में अपनी पहली रिपोर्ट सरकार को दी जिसमें यूपी और बिहार के आधा दर्जन जिलों में आर्सेनिक की मौजूदगी के प्रमाण दिए गए.

दीपंकर चक्रवर्ती के सहयोगी रहे और बनारस स्थित एनजीओ इनर वॉइस फाउंडेशन के सौरभ सिंह कहते हैं, “हमारा प्रारंभिक अनुभव ये था कि उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा के किनारे के गांवों में कुछ लोगों की रहस्यमय तरीके से मृत्यु होती थी. करीब 40-45 की उम्र आते-आते गंगा के किनारे के गांवों में काफी लोगों की मौत हुई. जब दीपंकर चक्रवर्ती ने ये पूरी स्टडी की तो खुलकर सामने आया कि इसमें आर्सेनिक है. हम लोग गांवों में काम करते थे. मेडिकल स्टाफ द्वारा मरीजों के टेस्ट किए गए और उनके फोटोग्राफ लिए गए. इन लोगों को आर्सेनिकोसिस था लेकिन सरकार के साथ बीसियों बार मीटिंग के बाद भी हमें अधिकारियों को यह विश्वास दिलाने में कई साल लग गये कि यूपी और बिहार में भी आर्सेनिक है क्योंकि हम जब जाते तो उनका ये रटा-रटाया जवाब होता कि आर्सेनिक तो पश्चिम बंगाल में है. यूपी-बिहार में आर्सेनिक नहीं है.”

‘अब किसी सुबूत की जरूरत नहीं’

पटना से करीब 100 किलोमीटर दूर भोजपुर के चकानी गांव में अभिमन्यु सिंह की मां लालपरी की कुछ साल पहले कैंसर से मौत हो गई. अभिमन्यु कहते हैं कि डॉक्टरों ने उन्हें बताया कि उनकी मां की मौत की असली वजह पानी में मौजूद आर्सेनिक है. आर्सेनिकोसिस के स्पष्ट लक्षण त्वचा पर दिखते हैं जो लालपरी के शरीर पर भी थे.

अभिमन्यु बताते हैं, “यहां गंगाजी के पास होने के कारण पानी तो प्रचुरता में उपलब्ध है लेकिन क्या करें जो भी ग्राउंड वाटर हम लोग इस्तेमाल करते हैं उसमें बहुत आर्सेनिक है और यह कैंसर ही नहीं कई दूसरी बीमारियां भी कर रहा है और शरीर के हर अंग को बीमार कर रहा है. यह बात सिर्फ एक परिवार तक सीमित नहीं है.”

पटना के एएन कॉलेज में पर्यावरण और जल प्रबंधन विभाग के साथ-साथ जियोग्राफी डिपार्टमेंट की प्रोफेसर नुपूर बोस पिछले करीब 20 सालों से आर्सेनिक प्रभावित इलाकों में सक्रिय हैं. उन्होंने आर्सेनिकोसिस के मरीजों का प्रोफाइल और विशाल डाटा बेस तैयार किया है.

वह कहती हैं, “अभी महावीर कैंसर संस्थान, जिसके साथ मिलकर हम कई प्रोजेक्ट्स में वैज्ञानिक रिसर्च का काम करते हैं, में आ रहे मरीजों में कैंसर पीड़ितों की संख्या बढ़ती जा रही है. यह पता चला है कि ये मरीज उन्हीं जगहों से आ रहे हैं जिनकी पहचान 2004 और 2005 में हमने आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों के रूप में की थी. हमें उन लोगों के नाम तक याद हैं. हमने अपने डाटाबेस की जांच की और पाया कि (कैंसर के) ये मरीज तो वही लोग हैं जिनके यहां ऐसे हैंडपंप लगे थे जिनमें आर्सेनिक बहुत अधिक था. हमने दोबारा उन इलाकों का दौरा किया और इस तथ्य का सत्यापन किया है.”

डॉ अशोक घोष कहते हैं कि अब किसी सुबूत की जरूरत नहीं है कि पानी में आर्सेनिक के कारण कैंसर हो रहा है क्योंकि आज के दिन महावीर कैंसर संस्थान में हम लोगों के पास सैकड़ों, हजारों मरीजों का रियल फोटोग्राफ है जिन्हें आर्सेनिकोसिस है और कैंसर भी है.

पटना के महावीर कैंसर संस्थान में बड़ी संख्या में आर्सेनिकोसिस के मरीज आते हैं. यहां शोधकर्ताओं का कहना है कि कैंसर के लगभग सारे मरीज आर्सेनिक प्रभाव वाले इलाकों से आ रहे हैं.

वह कहते हैं, “पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि कैंसर के तमाम मरीज इन्हीं इलाकों से हैं और इन्हें आर्सेनिकोसिस है. खास तौर से गॉल ब्लैडर कैंसर का आर्सेनिक के साथ मजबूत को-रिलेशन मिला है जिस पर हम लोग रिसर्च भी कर रहे हैं. जितने भी मरीज आ रहे हैं वो आर्सेनिक हॉट-स्पॉट से आ रहे हैं.”

कम उम्र में हो रही मौतें

भारत में पुरुषों और महिलाओं की जीवन प्रत्य़ाशा करीब 67 से 70 साल है लेकिन आर्सेनिक प्रभावित इलाकों में इसके कारण लोगों की असमय मृत्यु हो रही है.

जिन गांवों में आर्सेनिक की समस्या है वहां के लोग इसकी तस्दीक करते हैं. पश्चिम बंगाल के बदुरिया ब्लॉक में 53 साल के पंचानन सरदार कहते हैं कि 1980 के दशक में जब 40 और 50 साल से कम उम्र के लोग मरने लगे तब लोगों को पानी के दूषित होने का शक हुआ. वह बताते हैं, “उसी दौर में विशेषज्ञों की टीम उनके गांव में आई और इस समस्या का पता चला. लेकिन साफ पानी अब तक भी यहां नहीं पहुंचा. कम उम्र के लोग आज भी मर रहे हैं.”

बिहार के भोजपुर में राजेन्द्र यादव की मां समल देवी की मौत कुछ साल पहले कैंसर से हुई. वह कहते हैं, “यहां कम उम्र में मौत होना स्वाभाविक सी बात हो गई है. लोग गरीब हैं. दूषित पानी पीने को मजबूर हैं. बीमार पड़ने पर उनके पास इलाज का पैसा नहीं होता. उनका खानपान बहुत पौष्टिक नहीं है. ऐसे में वह मरेंगे नहीं तो क्या होगा?”

पिछले 15 सालों से पूर्वांचल के गांवों में आर्सेनिक मरीजों की मदद और इस बीमारी से लड़ने में सामुदायिक भागीदारी बढ़ाने में लगे समाजिक कार्यकर्ता चन्द्रभूषण सिंह ने कई लोगों को युवावस्था में बीमार पड़ते और मरते देखा.

वह कहते हैं, “इस समस्या की ओर विशेषज्ञों का ध्यान ही तब गया जब उन्होंने देखा कि इन गांवों में बड़ी संख्या में कम उम्र के लोग मर रहे हैं. आज आप देखिए कि इन गांवों में आपको कहीं बुजुर्ग नहीं मिलेंगे. 55-60 की उम्र से अधिक कोई बचता नहीं है. जिन लोगों की खानपान की व्यवस्था सुदृढ़ है और जो लोग खरीद कर स्वच्छ पानी पी सकते हैं वो ही अपेक्षाकृत सुरक्षित और स्वस्थ हैं वरना कम उम्र में मौत यहां एक हकीकत है.”

अगले हिस्से में- खाद्य श्रृंखला में आर्सेनिक और सामाजिक तानेबाने पर इसका असर

(आर्सेनिक पर ग्राउंड रिपोर्ट्स की यह सीरीज ठाकुर फैमिली फाउंडेशन के सहयोग से की गई है. ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने इस रिपोर्ट/ सीरीज में किसी तरह का संपादकीय दखल नहीं किया है)

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