किसी देश का हाल कैसा है, यह उसकी विदेश-नीति बता देती है.
बांग्लादेश संघर्ष के समय जयप्रकाश नारायण ने भारत की विदेश-नीति में एक नैतिक हस्तक्षेप करते हुए, उसे एक कालजयी आधार दिया था कि लोकतंत्र का दमन किसी देश का आंतरिक मामला नहीं है. इस आधार पर म्यांमार के मामले में भारत की घिघियाती चुप्पी उसे चीन के समक्ष घुटने टेकती दिखाती है. भारत की डिप्लोमेसी का कोई अध्येता जब आज से सालों बाद यह प्रकरण खोज निकालेगा तो वही नहीं, पूरा भारत शर्मिंदा होगा कि इस पूरे प्रकरण में भारत ने इतना साहस भी नहीं दिखाया कि अपराध को अपराध कहे और अंतरराष्ट्रीय दवाब खड़ा करने की मुखर कोशिश करे. और जब सवाल हांगकांग का आएगा तब भी और जब ताइवान का आएगा तब भी, भारत की भूमिका कहां और कैसे खोजी जाएगी?
चीन का विस्तारवादी रवैया हांगकांग को भी और ताइवान को भी अपना उपनिवेश बना कर रखना चाहता है. हांगकांग का मामला तो एक उपनिवेश से छूट कर दूसरे उपनिवेश का जुआ ढोने जैसा है. यदि इग्लैंड में थोड़ी भी आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना होती तो वह 1842 की नानकिंग जैसी प्राचीन व अनैतिक संधि की आड़ में हांगकांग को चीन को सौंप नहीं देता बल्कि कोई ऐसा रास्ता निकालता (जनमत संग्रह!) कि जिससे हांगकांग की लोकतांत्रिक चेतना को जागृत व संगठित होने का मौका मिलता. लेकिन खुद को लोकतंत्र की मां कहने का दावा करने वाले इंग्लैंड ने भारत विभाजन के वक्त 1946-47 में जैसा गंदा खेल खेला था, उसने वैसा ही गंदा खेल 1997 में खेला और हांगकांग को चीन के भरोसे छोड़ दिया. भारत ने तब भी इस राजनीतिक अनैतिकता के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई और अब भी नहीं जब दमन-हत्या व कानूनी अनैतिकता के रास्ते चीन हांगकांग को निगल जाने में लगा है.
ताइवान के बारे में ऐसा माहौल बनाया गया है मानो वह तो चीन का ही हिस्सा था. यह सच नहीं है. ताइवान में जिस जनजाति के लोग रहते थे उनका चीन से कोई नाता नहीं था. लेकिन डच उपनिवेशवादियों ने ताइवान पर कब्जा किया और अपनी सुविधा के लिए वहां चीनी मजदूरों को बड़ी संख्या में ला बसाया. यह करीब-करीब वैसा ही था जैसा बाद में तिब्बत के साथ हुआ. ताइवान ने 1949 में चीन से खूनी गृहयुद्ध के बाद अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम किया और धीरे-धीरे एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप में अपनी जगह बनाई. अब चीन उसे उसी तरह लील लेना चाहता है जिस तरह उसने तिब्बत को लील लिया है. साम्राज्यवाद की भूख दानवी होती है. हांगकांग और ताइवान दोनों ही साम्राज्यवाद का दंश भुगत रहे हैं. फिर भारत चुप क्यों है?
क्या उसे ताइवान व हांगकांग के समर्थन में दुनिया भर में आवाज नहीं उठानी चाहिए ताकि इन देशों की मदद हो, और चीन को कायर चुप्पी की आड़ में अपना खेल खेलने का मौका न मिले ? आज भारतीय विदेश-नीति का केंद्र-बिंदु चीन को हाशिए पर धकेलते जाने का होना चाहिए न कि चीन की तरफ पीठ कर, उसे हमारी सीमा पर सैन्य-निर्माण का अवसर देने का होना चाहिए. बाजार ही जिनकी राजनीति-अर्थनीति का निर्धारण करता है उन्हें भी यह कौन समझाएगा कि कुछ मूल्य ऐसे भी होते हैं जिनकी खरीद-बिक्री नहीं होती है, नहीं होनी चाहिए? लेकिन ऐसा करने का नैतिक बल तभी आता है जब आप देश के भीतर भी ऐसे मूल्यों के प्रति जागरूक व प्रतिबद्ध हों.
भारत के राजनीतिक हित का संरक्षण और चीन को हर उपलब्ध मौकों पर शह देने की रणनीति आज की मांग है. इस दृष्टि से महत्वपूर्ण देशों के साथ संपर्क-संवाद की खासी कमी दिखाई देती है. विदेश-नीति गूंगे के गुड़ चुहलाने जैसी कला नहीं होती है. यह सपने देखने और बुनने की बारीक कसीदाकारी होती है.
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं)