मुक्तिबोध की एक कविता के 'जुलूस' में कैद वर्तमान

इस कविता में व्यापे हुए फासिस्ट जुलूस का लोकतांत्रिक प्रतिकार 'अभिव्यक्ति' है किंतु यह अभिव्यक्ति मिडिल क्लास के खलिहरपन से पैदा हुई अभिव्यक्ति नहीं है.

WrittenBy:एकांत गोशाल
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

हिंदी साहित्य में एक कवि हुए हैं- गजानन माधव मुक्तिबोध. पैदाइश सन 1917 की और मृत्यु 1964 की. 1962 के आसपास रचित और पचास से अधिक पन्नों में समाने वाली उनकी लिखी एक असाधारण कविता का नाम है- 'अंधेरे में'. इस कविता में जिक्र हुआ है एक 'जुलूस' का. कविता के इतने संक्षिप्त परिचय के साथ अब आरंभ होता है मेरी बात का. मेरी इस बात की पंच लाइन यह है कि मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' में जिस 'अजीब', 'विचित्र प्रोसेशन', 'गंभीर क्विक मार्च, जुलूस' का जिक्र हुआ है वही 'जुलूस' मेरा समकालीन यथार्थ है. मुक्तिबोध के गम्भीर, समग्र समीक्षक क्षमा करें. मुझे कविता के लगभग इसी हिस्से से मतलब है.

शहर के किसी 'सिविल लाइन्स' इलाके में कविता के नायक का घर है. यहां वह 'अपने कमरे में पिटे गए बालक सा मार खाया हुआ उदास, इकहरा चेहरा लेकर पड़ा हुआ है' लेकिन 'उसकी आंखें खुली हुई हैं'. वह अपने परिवेश की विचित्रता की, यदि हूबहू नहीं तो कम से कम तुलनीय स्तर की ऐसी लाक्षणिक पुनर्रचना करता है जैसी दोस्तोवस्की की रचना 'नोट्स फ्रोम अंडरग्राउंड' का चालीस वर्षीय और स्वयं को दुष्ट, खूसट और दूसरों के विनाश में रस लेने वाला एवं भूतपूर्व सिविल सर्वेंट बताने वाला कथा-नायक करता है. दोस्तोवस्की के 'नोट्स फ्रोम अंडरग्राउंड' के गद्य नायक का संसार संशयात्मक है. वह मूल्यों के चयन की दुविधा से त्रस्त है. मुक्तिबोध का काव्य-नायक भयात्मक दुनिया की पेशगी करता है. वह दुनिया जो उसके सामने मौजूद है.

वह दुनिया जो दुष्टताओं के सामूहिक गठबंधन से तैयार हो रही है. ऐसी दुनियाओं की रचना एक भुतहे माहौल का सहवर्ती निर्माण भी है. इसलिए यह जुलूस किसी निस्तब्ध नगर के 'मध्य रात्रि अंधेरे के सुनसान' में बनना शुरू होता है. सत्ताएं अपने सारे कुटिल कर्म नागरिकों के सो जाने के ठीक बाद शुरू करती हैं. काव्य नायक परेशान है. अंधेरे में शिनाख्त करना एक मुश्किल कर्म बन जाता है. जैसे जैसे 'गैसलाइट के पांतों' की रोशनाई छिटकती है, जुलूस की बनावट नजर आने लगती है. शहर अपनी 'गहन अवचेतना' में खोया हुआ है (यह अवचेतन ऐसा है जिसे नाजी जर्मनी की दशा का बयान करते हुए मार्शल मैकलूहॉन ने सॉम्नैम्ब्युलिजम somnambulism कहा था ) और बाहर सड़कों पर 'गंभीर क्विक मार्च' परवान चढ़ रहा है. बैंड दल 'कलाबत्तूवाली जरीदार ड्रेस' पहने है. उनके हाथों में 'आंतों के जालों से उलझे हुए बाजे हैं'. मैं ऊपर जिस समकालीन वास्तविकता की बात कर रहा था, ठीक यहीं इस बैंड दल की संरचना में वह प्रस्फुटित होनी शुरू होती है. इस बैंड दल में 'लोगों के चेहरे मिलते हैं मेरे देखे हुओं से' जाने पहचाने लोग भी शामिल हैं. नायक यह देखकर हतप्रभ हो उठता है-

'उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार

इसी नगर के !!

बड़े बड़े नाम अरे,

कैसे शामिल हो गए इस बैंड दल में !!'

मुक्तिबोध अवलोकित इस बैंड दल के संरचनात्मक घटक बौद्धिक तो हैं ही वह दंडात्मक भी हैं. जैसे हिटलर को एक ही साथ गेस्टॉपो और रिचर्ड वैगनर दोनों पसंद थे. इस बैंड दल में 'संगीन नोकों का चमकता जंगल' भी है और 'कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण' भी, जिनके 'चित्र समाचार पत्रों में छपे थे, उनके लेख देखे थे, यहां तक कि कविताएं पढ़ी थीं, भई वाह, उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक विचारक, जगमगाते कविगण, मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान'.

काव्य नायक का सर भन्नाया हुआ है. उसकी आखें फटी पड़ती हैं. वह इस जुलूस में 'शहर के कुख्यात हत्यारा डोमाजी उस्ताद' को शामिल पाता है. बारीकी से देखने वाले को यह बात कचोट सकती है कि इस जुलूस में दंड देने वाली वही एजेंसियां अधिक आयी हैं जो शरीर पर चोट करती हैं, मसलन- टैंक-दल, मोर्टार, आर्टिलरी, सैनिक, सिपाही, कर्नल, जनरल, पहरेदार. बात अब इनसे बहुत आगे निकल आयी है. समकालीन जुलूस में दंड देने वाले से अधिक महत्व रगड़ा लगाने वाली एजेंसियों का है. विशुद्ध दांडिक एजेंसियां केवल फ्लैंक का निर्माण करती हैं. यदि आप इस जुलूस के समकालीन संस्करण की कल्पना करें तो उसमें में ईडी, आयकर, सीबीआई को शामिल समझें. मुक्तिबोध के काव्य नायक के युग में ये या तो अदम-वजूद थीं या फिर इस्तेमाल के नजरिए से शैशवीय. खैर, कविता का नायक इस जुलूस के मंतव्य समझने की ओर बढ़ता है और वह मंतव्य यह है कि 'भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब, साफ उभर आया है, छुपे हुए उद्देश्य यहां निखर आए हैं'.

मुक्तिबोध का काव्य नायक जुलूस में शामिल प्रकाण्ड विद्वानों और विचारकों को देखकर जुलूस को वैधता नहीं देता. वह आतंकित होता है लेकिन प्रभावित नहीं होता. वह डरता जरूर है लेकिन उसमें शामिल नहीं होता जबकि जुलूस की बौद्धिक संरचना दर्शक की चेतना पर हावी हो सकने की सारी शक्तियों से लैस है. 1929 में इटली के अपने भ्रमण और मुसोलिनी से मिलने के बाद ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक जी. के चेस्टरटन 'जुलूसों' से आतंकित होने की जगह प्रभावित हुए थे. 'जरीदार ड्रेस' पहने हुए कोई जुलूस रहा होगा जिसे देखकर चेस्टरटन ने मुसोलिनी की तारीफ में यह फरमाया था-

‘ ..the very faces of the crowd carrying the eagles or the fasces *are not the shifty obliterated faces of the modern mob, but those of the old Roman busts…..So far as a man may give the sense of his experience in a single phrase: he has seen the return of the Romans’

(Fasces* एक तरह का बैटन होता था जिसे प्राचीन रोम के मजिस्ट्रेट धारण करते थे. वह रोमन साम्राज्य की निरंकुश अधिकारिता का प्रतीक था. इसी फासिस शब्द से वर्तमान फासीवाद शब्द प्रचलन में आया)

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

अपने समय की अमानवीय भव्यताओं से प्रभावित न होना भी कितना मुश्किल है! क्या अपनी कविताओं में सुकोमल और संक्षिप्त प्रणय बिंबों की रचना करने वाले एजरा पाउंड (1885-1972) इन अमानवीय भव्यताओं से बच सके थे? वह दीवानों की हद तक फासिस्ट प्रॉपगेंडा के उद्घोषक बन गए थे! रुडयार्ड किप्लिंग (1865-1936) जैसे साम्राज्यवादी लेखक का समर्थन समझ आता है किंतु क्या एच जी वेल्स (1866-1946) और जी बी शॉ (1856-1950) जैसे लेखक इन जुलूसों के अंतर्विरोधों पकड़ सके थे! मुक्तिबोध की इस कविता का यही वह आयाम है जो 'अंधेरे में' को एक विराट वैश्विक रचना का संदर्भ देता है. यह संदर्भ है: अपने युग की अमानवीय भव्यताओं से अप्रभावित रहने का मानदंड. 'छिपे हुए उद्देश्यों की पहचान' करने के बाद मुक्तिबोध का काव्य नायक भागना शुरू कर देता है. वह सत्ता द्वारा 'सर्विलांस' पर ले लिया जाता है. यह तब की बात है जब पेगसस नहीं हो सकता था इसलिए यह दैहिक सर्विलांस है जिसमें किसी सिपाही या मुखबिर द्वारा आदमी का पीछा किया जाता है. काव्य नायक बदहवास है-

'कोई मेरा पीछा कर रहा है लगातार

भागता मैं दम छोड़

घूम गया कई मोड़

चौराहा दूर से ही दिखता

वहां शायद कोई सैनिक, पहरेदार

नहीं होगा फिलहाल'

यदि आप ऐसे किसी फासिस्ट जुलूस को सिर्फ देखते भर हैं और चुप लगा जाते हैं तो उस हद तक तक कोई समस्या नहीं है. बचना है तो इस जुलूस का हिस्सा बनना होगा या चुप लगाए हुए किसी 'सिविल लाइन्स' के कमरे में पड़े रहना होगा. इस जुलूस की रचना की सजग शिनाख्त दिक्कतों को निमंत्रण है. जैसे ही काव्य-नायक 'छुपे हुए उद्देश्यों' की पहचान की तरफ बढ़ता है, 'प्रोसेशन में से कुछ रोष भरी आंखें' उसकी ओर उठ जाती हैं. शोर मचने लगता है. जुलूस में से आवाज आती है- 'मारो गोली, दागो साले को एकदम'. नायक पसीने से सराबोर धका-पेल गैलरी से भागता है. उसके अवचेतित स्वप्न चित्र बिखर जाते हैं, किंतु वह सुबह उठकर देखता है-

'गहन मृतात्माएं इसी नगर की, हर रात जुलूस में चलतीं, परंतु दिन में, बैठती हैं मिलकर करती हुईं षड्यंत्र, विभिन्न दफ्तरों-कार्यालयों, केंद्रों में, घरों में, हाय-हाय! मैंने उन्हें, देख लिया नंगा, इसकी मुझे और सजा मिलेगी'.

सत्ता की अमानवीयता की शिनाख्तगी में लगे लोगों को सजा के लिए तैयार रहना चाहिए. 'अंधेरे में' का नायक भागना शुरू करता है और इसी भागम-भाग में अपनी आत्मा की तलाश भी करता है. उपेक्षितों और वंचितों के लिए उसकी वर्गीय निस्पृहता उसकी आत्मा का कोढ़ बन जाती है. मुक्तिबोध की कविताओं में आत्म-धिक्कार इस निस्पृहता के निवारण की ओर एक उठा हुआ कदम है. उनका काव्य-नायक 'अपने ही खयालों में दिन रात रहने वाले 'आदर्शवादी' और 'सिद्धांतवादी' मन से सवाल करता है कि-

'अब तक क्या किया

जीवन क्या जिया

बताओ तो किस किस के लिए तुम दौड़ गए

करुणा के दृश्यों से हाय! मुंह मोड़ गए

बन गए पत्थर

बहुत बहुत ज्यादा लिया

दिया बहुत-बहुत कम

मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम!!

यहां आकर 'अंधेरे में' का काव्य-नायक अपनी वैयक्तिकता का विस्तार अपनी वर्गीय अस्मिता की ओर करना शुरू करता है. वह अपने वर्ग अर्थात मिडिल क्लास की परतें अपने हाथों छीलने लगता है. यह वर्ग बातों का वीर है. उपेक्षितों और वंचितों के विशाल जन समूह के मुद्दों से बेगाना है. उसकी जिंदगी एक 'निष्क्रिय तलघर' से अधिक नहीं है. मौजूदा परिप्रेक्ष्य में यह 'तलघर' ब्लू- टिकधारी ट्विटर है. मुक्तिबोध की यह कविता फासिस्ट प्रवृत्तियों और उसके हमदर्द साथियों की एक साहसिक शिनाख्त परेड है. इस शिनाख्त परेड में कदाचित सबसे प्रासंगिक शिनाख्त 'भव्याकार भवनों के विवरों में छिपे हुए' समाचार-पत्रों के मालिकों की है जो सत्ता के 'क्रीतदास' में बदल चुके हैं. वह देखता है कि-

'सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक

चिंतक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं

उनके ख़्याल से यह सब गप है

मात्र किवदंती'

इस कविता में व्यापे हुए फासिस्ट जुलूस का लोकतांत्रिक प्रतिकार 'अभिव्यक्ति' है किंतु यह अभिव्यक्ति मिडिल क्लास के खलिहरपन से पैदा हुई अभिव्यक्ति नहीं है. यह सकर्मक अभिव्यक्ति है. इसे अर्जित करने के लिए खयाली दुनिया के 'निष्क्रिय तलघरों' से बाहर निकल कर गलियों के तापमान के साथ गलियों में जाना अपरिहार्य है. काव्यांत में मुक्तिबोध की कविता का नायक समाधान पा जाता है-

'इसलिए मैं हर गली में

और हर सड़क पर

झांक झांक कर देखता हूं हर एक चेहरा

प्रत्येक गतिविधि, प्रत्येक चरित्र

व हर एक आत्मा का इतिहास'

हमारे किसी नायक के पास मुक्तिबोध से काव्य नायक सा जीवट नहीं है कि वह गली गली जाकर प्रत्येक गतिविधि, प्रत्येक चरित्र को झांकता फिरे. यह फासिस्टों के फसल काटने की ऋतु है. उदारवादियों जिन्हें ट्रोल दलों से 'लिब्रांडुओं' नाम की उपाधि मिली है, के लिए यह घनघोर ठंडी बीयर पीते हुए सुविधाओं में बैठकर परिवर्तन की कल्पना करने का खलिहर समय है. सम्प्रति, हमारे पास कोई समाधान नहीं है.

Also see
article imageमुक्तिबोध जाति प्रसंग: ‘मुक्तिबोध को ब्राह्मण किसने बताया?’
article imageमुक्तिबोध की जाति और जाति-विमर्श की सीमा
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like