जीतनराम मांझी का बयान राजनीतिक दांव या एक सामाजिक सच्चाई

दलितों के साथ सामाजिक दूरी कमोबेश आज भी बदस्तूर जारी है. जिसे विवाह समारोह से लेकर मृत्यु तक उनसे बनाई गई दूरी में देखा जा सकता है.

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दलितों के साथ सामाजिक दूरी कमोबेश आज भी बदस्तूर जारी है. जिसे विवाह समारोह से लेकर मृत्यु तक उनसे बनाई गई दूरी में देखा जा सकता है. अगर उनकी सहभागिता इन सामुदायिक उत्सवों आदि में है भी तो हीन दर्जे का ही है या फिर हीन ही माना जाता है. उनका यह प्रश्न वस्तुतः एक आइना है उस समाज के लिए जो यह दावा करते हैं कि भारतीय समाज में दलितों के साथ भेदभाव नहीं होता है. इस भेदभाव को समझने के लिए न तो इतिहास में झांकने की जरूरत है और न ही धर्म-शास्त्र के गंभीर चिंतन में घुसने की जरूरत. बस आवश्यकता है अपने व्यक्तिगत जीवन से लेकर वर्तमान समाज में देखने का साहस. जवाब खुद-ब-खुद मिल जाएगा.

तेलंगाना में एक सरकारी शोध के सिलसिले में हमने अपने एक मुस्लिम मित्र और एक दलित मित्र के साथ एक विख्यात मंदिर जाने का निर्णय लिया. हालांकि दलित मित्र चर्च जाने का अभ्यस्त था फिर भी हमारे अनुरोध पर या फिर दबाव कहें, वह मंदिर जाने को तैयार हुआ. हम मंदिर के प्रांगण के भीतर प्रवेश कर गए और हम सबने तिलक भी लगाया, लेकिन प्रांगण के भीतर का माहौल कुछ ऐसा था कि मेरे मुस्लिम मित्र की हिम्मत नहीं हुई उसके गर्भ-गृह में प्रवेश करें और फिर हमने उन्हें प्रांगण में ही ठहरने का निर्देश देकर अपने दलित मित्र के साथ गर्भ-गृह में प्रवेश किया, लेकिन यह हमें भी पता नहीं था कि गर्भ-गृह में भक्तों से पण्डे जाति, कुल, मूल आदि पूछते हैं तब “भगवान” तक हमारी बात पहुंचाते हैं.

जब हमारे दलित मित्र से भी उनका कुल, मूल आदि पूछा गया तो वह घबरा गया, लेकिन किसी तरह हमने स्थिति को संभाल लिया. सवाल है कि क्या मंदिर में “भगवान” से भेंट-मुलाकात करने के लिए कुल-मूल-जाति आदि के पूछे जाने की सार्थकता है? क्या मंदिर में प्रवेश करने के लिए एक मानव होना पर्याप्त नहीं है? आखिर भगवान और भक्त के बीच में ऐसे पण्डे और पुरोहितों की उपयोगिता क्या है? मंदिर के पण्डे और पुजारी तो महज परिसर की देख-रेख करने वाले एक केयर-टेकर की तरह होते हैं जिनका काम मंदिर की सुरक्षा और साफ-सफाई करना है इससे अधिक कुछ भी नहीं, जैसा कि कुछ मामलों में माननीय न्यायालय ने भी पंडों और पुरोहितों को “केयर-टेकर” का ही दर्जा दिया है.

अब हमारे सामने दो आरोपी हैं- एक मांझी जिन्होंने पुरोहितों के बारे में कुछ “आपत्तिजनक” बोला, और दूसरा वे लोग जिन्होंने उनके बयान पर उनकी जीभ और गर्दन काटने का फतवा जारी किया. मांझी के बयान में कुछ भी विवादस्पद और आपत्तिजनक नहीं था, बल्कि यह समाज के एक अमानवीय सच को सामने लाने का एक प्रयास कहा जा सकता है. इस साहस के लिए तो उनकी सराहना की जानी चाहिए थी कि उन्होंने समाज के भीतर के उस सूक्ष्म-भेदभाव पर जागरूकता फैलाई जिसपर आमतौर पर जाने-अनजाने सामाजिक विचारक, राजनेता या पत्रकार मौन रहते हैं. इनके बयान को कत्तई विवादस्पद नहीं माना जाना चाहिए था. खैर! विवादस्पद और आपत्तिजनक अगर कुछ हुआ भी तो उनकी तरफ से हुआ जिन्होंने मांझी की जीभ और गर्दन काटने का फतवा जारी किया. यह लोकतान्त्रिक-दिवालियेपन की चरम स्थिति है.

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