डेसमंड टूटू: नस्लभेद के खिलाफ आजीवन संघर्षरत रहे एक योद्धा संत का अंत

डेसमंड टूटू दक्षिण अफ्रीका जैसे सुदूर देश के थे लेकिन हमें वे बेहद अपने लगते थे क्योंकि गांधी के भारत से और भारत के गांधी से उनका गर्भनाल वैसे ही जुड़ा था जैसे उनके समकालीन साथी व सिपाही नेल्सन मंडेला का.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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नेल्सन मंडेला ने जब दक्षिण अफ्रीका की बागडोर संभाली तो रंगभेद की मानसिकता बदलने का वह अद्भुत प्रयोग किया जिसमें पराजित श्वेत राष्ट्रपति दि’क्लार्क उनके उप-राष्ट्रपति बन कर साथ आए. फिर ‘ट्रुथ एंड रिकौंसिलिएशन कमिटी’ का गठन किया गया जिसके पीछे मूल भावना यह थी कि अत्याचार व अनाचार श्वेत-अश्वेत नहीं होता है. सभी अपनी गलतियों को पहचानें, कबूल करें, डंड भुगतें तथा साथ चलने का रास्ता खोजें. सामाजिक जीवन का यह अपूर्व प्रयोग था. अश्वेत-श्वेत मंडेला-क्लार्क की जोड़ी ने डेसमंड टूटू को इस अनोखे प्रयोग का अध्यक्ष मनोनीत किया. दोनों ने पहचाना कि देश में उनके अलावा कोई है नहीं कि जो उद्विग्नता से ऊपर उठ कर, समत्व की भूमिका से हर मामले पर विचार कर सके.

सत्य के प्रयोग हमेशा ही दोधारी तलवार होते हैं. ऐसा ही इस कमीशन के साथ भी हुआ. सत्य के निशाने पर मंडेला की सत्ता भी आई. अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की आलोचना भी डेसमंड टूटू ने उसकी साहस व बेबाकी से की जो हमेशा उनकी पहचान रही थी. सत्ता व सत्य का नाता कितना सतही होता है, यह आजादी के बाद गांधी के संदर्भ में हमने देखा ही था; अब डेसमंड टूटू ने भी वही देखा. लेकिन कमाल यह हुआ कि टूटू इस अनुभव के बाद भी न कटु हुए, न निराश! बिशप के अपने चोगे में लिपटे टूटू खिलखिलाहट के साथ अपनी बात कहते ही रहे.

अपने परम मित्र दलाई लामा के दक्षिण अफ्रीका आने के सवाल पर सत्ता से उनकी तनातनी बहुत तीखी हुई. सत्ता नहीं चाहती थी कि दलाई लामा वहां आएं; टूटू किसी भी हाल में ‘संसार के लिए आशा के इस सितारे’ को अपने देश में लाना चाहते थे. आखिरी सामना राष्ट्रीय पुलिस प्रमुख के दफ्तर पर हुआ जिसने बड़ी हिकारत से उनसे कहा, “मुंह बंद करो और अपने घर बैठो!”

डेसमंड टूटू ने शांत मन से, संयत स्वर में कहा, “लेकिन मैं तुमको बता दूं कि वे बनावटी क्राइस्ट नहीं हैं!”

डेसमंड टूटू ने अंतिम सांस तक न संयम छोड़ा, न सत्य! गांधी की तरह वे भी यह कह गए कि यह मेरे सपनों का दक्षिण अफ्रीका नहीं है. भले डेसमंड टूटू का सपना पूरा नहीं हुआ लेकिन वे हमारे लिए बहुत सारे सपने छोड़ गए हैं जिन्हें पूरा कर हम उन्हें भी और खुद को भी परिपूर्ण बना सकते हैं.

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं)

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