आंदोलनकारियों का चुनाव लड़कर अपना लक्ष्य हासिल करने का उदेश्य कितना सफल?

आंदोलनकारियों को इस बात का भी अहसास होना चाहिए कि उन्हें जनसमर्थन आंदोलन के लिए मिलता है न कि सत्ता के लिए.

WrittenBy:मनीष सिन्हा
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उपरोक्त बातें इस बात की ओर भी इंगित करती हैं कि आंदोलनकारी लगातार आंदोलन नहीं चला सकते हैं. वह भी आंदोलन समाप्त करने का कुछ स्पेस ढूंढते हैं. राज्य सत्ता के पास अपनी पुलिस, कानून, संविधान आदि होता है. उसके सामने आंदोलनकारी लगातार लंबे समय तक मैदान में नहीं टिके रह सकते. संसाधन भी एक मुख्य कारण होता है. महात्मा गांधी भी समय-समय पर आंदोलन को स्थगित करते रहे हैं ताकि पुनः एकाग्र होकर संचित ऊर्जा के साथ आंदोलन में कूदा जाए. किसान आंदोलन को स्थगित करने के फैसले में तमाम कारणों में यह भी एक कारण था, अन्यथा आंदोलनकारी एमएसपी समाप्त करने के बाद भी हट सकते थे.

मैं ऐसे तीन आंदोलनकारी का नाम गिना सकता हूं जो राजनीति में आने के बाद आसानी से सत्ता पा सकते थे और शायद कुछ बुनियादी बदलाव कर सकते थे. ये नाम हैं महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण और डॉ. बनवारी लाल शर्मा, लेकिन तीनों की अंतर्दृष्टि स्पष्ट थी कि आप राजनीति में जाकर थोड़ा बहुत सुधार भले कर लें (हालांकि अब यह भी बाजार संचालित व्यवस्था में नहीं दिखता) लेकिन जिन बुनियादी बदलाव को लेकर आंदोलन किया जाता है तो वह लक्ष्य कभी हासिल नहीं हो सकता.

गांधीवाद तो प्रेम और करुणा के बल पर यह लक्ष्य हासिल करने का प्रयास करता रहा है और कुजात गांधीवादी के तौर पर मेरा यह मानना है कि आप किसी एक वाद के बल पर समाज निर्माण नहीं कर सकते हैं इसलिए आंदोलन के बल पर लोगों को जागरूक कर हम सत्ता पर इतना दबाव डाल सकते हैं कि राजनीति में जो खेल के नियम हैं और उस नियम के कारण ही इसे “काजल की कोठरी” कही जाती है उस नियम में हम बदलाव कर सकें. जब यह बदलाव होगा तभी राजनीति में जाकर हम उन आदर्शों को पूरा कर सकेंगे वरना राजनीति में जाकर हम अपनी महत्वाकांक्षा को जरूर तुष्ट कर लें, आपका “धर्म परिवर्तन” आदर्श आंदोलनकारी से सुविधाभोगी और सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ में होकर रहेगा.

आंदोलनकारियों को इस बात का भी अहसास होना चाहिए कि उन्हें जनसमर्थन आंदोलन के लिए मिलता है न कि सत्ता के लिए. 2014 के आम चुनाव में इस बात को बहुत से आंदोलनकारी न समझ कर आम आदमी पार्टी की तरफ से चुनाव में उतरने का फैसला किये और अपनी जमानत तक नहीं बचा सके.

बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी, पिछले 70 सालों में यह दो ऐसी पार्टियां हैं जो आंदोलन के गर्भ से निकलकर एक से अधिक राज्यों के अपना जनाधार समय-समय पर फैलाती रही हैं. पंजाब और उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी को इस बार सत्ता मिलेगी कि नहीं यह तो नहीं पता लेकिन इतनी सीट अवश्य जीतने जा रही है कि वह मुख्यधारा की पार्टी बन जाए. उपरोक्त दोनों पार्टियां जिन आदर्शों के लेकर चली थीं उसकी कीमत पर वह ऐसा करती हैं.

इसलिए व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि एक आंदोलनकारी को अगर उसी आदर्श और सपने को लेकर आगे बढ़ना है तो हमेशा चैतन्य रहना होगा. वैसे भी अब वर्तमान जीवनशैली, पारिवारिक दबाव और संगठन की खराब आर्थिक हालत आपको पूर्णकालिक समाजकर्मी बनने नहीं देता. अतः अगर हम आदर्श के प्रति चैतन्य नहीं रहे, तो उससे भटकने का खतरा मैं हमेशा प्रत्यक्ष रूप से आस-पास महसूस करता हूं.

(लेखक पीयूसीएल इलाहाबाद के जिला सचिव हैं)

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