स्वास्थ्य पर किए जा रहे कुल खर्च में सरकार की हिस्सेदारी करीब 40.8 फीसदी है जबकि इसके विपरीत लोगों द्वारा अपनी जेब से इसपर 48.8 फीसदी हिस्सा खर्च किया जा रहा है.
आंकड़ों की मानें तो पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं पर कहीं अधिक जोर दिया है. जहां 2013-14 में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं पर स्वास्थ्य व्यय का करीब 51.1 फीसदी खर्च किया गया था वो 2017-18 में बढ़कर 54.7 फीसदी हो गया है. वहीं यदि प्राथमिक तथा माध्यमिक स्वास्थ्य सुविधाओं की बात करें तो सरकार स्वास्थ्य पर किए जा रहे कुल खर्च का करीब 80 फीसदी से ज्यादा हिस्सा उस पर व्यय करती हैं.
पिछले कुछ वर्षों में स्वास्थ्य के क्षेत्र में सामाजिक सुरक्षा पर किए जा रहे खर्च में वृद्धि दर्ज की गई है जिसमें सामाजिक स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम, सरकार द्वारा वित्तपोषित स्वास्थ्य बीमा योजनाएं और सरकारी कर्मचारियों को दी गई चिकित्सा प्रतिपूर्ति शामिल है. इसपर किए जा रहे खर्च में 2013-14 के 6 फीसदी के मुकाबले तीन फीसदी की वृद्धि हुई है जो 2017-18 में बढ़कर करीब नौ फीसदी हो गई है. यही नहीं स्वास्थ्य के लिए दी जा रही विदेशी सहायता 0.5 फीसदी तक कम हो गई है.
हालांकि इन सबके बावजूद कोविड-19 ने देश में मौजूद स्वास्थ्य सुविधाओं की पोल खोल दी थी. जब लोगों के लिए अस्पताल में ऑक्सीजन और बेड भी कम पड़ गए थे. वहीं यदि 2020 में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी रिपोर्ट को देखें तो बीमारी के चलते 27,623 लोगों ने बीमारियों के चलते आत्महत्या की थी जोकि कुल आत्महत्या करने वालों का 18 फीसदी था.
कुल मिलकर यह कहा जा सकता है कि भले ही स्वास्थ्य क्षेत्र पर किए जा रहे सरकारी खर्च में इजाफा किया गया है, इसके बावजूद देश की एक बड़ी आबादी अभी भी इन स्वास्थ्य सेवाओं से कोसो दूर है. स्वास्थ्य पर पर्याप्त आबंटन की कमी के चलते गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली सात फीसदी आबादी और 23 फीसदी मरीज स्वास्थ्य सेवाओं का भार उठा पाने में असमर्थ हैं.
हालांकि केंद्र सरकार ने 2025 तक स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का करीब 2.5 फीसदी खर्च करने का लक्ष्य तय किया है, जबकि वैश्विक औसत देखें तो वो करीब छह फीसदी है. देश में इससे बड़ी दुर्भाग्य की बात क्या होगी कि हर चार में से एक परिवार को चिकित्सा सेवाओं का भुगतान करने के लिए या तो कर्ज लेना पड़ता है या फिर अपनी संपत्ति बेचनी पड़ती है.
(साभार- डाउन टू अर्थ)