मुनव्वर फारूकी, संबित पात्रा, सुधीर चौधरी और डंकापति का दरबार

दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और खबरिया चैनलों के रंगमंच पर संक्षिप्त टिप्पणी.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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सब कुछ वैसा ही था. हस्तिनापुर की हवा भी वैसी ही थी. आर्यावर्त की सियासत भी उसी रफ्तार से चल रही थी, किसानों का आंदोलन भी जारी था. धृतराष्ट्र का दरबार में आना जाना भी जारी था और संजय का कहनियां सुनाना भी जारी था. इसी के इर्द गिर्ड डंकापति के दरबार की कुछ कहानियां.

बीते हफ्ते वरिष्ठ टेलीविज़न पत्रकार विनोद दुआ नहीं रहे. उनका परिवार आज के पाकिस्तान के डेरा इस्माइल खान से आजादी के वक्त भारत आया था. दिल्ली की शरणार्थी बस्ती से निकल कर टीवी पत्रकारिता की बुलंदी छूने का सफर अपने आप में एक दास्तान है. लेकिन विनोद दुआ की शख्सियत के बारे में एक वाक्य में जो बात कही जा सकती है वो ये कि पत्रकारिता में ताऊम्र अपनी शर्तों पर जीने वाले वो इकलौते व्यक्ति होंगे.

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले, चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले. विनोद दुआ गुलशन के कारोबार का हिस्सा बन गए. कारोबार खबरिया चैनलों का भी यथावत जारी है. इस कारोबार पर बात करते हुए हमने इस बार की टिप्पणी में आईटीडीसी यानी भारत पर्यटन विकास निगम के चेयरमैन बनाए गए भाजपा नेता संबित पात्रा की बात की. पात्रा नेता हैं इनकी पार्टी सत्ता में हैं, तो पार्टी ने बना दिया चेयरमैन. हर पार्टी ऐसा करती है, अपने लोगों को रबड़ी-मलाई बांटती रहती है. लेकिन पात्रा को लगता है कि यह पद उन्हें उनकी प्रतिभा और योग्यता के कारण मिला है न कि पार्टी के कारण.

इन्हीं उलटबासियों के ऊपर इस हफ्ते की टिप्पणी.

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