विनोद दुआ: राजनेताओं से उलझना उनकी फितरत में था

कम लोगों को मालूम होगा कि विनोद दुआ कभी कार्यक्रम की स्क्रिप्ट नहीं तैयार करते थे और न ही प्रॉम्प्टर पर पढ़ते थे.

WrittenBy:ओम थानवी
Date:
Article image

विनोद दुआ नहीं रहे. चिन्ना भाभी के पास चले गए. जीवन में साथ रहा. अस्पताल में साथ रहा. तो पीछे अकेले क्यों रहें.

उनका परिवार डेरा इस्माइल खान से आया था. मैं उन्हें पंजाबी कहता तो फौरन बात काट कर कहते थे- हम सरायकी हैं, जनाब. दिल्ली शरणार्थी बस्ती से टीवी पत्रकारिता की बुलंदी छूने का सफर अपने आप में एक दास्तान है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई, “जैसी करते थे, करते थे” के साथ कुछ रंगमंच का तजुर्बा हासिल करते हुए टीवी की दुनिया में चले आए. कीर्ति जैन ने उनकी प्रतिभा को पहचाना, यह बात उन्हें हमेशा याद रही. दूरदर्शन सरकारी था. काला-सफेद था. उन्होंने उसमें पेशेवराना रंग भर दिया. उनके मुंहफट अंदाज ने किसी दिग्गज को नहीं बख्शा. जनवाणी केंद्रीय मंत्रिमंडल के रिपोर्ट-कार्ड सा बन गया, जिसे प्रधानमंत्री राजीव गांधी तक देखते थे.

कम लोगों को मालूम होगा कि विनोद कभी कार्यक्रम की स्क्रिप्ट नहीं तैयार करते थे. न प्रॉम्प्टर पर पढ़ते थे. बेधड़क, सीधे. दो टूक, बिंदास. कभी-कभी कड़ुए हो जाते. पर अमूमन मस्त अंदाज में रहते. परख के लिए आतंकवाद के दिनों में पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह से बात की. उन्हें कुछ गाकर सुनाने को कहा. ना-ना-ना करते गवा ही बैठे.

विनोदजी का हिंदी और अंग्रेजी पर लगभग समान अधिकार था. प्रणय रॉय के साथ चुनाव चर्चा की रंगत ही और थी. बाद में विनोदजी ने अपनी कंपनी बनाई. उससे परख, अखबारों की राय जैसे अनेक कार्यक्रम दिए. पर वे कार्यक्रम रहे उनके गिर्द ही.

फिर वे अपने पुराने मित्र के चैनल एनडीटीवी इंडिया से आ जुड़े. चैनल की शान बने. राजनेताओं से उलझना उनकी फितरत में था. चाहे किसी भी पार्टी के हों. चैनल ने बाद में उन्हें जायका इंडिया का जैसा कार्यक्रम दे दिया. उन्हें खाने-पीने का शौक था. कार्यक्रम के लिए देश में घूमे. चाव से. हम देश के लिए खाते हैं, उनका लोकप्रिय जुमला बना.

पर दिल से वे राजनीति के करीब थे. उन्होंने अंततः जायका बदल दिया. आईबीएन-7 का एक कार्यक्रम पकड़ा. मुझे मालूम था कि वहां निभेगी नहीं. सहारा समूह में सुबह के अखबारों वाले कार्यक्रम प्रतिदिन से काफी पैसा मिलता था. किसी बात पर सहाराश्री से खटपट हुई. मेरे सामने आईआईसी के बगीचे से लखनऊ फोन किया और गाली से बात की. किस्सा खत्म.

मगर सिद्धार्थ वरदराजन के साथ वायर में उनकी खूब निभी. जन की बात यूट्यूब पर जबर हिट हुआ. मोदी सरकार पर इतना तीखा नियमित कार्यक्रम दूसरा नहीं था. पर मी-टू में वे एक आरोप मात्र से घिर गए. वायर ने नैतिकता के तकाजे पर उनसे तोड़ ली. जो असरदार सिलसिला चला था, थम गया. बाद में सिद्धार्थ इससे त्रस्त लगे और विनोद भी.

इसके बाद भी विनोद सक्रिय रहे. नए दौर के चैनल एचडब्ल्यू न्यूज़ पर उनका विनोद दुआ शो चलने लगा. पर पहले अदालती संघर्ष जिसमें वे जीते और फिर कोरोना से लड़ाई उससे भी वे निकल आए. लेकिन कमजोरी से घिरते चले गए. चेहरा उदासी में ढल गया. और, जैसा कि कहते हैं, होनी को कुछ और मंजूर था.

विनोद दुआ से मेरी दोस्ती कोई 30 साल पहले हुई. वे और मशहूर पियानोवादक ब्रायन साइलस चंडीगढ़ आए थे. मित्रवर अशोक लवासा पूर्व निर्वाचन आयुक्त के घर जलसा था. विनोद अशोकजी के सहपाठी रहे हैं. हमें नहीं मालूम था कि विनोद गाते भी हैं. हम खाना खाकर निकलने लगे तो विनोदजी ने बड़ी आत्मीयता से रास्ता रोकते हुए, मगर तंज में, कहा कि हम सीधे दिल्ली से चले आ रहे हैं और आप महफिल को इस तरह छोड़कर निकल रहे हैं.

और उस रोज की दोस्ती हमारे घरों में दाखिल हो गई.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

दिल्ली में बसने पर चिन्ना भाभी को करीब से जाना. उनमें विनोदजी वाली चंचलता और शरारत जरा नहीं थी. कम बोलती थीं, पर आत्मीय ऊष्मा और मुस्कुराहट बिखेरने में सदा उदार थीं. दक्षिण से आती थीं, मगर हिंदी गीत यों गातीं मानो इधर की ही हों. दोनों किसी न किसी दोस्ताना महफिल में गाने के लिए उकसा दिए जाते थे. तब लगता था दोनों एक-दूसरे के लिए अवतरित हुए हों.

दिल्ली में उनसे कमोबेश रोज मिलना होता था. कई दफा तो दो बार; पहले टीवी स्टूडियो में, फिर आईआईसी में. लेकिन घर की बैठकें भी बहुत हुईं. चिन्ना भाभी के दक्षिण के तेवर जब-तब भोजन में हमें तभी देखने को मिले.

11 साल पहले जब हमारे बेटे मिहिर और ऋचा का जयपुर में विवाह हुआ, दुआ दम्पती घर के सदस्यों की तरह खड़े रहे. इतना ही नहीं, लंगा मंडली के गायन के अंतराल में विनोदजी और चिन्ना भाभी ने गीत गाए. सिर्फ राजस्थानी ढोल और करताळ की ताल पर, क्योंकि वही संगत उपलब्ध थी!

उनकी याद में आंखें नम हैं. लाखों की होंगी. डरपोक और खुशामदी मीडिया के जमाने में वैसी बेखौफ और प्रतिबद्ध प्रतिभा खोजे न मिलेगी.

बकुल-मल्लिका बहादुर हैं. पिछले लंबे कष्टदायक दौर को उन्होंने धीरज से झेला है. उनका धैर्य बना रहे. हमारी संवेदना उनके साथ है.

Also see
article imageविनोद दुआ: एक निर्भीक आवाज़ कम हो गई
article imageएक सड़क दुर्घटना: न्यूज़-18 इंडिया का पत्रकार, पुलिस और जाति का मायाजाल
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like