विनोद दुआ बिल्कुल निर्भीक-निडर व्यक्ति और पत्रकार थे. दरअसल उनके नहीं रहने का एक बड़ा नुकसान यही है.
विनोद दुआ किस मिट्टी से बनी शख्सियत थे, यह समझना हो तो उनकी बेटी मल्लिका दुआ की पिछली दो पोस्ट देखनी चाहिए. बेटी पिता की ख़राब सेहत की सूचना देती हुई भी कहीं से कातर नहीं है. वह उनकी लंबी उम्र के लिए दुआ करने को नहीं कह रही है. वह बस याद कर रही है कि उसके पिता ने एक शानदार जीवन जिया है और उनके अंत की गरिमा भी बनी रहे. उन्हें बहुत तकलीफ न हो. उसने लिखा कि यह हौसला उसे अपने पिता से ही मिला है.
जो लोग विनोद दुआ को क़रीब से जानते हैं, उन्हें एहसास होगा कि मल्लिका बिल्कुल ठीक बोल रही हैं. विनोद दुआ और चाहे जो कुछ भी हों, वे बिल्कुल निर्भीक-निडर व्यक्ति और पत्रकार थे. दरअसल उनके नहीं रहने का एक बड़ा नुकसान यही है. जिस समय भारतीय पत्रकारिता को अपने निर्भीक पत्रकारों की सबसे ज़्यादा जरूरत है, उस समय एक योद्धा कम हो गया है.
विनोद दुआ बिल्कुल शुरुआत से इस निर्भीकता का परिचय देते रहे. अस्सी के दशक में जिस 'जनवाणी' कार्यक्रम से उनकी पहचान बनी, वह इसी निडरता के लिए जाना जाता था. उस समय के पूरी तरह सरकारी दूरदर्शन में यह लगभग अकल्पनीय था कि कोई नेताओं और मंत्रियों से सख़्त सवाल पूछे. लेकिन विनोद दुआ ने यह काम किया और कुछ इस तरह किया कि उसकी क़ीमत नेताओं-मंत्रियों को चुकानी पड़ी. इन दिनों राजस्थान के मुख्यमंत्री बने अशोक गहलोत तब राजीव गांधी सरकार में युवा मंत्री हुआ करते थे. बताया जाता है कि विनोद दुआ के कार्यक्रम में उनकी जो गत बनी, उसके बाद राजीव गांधी ने उन्हें ऐसा किनारे किया कि फिर वापसी में उन्हें बरसों लग गए.
लेकिन विनोद दुआ निजी बातचीत में खुद को पत्रकार नहीं मानते थे. वे कहा करते थे कि वह ब्रॉडकास्टर हैं. शायद यह बात वे कुछ हल्के ढंग से कहते रहे हों, लेकिन इसके पीछे कहीं यह भाव हुआ करता था कि दरअसल उनकी मूल ज़मीन कुछ और है- साहित्य, कला-संस्कृति के क़रीब. बरसों बाद ‘परख’ जैसे उत्कृष्ट कार्यक्रम के साथ उन्होंने इसका परिचय भी दिया.
यह सच है कि 'जनवाणी' के बाद विनोद दुआ की अगली पहचान उन चुनाव चर्चाओं से बनी जो वे प्रणय रॉय के साथ मिलकर दूरदर्शन पर किया करते थे. उस दौरान बड़ी सहजता से अंग्रेज़ी और हिंदी में उनका एक साथ आना-जाना हमारी तरह के युवाओं को प्रमुदित करता था. याद कर सकते हैं कि टीवी पर चुनाव चर्चा के लिए उन्हीं दिनों उन्होंने जो मुहावरा बनाया, वह अब तक कायम है और हिंदी पत्रकारिता अब भी उन्हीं शब्दों के आसपास घूम रही है.
लेकिन फिर कहना होगा कि राजनीति से ज़्यादा प्रिय उन्हें संगीत, रंगमंच और सांस्कृतिक बोध रहे. वे खुद भी बहुत अच्छा गाते थे. गायन से जिसे महफ़िल जमाना कहते हैं, उसमें उनका सानी नहीं था. एक दौर में वे रंगमंच से भी जुड़े थे और कई रंग-निर्देशकों से उनका क़रीबी परिचय था- रंगमंच से सिनेमा में गई कई मशहूर शख़्सियतें उसी परिचय के सिरे से उनको क़रीब से जानती थीं.
मेरी उनसे आत्मीयता के सूत्र कहीं उनकी इन्हीं रुचियों में थे. यह सच है कि बरसों नहीं दशकों से, लगभग दैनंदिन की 'न्यूज़ ग्राइंडिंग' करते हुए भी मैं अंततः साहित्य और संस्कृति की दुनिया में विचरण करने वाला पत्रकार ही हूं. तो हमारे बीच अक्सर इस तरह की चर्चा होती, कई बार आपसी मतभेद भी होते, लेकिन अक्सर हम कई चीज़े आपस में साझा करते हुए बातचीत की एक निरंतरता बनाए रखते.
जिस समय टीवी पत्रकारिता की भाषा लगभग अनपढ़ता को छू रही है, जब शब्दों से उनकी स्मृति छीन ली जा रही है, उस समय विनोद दुआ की अपनी भाषिक समझ किसी भी पत्रकार के लिए स्पृहणीय हो सकती थी. शब्दों का उनका सटीक चयन, उनका साफ़ सुथरा उच्चारण- उनके कार्यक्रम को अपनी तरह की गरिमा देते थे.
शब्दों के अलग-अलग रूपों पर भी हमारी ख़ूब बात होती और हम कभी सहमत या कभी असहमत होते. एक ख़तरे के रूप में सांप्रदायिकता की शिनाख्त को लेकर हम एकमत थे, लेकिन चीन-पाकिस्तान को लेकर उनकी धारणाओं से मैं खुद को कुछ असहमत पाता था और सेना को लेकर मेरी धारणाओं से वे खुद को अलग पाते थे. निश्चय ही वह मुझसे ज़्यादा देशभक्त थे.
लेकिन दिलचस्प यह है कि यह देशभक्त पत्रकार भी इस दौर के उन कथित राष्ट्रवादियों को रास नहीं आ रहा था जो सांप्रदायिकता और देशभक्ति के गठजोड़ से सत्ता का और चुनाव जीतने का एक नया मॉडल विकसित कर रहे हैं. उनके विरुद्ध अपनी निर्भीक राय रखने की वजह से उन्हें मुकदमे झेलने पड़े. इस दौरान मैंने उनको फोन किया तो देखा कि वह पूरे हौसले से भरे हुए हैं. उन्होंने कहा कि वे इन लोगों के ख़िलाफ़ घुटने नहीं टेकेंगे बल्कि अदालत में ज़रूरी लड़ाई लड़ेंगे. आने वाले दिनों में हमने देखा कि उन्होंने यह लड़ाई लड़ी और जीती.
बेशक विनोद दुआ ने पत्रकार के तौर पर बहुत शोहरत हासिल की, मगर बहुत महत्वाकांक्षी वे कभी नहीं दिखे. वे जीवन का आनंद लेते थे, बहुत भागदौड़ में कभी नज़र नहीं आते थे- तब भी नहीं, जब उनसे दूसरों को इसकी अपेक्षा हुआ करती थी. कभी मैंने मज़ाक में ग़ालिब का एक शेर उन्हें सुनाया था (जो किसी अन्य मौके पर दिवंगत कवि पंकज सिंह ने मुझे सुनाया था)- 'दिया है ख़ल्क को भी कुछ कि वां नज़र न लगे / बना है ऐश तज़म्मुल सैन खां के लिए.' विनोद दुआ ने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया. वे एक मस्तमौला आदमी थे.
एनडीटीवी से उनके अलग होने के बाद उनसे मेरी मुलाकातें कम होती गईं, लेकिन बातचीत का सिलसिला लगातार बना रहा. अक्सर कभी भी उनका फोन आ जाता था और वह किसी शब्द का, या किसी कविता पंक्ति का, या किसी रचना का संदर्भ जानना चाहते थे. वे हंसी-हंसी में कहा करते थे कि आप मेरे शब्दकोश हैं.
उनका जाना इस लिहाज से मेरे लिए एक निजी क्षति है. एक ऐसा शख्स कम हो गया है जिसे मेरे शब्दों में भरोसा था. लेकिन इस दौर में जब मीडिया लगातार सत्ता का मुखापेक्षी होता जा रहा है, जब डरी हुई पत्रकारिता सत्ता से सवाल पूछने से कतरा रही है, तब विनोद दुआ का जाना एक बड़ा सार्वजनिक नुकसान है.